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Tag: अनुराधा बक्शी “अनु”

स्त्री का अंधकार
आलेख

स्त्री का अंधकार

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, (छत्तीसगढ़) ******************** कितना मुश्किल है स्त्री होना और उससे भी ज्यादा मुस्किल उसका स्त्री बने रहना। एक स्त्री असीमित शक्ति की स्वामिनी होती है। वैसे तो प्रकृति और स्त्री एक ही है पर प्रकृति ने स्त्री की शारीरिक रचना को जितना जटिल बनाया है उसकी सोच को उससे भी ज्यादा जटिल और शारीरिक क्षमता मे अपेक्षाकृत कुछ कमजोर भी। जब स्त्री एक जीवन को जन्म देकर गहन अंधकार से प्रकाश में लाकर उसे को प्रकृति का हिस्सा बनाती है तब उसकी शारीरिक पीड़ायें इस जटिलता की कहानियां कहती हैं।कितना सुखद और पीड़ादायक है मां बनना। इस पीड़ा को सुखद भी एक स्त्री ही बना सकती है। क्योंकि वो एक शक्ति है। अक्सर स्त्री जाने-अनजाने बहुत सारे बंधनो में बांधकर स्वयं को संचालित करती रहती है जो या तो समाज, रूढ़ी, परम्पराओं इत्यादि द्वारा दिए हुए होते है और कुछ के आवरण वो स्वयं से ओढ़े रहकर ख...
रूहानी बातें
संस्मरण

रूहानी बातें

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, (छत्तीसगढ़) ******************** "मैंने घोसले तोड़ दिए हैं अपनी मन्नत के। तुम्हें जाते देख रोई है आत्मा बहुत। आंखों में दर्द की रेखाएं वक्त बेवक्त उभर आती हैं, लालिमा के साथ। दर्द की ये इंतेहा ही मेरे प्यार की इम्तिहा है। हम तुम पर इस तरह फना हुए जैसे तुम हवा में धुलकर सांसों में समा गए जाते हो। ये हमारी बातें हैं। ये हमारा प्रेम है। मैं घंटों अपने आप में तुमसे बातें करती हूं। तुमको सोचती हूं। तुमको जीती हूं। ये सूनापन ये बेचैनी हर बार मुझे तुम्हारी ही तरफ मोड़ देती है। तुम मुझ में खत्म ही नहीं होते हो। सभी की नजरों से परे मैं एक दूसरे में खोए हम खिलखिलाते हैं, रोते हैं, एक दूसरे के साथ होते हैं" आज फिर तेज़ बबंडर आया और अपने साथ सब कुछ उजाड़ कर मुझे दूर किसी बियावन में छोड़ गया। जहां दूर दूर तक मुझमें तुम्हारा इंतजार करती मैं और तुम मुझमें मुझसे अंजान मेरे अ...
परिवर्तन
कहानी

परिवर्तन

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, (छत्तीसगढ़) ******************** "शरीर मिट्टी में शामिल हो मिट्टी का पुनर्निर्माण कर देता है, फिर क्या है जो मरता है? ये दिल इतना शोर क्यों करता है। किसी के जाने से असह्रा दर्द क्यों और कहां से आता है? खुद को समाप्त करते ही उनकी यादें भी खत्म हो जाएंगी और बेकाबू रुदन से जिंदा रहा नहीं जाता।" दर्द के अवसाद में सुबह-शाम डूबी अक्सर मैं अपनी दुनिया अपनी आंखों से निहारती। "इन दिनों प्रकृति जिस तरह अपने अदृश्य पन्नों पर अपने असहज घोटाले की कहानियां लिख रही थी और हम अपने हाथ हाथों में लिए दृष्टा की भांति उसे निहार रहे थे वो बहुत कुछ कह रही थी और बहुत कुछ सिखा भी रही थी।" कभी सोचा ना था दूध की चिंता बिस्तर छोड़ने पर और रोजमर्रा की जरूरतें है दरवाजे से बाहर निकलने पर मजबूर कर देंगी। स्कूल जाते वक्त वो मुझे बस स्टॉप पर छोड़ते और मेरे आने से पहले बस स्टॉप पर गाड़ी लिए...
स्वयं की खोज
कविता

