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बेटी
कविता

बेटी

जीवन धीमान घनसोत, हिमाचल प्रदेश ******************** एक कली खिली मेरे आंगन में, धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। मन गर्व से उन्नत हुआ, दिल खुशी से प्रफुल्लित हुआ। आसमान को छूने लगी, उंचे पदों पर शोभायमान हुई। दो कुलों का रिस्ता निभाने लगी, यही है आज की बेटी की पहचान। फूलों की खुशबू होती है, घर की राजदार है बेटी। बचपन से बुढ़ापे का सहारा है, फिर भी गर्भ में क्यों मार दी जाती है। मां चाहिए, पत्नी चाहिए, बहन चाहिए, चाहिए गर्लफैंड़। फिर बेटी क्यों नहीं चाहिए, बिन बेटी-बेटा का क्या करोगे। मैं भी सांसे लेती हूं, बेटा नही तो क्या हुआ। कैसे दामन छुड़ा लिया, जन्म लेने से पहले ही कोख में मार दिया। चंद लोगों की बातों में आ गए तुम, मैं बोझ नहीं हूं, भविष्य हूँ बेटा नही, बेटी हूं। बेटी की मुहब्त को कभी अजमाना नहीं, दिल नाजुक है फूल की तरह। उसे कभी रुलाना नहीं, बेटी पहचान है मां-बाप की। आओ मिलकर लें...