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Tag: काकोली बिश्वास

माँ
कविता

माँ

काकोली बिश्वास सिमुलतला (बिहार) ******************** मन का इक कोना है सूना आखिर अब काहे को रोना चित्कार में दफन उस मासूम को किया था मैंने ही अनसुना सिसकियाँ भर जब उसने कहा था न कर मुझको खुद से दूर पत्थर सा मन ना पिघला था न बहा था नेत्र से नीर निठुर खाली गोद अब बिलख रही है मन विसादित है गम से चूर क्यूं आयी कुछ पल के खातिर और आकर अब क्यूं गयी वो दूर? जब हम थे एक ही जाति के फिर क्यूं ये क्रूरतम भेदभाव? सुलगन मन के बुझे न बुझती तन से गहरा मन का घाव तीन महीने का ही रिश्ता वो थी बड़ी निश्चल बड़ा अटूट जाने किसकी थी लगी नज़र क्षण में छन्न से गया वो टूट मन से निकली आह निकली थी पर जुबां तक सिमटकर रह सी गयी तन जख़्मों से तिलमिला उठा आंखों से लहू बह सी गयी रिश्ता था एक माँ बेटी का जो थी मेरे खुन से पली समाज की कुत्सित रूढ़ियों की चढ़ गयी मेरी नवजात शिशु बली मूढ समाज की बेहयाई का इससे बुरा और क्या प...
संसार का बदलता स्वरूप
कविता

संसार का बदलता स्वरूप

काकोली बिश्वास सिमुलतला (बिहार) ******************** संसार का बदलता स्वरूप हो रहा कुत्सित, बड़ा कुरूप मर्यादा रहती ताखों पर, और बड़े-बुजुर्ग हैं, खामोश और चुप! युवाओं का मन डोल रहा संस्कारों की कमी बोल रहा बोले इनका असंयमित मन धैर्य का हुआ अब वक्त खतम! बनना था इन्हें हमारा कल ये हैं अटूट-अडिग-अचल ये कहते चाहे जो हो जाए न बनेंगे हम भारत का बल न बनेंगे हम भारत का कल! हम अपनी धुन पर चलते चले हमें दुनिया की परवाह कहाँ, हमारा अपना जहाँ वहां.... सुख-समृद्धि-कुकृत्य जहाँ! नशा जुर्म हमसे हैं फलते अपने पास है वक्त कहां!! ईश्वर के हम अद्भुत सृष्टि मानव का ऊर्जामय रूप पर इस ऊर्जा की बर्बादी पर देश की जनता क्यूँ है चुप??? क्यों नहीं ये आवाज उठाती इन्हें सही राह पर लाती... 'बिगड़ा युवा, बिगड़ेगा देश' क्यों आखिर ये समझ न आती? शेष है अब भी वक्त है थोड़ा लोहा है गर्म मारो हथौड़ा... न जाने किस करवट बदले द...