स्वयं की खोज

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, (छत्तीसगढ़) ******************** महिलाएं कभी अपने आप को अबला और कमजोर ना समझे। उनमें हर प्रकार की क्षमता और ताकत निहित है जिसे उन्हें पहचानना है और विकसित करना है और इस राह में निर्णय लेकर मेहनत की राह पर अकेले चलने से कभी डरना नहीं है। सचमुच "डर के आगे जीत है" इस अनुभव से स्वयं को रूबरू कराना है। वो सृजनकर्ता हैं। ये गुण हर स्त्री के अंदर है। सबसे पहले तो महिलाएं सहारा लेना छोड़ दे, क्योंकि वह प्रकृति की सर्वोत्तम रचना है। उनके अंदर अनगिनत रंग भरे हुए हैं जिन्हें उनको समझ कर उन्हे निखारना होगा। शील की तरह स्त्री में भी निर्माण और विनाश की दोनों का गुण है। वो सृष्टिकर्ता है, सृजनकर्ता हैं। अपनी अहमियत समझ उनको अपनी इन गुणों को विकसित कर परिवार और समाज और राष्ट्र के निर्माण में अपनी मजबूत भूमिका निभाना है। स्त्री अपने इन गुणों में तभी निखार ला सकती है जब वह हर परि...
वक्त की बात क्या करें कोई
कविता

वक्त की बात क्या करें कोई

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, (छत्तीसगढ़) ******************** वक्त की बात क्या करें कोई फिर वही बात क्या करें कोई हम तो अपने सनम की बाहों में फिर नरम हाथ क्या करें कोई खुद को खोना तुझको पाना है । फिर तेरा साथ क्या करें कोई मुंतशिर इस तरह हुए अरमा फिर नए ख्वाब क्या करें कोई "अनु" अपनी वफा की राहों में। बेवफा रात क्या करें कोई। परिचय :- अनुराधा बक्शी "अनु" निवासी : दुर्ग, छत्तीसगढ़ सम्प्रति : अभिभाषक घोषणा पत्र : मैं यह शपथ लेकर कहती हूं कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंदी में टाईप करके हमें hindirakshak17@gmail.com पर अणु डाक (मेल) कीजिये, अणु डाक कर...
कन्यादान
कहानी

कन्यादान

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, छत्तीसगढ़ ********************                               उस नन्ही किलकारी से सारे घर का वातावरण संगीतमय में हो गया। उसके हाथ पैर की थिरकन, चेहरे की भाव-भंगिमा का आकर्षण किसी को भी उससे दूर ना जाने देता। पंडित जी ने यह कहते हुए उसका नाम लीना रखा- " कि उससे उसके गृह नक्षत्र बता रहे हैं कि जो इससे मिलेगा इसमें लीन हो जाएगा।" बड़े होते हो हुए उसके नाम की खूबी बखूबी उसके स्वभाव में झलक रही थी। अपने मुस्कुराहट की डोर में सभी को समेटे लीना ने सभी के अच्छे गुणों को अपने में समाहित कर रखा था। हर विद्या में पारंगत, स्वभाव से नम्र, कुशाग्र बुद्धि लीना मेरे दिखाए रास्ते का अनुसरण कर आज सफल ड्रेस डिजाइनर बन चुकी थी। उसके स्वभाव, पेंटिंग और रंगोली की ही तरह उसके ड्रेस की डिजाइन भी अनूठी होती । आज उसकी शादी का रिश्ता आने पर उसके युवा होने का पता चला। मैं हैरान सोच रहा था अ...
मां काश आप होती
संस्मरण

मां काश आप होती

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, छत्तीसगढ़ ********************                 बचपन में मां को पिता से छोटी-छोटी बात पर झगड़ते और बहस करते देखा है। मां के प्रति उस वक़्त कभी-कभी गुस्सा और अनादर का भाव आ जाता था। जैसे-जैसे बड़ा हुआ तो उनके गुस्से को समझा कि वह पिता के लिए नहीं उन परिस्थितियों के लिए था जिसमें मां हमें जो देना चाहती थी और नहीं दे पाती थी। अभाव से भरे जीवन की मजबूरी ने मां को चिड़चिड़ा बना दिया था। बड़े होते हुए मां को बहुत सी बातों के साथ समझौता करते देखा। हमें बड़े स्कूल में पढ़ाने का सपना अक्सर मैं उनकी आंखों में देखता। वो हर संभव प्रयास किया करती कि एक स्तर बरकरार रख सकें ताकि हमारी परवरिश में कोई कमी ना हो। उनके प्रयास सफल भी होते। मां का जीवन हमारे लिए साधन जुटाते गुजरा। उन्होंने ये जिम्मेदारी स्वयं उठा की और पिता से अपेक्षाएं कम कर दी। मैंने भी उनके प्रयास में उनका साथ दिय...
बेखबर
कविता

बेखबर

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, छत्तीसगढ़ ******************** विचारों का बहाव बार-बार तुम्हारे तरफ मुड़ जाता है। जैसे यादों का सावन वहा बरस रहा हो और मैं यहां भीग रही हूं। परवाह किए बगैर कि तुम्हारे मन में मैं हूं या नहीं। तुम्हारे ना रहने से पूरा शहर ही वीरान हो जाता है। स्क्रीन पर तुम्हें देखने मोबाइल बार-बार उठाना। उंगलियों का मैसेज टाइप करके मिटाना। इस बात से बेफिक्र कि तुम्हें मतलब नहीं इन सब से। मन तुम्हें ही क्यों चाहता है। जिंदा है तुम्हारे हाथों की छुअन जो, अनजाने टकराया मेरे हाथों से। उस स्पर्श ने सिर्फ मुझे छुआ। इस बात से बिल्कुल बेफिक्र तुम। मैं सिर्फ तुम्हारे लिए और तुम बिलकुल...! बेखबर... ! बेखबर... ! बेखबर...! परिचय :- अनुराधा बक्शी "अनु" निवासी : दुर्ग, छत्तीसगढ़ सम्प्रति : अभिभाषक घोषणा पत्र : मैं यह शपथ लेकर कहती हूं कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं...
सृजन
कविता

सृजन

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, छत्तीसगढ़ ******************** पत्तों पर अल्लड़ अटखेलियां करतीं बूंदें। पेड़ों के कानों में धीरे से कुछ कहती हवा। पेड़ों का उन्मुक्त भाव से झूम उठना। दोपहर में श्याम का गुमा होने लगना। कलरव करते विहग वृंद की घर वापसी। शरारतें, अटखेलियां, प्रकृति की कोख में हलचल। मेंघों की गर्जन पर लहरों का नाचना-गाना। ये बारिश नहीं,बीज वो रहा है समय, परमात्मा की किलकारी का, सृजन का। जैसे प्रकृति खेल रही है, लुभा रही है, मीठी उमंग भर रही है, जवां जवां हो। पोखरों में खुदको निहारते बादल। जाने किसकी प्यास बुझाते बदल। कभी वसुधा के करीब आते, कभी ललचाकर दूर भाग जाते बादल। मचलकर तीव्र वेग से जल तरंगों का, सागर में समाहित होने उसकी तरफ भागना। क्या ऐसा मिलन तुमने कभी देखा है? क्या ऐसा सृजन तुमने कभी देखा है? परिचय :- अनुराधा बक्शी "अनु" निवासी : दुर्ग, छत्तीसगढ़ सम्प्रति : अभिभाषक म...
उपजाऊ जमीन
कहानी

उपजाऊ जमीन

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, छत्तीसगढ़ ******************** "पिछले कई सालों से जिम्मेदारियां निभाने जी तोड़ मेहनत करता रहा। अकेलेपन से कई बार टूटा पर परिवार के लिए हर दर्द सजाता रहा। कभी फर्ज कभी पितृत्व समझ कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ता रहा। पर पिछले कुछ सालों से विचारों की जमीन पर दर्द और अकेलेपन के जो बीज बोए उसकी फसल पकती, झड़ती और लहलहाती। ना कोई काटने वाला ना बांटने वाला। मन में उठती पीरें कभी आंखो तक आ जाती तो वापस अंदर ससका लेता। लॉकडाउन पिछले कुछ समय से था पर मेरी जिंदगी में खुशियों का लॉक डाउन उम्र दर उम्र साथ चल रहा था। "अपने ही ख्यालों में खोया मैं मास्टर ऑफ आर्ट ५९ साल की उम्र में कोरॉना में कंपनी द्वारा की गई छटनी में अपनी नौकरी गवांकर सिक्योरिटी गार्ड इंटरव्यू के लिए तेज कदमों से पैदल भागा जा रहा था। आज अंदर का तूफान आंखों से होते हुए गालों पर और सीने तक पहुंच गया था। कई बार परदेश ...
नदी और नारी
कविता

नदी और नारी

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, छत्तीसगढ़ ******************** निश्छल नदी में अक्सर लोग पाप धोने आते हैं। आस्था के नाम पर गंदा कर चले जाते हैं। उसकी पवित्रता को दिल में रख कर देखना। कभी जलजला, कभी किनारे मंदिर बन जाते हैं। स्त्री और नदी दोनों की पवित्रता में है समानता। दोनों के गर्भ गृह में सृष्टि का स्पंदन होता। नदी भी सृजन करता स्त्री भी सृजन करता। इनकी अमृतधारा पावन करती धरा। इनकी बाहों में अठखेलियां करते गौतम राम कृष्ण। इनके पावन तट पूजे जाते कौन हो इनसे उऋण। नारी से नर बना, नदी में नर तर जाते। नदी और नारी भक्ति का एक रूप कहलाते। दोनों की गहराई में उतरकर ही इन्हे पाया जाता है। इन दोनों का सम्मान करने वाला ही पूजा जाता है। इनके पावन चरणों में जीवन सुगम सुहाने हो जाते हैं। ऋषि मुनि पावन धरा पर इनकी वजह से पूजे जाते हैं। स्वयं को इनमें अर्पण कर दो। नदी को पूजो, नारी में समर्पण कर दो। नारी में...
विश्वास
कहानी

विश्वास

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, छत्तीसगढ़ ********************     मैं अक्सर पुस्तक लेकर जाम के पेड़ पर बने वाय आकार पर चढ़कर पढ़ाई करती। इस बार दो-तीन दिन बाद जाना हुआ। इस बात से अनजान की जाम के पेड़ पर मधुमक्खी ने घर बना लिया है। मेरी चीज निकलते ही पापा दौड़े-दौड़े आए माजरा समझते देर न लगी। लकड़ी में रूई लपेटकर मिट्टी तेल में डूबा कर धुआं से मधुमक्खियों को यह कहते हुए भगा दिया कि- "तुमने मेरी टुकटुक को काटा" और मैं हंस दी। मेरे चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए कितनी जादूगरी दिखाते। हर प्रकार की छोटी बड़ी बात व्यावहारिकता से चरितार्थ करके मुझ में स्वाभाविक तौर पर भर देते। मित्रवत व्यवहार करके जीवन के हर पहलू से अवगत कराते मुझे परिपक्व बनाने प्रयासरत रहते। वह दिन भी आ गया जब मेरी विदाई को दूर किसी कोने से खड़े हुए देख रहे थे। हम दोनों ही एक दूसरे की आंखों में आसूं नहीं देख सकते थे। शायद पापा ऐसे ...
इतिहास अपने आप को दोहराता है
स्मृति

इतिहास अपने आप को दोहराता है

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, छत्तीसगढ़ ******************** श्यामल वर्ण, गुलाबी उभरे गाल, आकर्षित करती बड़ी-बड़ी कटीली आंखों के ऊपर लंबी-लंबी ऊपर को उठी पलकें, धनुष के समान गाढ़ी भौहों के ऊपर बीच की लंबी मांग और मांग के दोनों तरफ घने काले बाल और सजी हुई स्वेदन पंक्तियां। मानो ईश्वर ने उसे अलग से गढ़ा था। मेरे घर से मुख्य मार्ग तक जाने का बस वही एक छोटा रास्ता था जो उसके आंगन से होकर गुजरता था। मैं जब भी उस रास्ते का उपयोग मुख्य मार्ग पर जाने के लिए करती, हमेशा सोचती वह एक बार दिख जाए। मेरे लिए भी उसके मन में शायद यही भाव थे, क्योंकि जब भी मैं उसकी आंगन से गुजरती वह लंबे-लंबे कदमों से अपने दालान में आकर खड़ी हो जाती और मुझे ओझल होते तक निहारती। उसे देखकर अनायास ही मन सोचता ईश्वर की बनाई आकृति इतनी मोहक तो स्वयं कितना सुंदर होगा। इस बार काफी समय बाद वहां से गुजरना हुआ। वह लगभग दौड़ते हुए दाला...
मैं हूं भी, नहीं भी
कविता

मैं हूं भी, नहीं भी

मैं हूं पर कहां? यह मेरा नाम है। जिस ओहदे से जाना जाऊं वह मेरा काम है। संबंधों में बिखरा है वह मेरा अस्तित्व है। खुद को जानने ढूंढ बना वह जीवन स्पंदन है। मेरी शिक्षा, परवरिश, आयु शरीर में मुझे समझने का जरिया है। पंचतत्व से बना उसी में विलीन होकर माटी का पुनर्निर्माण किया। मुझे जानने की अनंत यात्रा में मैं हूं भी नहीं भी हूं। दिखता है वह मैं नहीं हूं जो नहीं दिखता वह मैं हूं। मैं शरीर नहीं हूं, मैं मन भी नहीं हूं। सिर्फ मैं ही मैं हूं हर जगह चराचर जगत में। जीवन की अनंत यात्रा में मैं हूं भी नहीं भी हूं। . परिचय :- अनुराधा बक्शी "अनु" निवासी : दुर्ग, छत्तीसगढ़ सम्प्रति : अभिभाषक मैं यह शपथ लेकर कहती हूं कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानिया...