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Tag: अंजना झा

बेशकीमती मोती
कविता

बेशकीमती मोती

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** नहीं अब तो कदापि भी नहीं सौपूंगी तुझे उस मैले भावों में सीप से ढूंढ ढूंढकर निकाले हुए वो अनमोल बेशकीमती मोती क्योंकि नहीं है तेरे लोलुप से नज़रों में अतुलनीय मोती की पहचान लगा दोगे इक कीमत बिंदास और बेच दोगे बाजार भाव में क्योंकि जीवन बन चुका भौतिकवादी हर भाव में ढूँढते हो बस स्वार्थ अतृप्त रहते हो शायद हर वक्त मृगतृष्णा में पड़ने की है आदत क्योंकि कभी कर्मठ बन नहीं कमा पाते ना ही इच्छाओं से हो उबर पाते आइना देखने का वक्त भी नहीं है पर मोती की है अदम्य सी चाहत क्योंकि उंचाई पर पहुँच कर गरज लेते फिर उन सीढ़ियों को गिरा देते भूल जाते हो उन सबकी कीमत जिसने सौंपा आज तुझे वो राह इसलिए अब कर दूंगी साफ उस मोती को अपने इस बेदाग पाक आंचल से पुनः वापस बंद कर सहेज दूंगी मैं अनमोल मोती पुनः उस सीप में पर न लगने दूंगी तेरे ...
जीवन के सपने
कविता

जीवन के सपने

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** सपनों से घिरी है हमारी जिंदगी औ जिंदगी के हर पड़ाव पे सपने रहते हैं उलझे हुए हमसब ताउम्र ख्वाब में इन्हें पूर्ण करने के सपने। कुछ पूरे होते कुछ रह जाते अधुरे हमारे ही विचारों से बुने हुए सपने कभी धागे में पिरो ओढ़ लेते सपने कभी जालियों में उलझे रहते सपने। कुछ आसमां को छू लेने के सपने काल्पनिक उड़ान से ओतप्रोत हो यथार्थ की धरातल को स्पर्श कर सागर की गहराई मापने के सपने। प्रेमातुर आलिंगनबद्ध होने के सपने अलौकिक उर्जा से परिपूर्ण स्व को कर्मपथ पर निर्बाध अग्रसित होकर कर्मयोगी बनने के अर्थयुक्त ये सपने। आध्यात्मिक दर्शन के पश्चात अंततः बस आराधक बनकर श्री हरि को अपनी स्तुति से मग्न होकर रिझाने और उनमें समाहित होने के सपने। मंदिर औ श्मशान के धूएं के रंग की तासीर के अंतर को आत्मसात कर अंततोगत्वा उस चरमोत्कर्षानंद के ख्वाब में डूबने उतरने के ये...
अनछुए बिखरे पल
कविता

अनछुए बिखरे पल

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** हम चाहते हैं समेटना अपने इस आंचल में अहसास के सारे अनछुए बिखरे हुए पल उम्र के गुजरते हुए हर इक पड़ाव के संग जीत औ हार के वो दरकते फिसलते पल बचपन में उंचाई में खुद से ही उछाले हुए उम्मीदों के वो पांच छोटे औ सख्त कंकड़ पुनः हथेली फैला वापस पा लेने की चाह में बस जीत जाने की चाहत के वो अशेष पल। बिदाई के वक्त व्यग्र पिता की शिक्षा को जीवन के नवनिर्माण का आधार बनाकर माँ के आंसू में मिले आशीष की झड़ी संग बेहिसाब प्यार से सराबोर ममत्व के वो पल। नवकोपल को अपनी गोद में अठखेलियाँ करने की अनवरत चाहत संग संपूर्णता में डूब कर अपना सर्वस्व न्यौछावर करके भी वात्सल्य को देख प्रफुल्लित होने के वो पल। उम्र के मध्याह्न में सहृदयता से स्वतंत्रचेता अपनाते हुए स्व प्रश्न वाचक बन संयमित स्वनुशासित होकर जीवन के उत्तरार्द्ध में सूक्ष्मदर्शी बन शिवत्व को पाने के व...
अब नरसंहार करो
कविता

अब नरसंहार करो

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** कालिका रणचंडी बन तुम भी अब नरसंहार करो। बहुत बन गई नाजुक तुम अब न कोई श्रृंगार करो।। उठो जागो ये कहना भी अब नहीं मायने रखता है। खप्पर और खडग लेकर तुम भयमुक्त हुंकार भरो।। नहीं कहुँगी कोमलांगी हो तुम न हो सुंदरता की मूरत। आत्मबल के संग बढ़ तुम वीरता का इतिहास रचो।। शर्म हया के परदे से बहुत झुका लिया पलकें अब। घूरती उस हर नजर को तुम अपने नजरों से भी बेधो।। खुद की रक्षा के साथ उस माँ के भय को भी समझो। आत्मनिर्भर बनाकर जो विदा करती कर्म पथ पर।। सहमी सी रहती वो सुरक्षित तेरे घर वापस आने तक। अब कर रही हर माँ आह्वान अपनी हर इक बेटी से।। आत्मरक्षा के लिए बेटी परंपरा की बेडियो को तोड़ो। बहुत बन गई नाजुक तुम अब न कोई श्रृंगार करो।। . परिचय :-  नाम : अंजना झा माता : श्रीमती फूल झा पिता : डाक्टर बद्री नारायण झा जन्म तिथि : ६ अगस्त १९६९ जन्म स्था...
अंतर्द्वंद
लघुकथा

अंतर्द्वंद

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** बहुत दिनों बाद बचपन की सहेली रीना से मिलने के लिए मैं अति उत्साहित थी। और इसी खुशी में पूरी रात जगी रह गयी। गुज़रे दिनों की सारी बातें चलचित्र की तरह मानस पटल पर चल रही थीं। महाविद्यालय की वो शांत सी बाला जब काफी अरसे बाद फेसबुक पर दिखी तो पहचानने में बिलकुल वक्त नहीं लगा मुझे। और फिर फोन ने तो वर्षों की दूरियों को पल भर में घनिष्ठ कर दिया। जब भी बात होती रीना की खनकती आवाज उससे मिलने की इच्छा और बढ़ा देती। मिलने की व्यग्रता में अपनी व्यस्ततम दिनचर्या से समय निकाल कर मैं उसके गाँव पहुँच गई। गांव का खुले आंगन वाला घर कितना साफ और सलीके से सुसज्जित था। आखिर रहता भी क्यों न इस घर की मालकिन सुशिक्षित सौम्य महिला जो थी। रीना की सारी पड़ोसन मुझसे मिलने आ गयी थीं। ऐसा लग रहा था मैं सिर्फ रीना की सहेली नहीं उन सभी की रिश्तेदार हूँ। इस अपनापन ने भावा...
पुरुष धर्म
कविता

पुरुष धर्म

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** उर्मिला से वनगमन की सहमति नहीं ली बस भातृधर्म का पालन कर लिया तुमने आरती की थाली में दीपक सजाकर वो स्व के हर मनोभाव को अंतर्सात कर विदा करती निसंकोच करने वचन पालन और तुम बिठा देते हो देवी के पद पर बिना जानकारी दिये उस सरल स्त्री की अतृप्त अंतह् में मचलती दबी हर इच्छा उसे स्त्री धर्म के नाम पर करके कुर्बान क्योंकि तुम हो समाज के प्रतिष्ठित पुरुष पुरातन से आजतक रहोगे निर्णय कर्ता कभी स्वयं भी करो न तुम धर्म निर्वहन झुक कर लगा दो तुम भी लाल टीका कर दो दीपक को सजाकर थाल में बिना किसी तर्क के धर्म पालन हेतु विदा उसे तुम भी इक जलते हुए दीपक के इंतज़ार और पुरुष धर्म के विश्वास साथ बस जिस दिन उसके निर्णय को सहजता और पवित्रता से आत्मसात करके तुम करते मिलोगे उस उर्मिला का इंतजार लक्ष्मण तभी सही मायने में हो जाओगे भगवान बनकर उस अर्थ पूर्ण पद पर आसीन और...
तरंगित रागिनी
कविता

तरंगित रागिनी

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** झंझावात में बिखरे वो सूखे पत्ते बिछड़ कर अपनी टहनियों से असहाय फैल जाते हैं धरा पर इकत्रित होने के क्रम में आती है आवाज झनझनाहट की अनवरत फिर भी इकट्ठा कर डाल दिए जाते उस कूड़े के ढे़र पर भस्म होने हेतु खोकर अपना वास्तविक वो आकार पर स्व का विनाश कर पाटते रहते वर्षोंं से बनी हुई उस गहरी खाई को या फिर डाले जाते उस निर्जरा पर जहाँ मिटाकर अपना स्व अस्तित्व सड़ और गल कर स्वार्थ हित से परे बनाते उर्वर भूमि सर्वहित के लिए क्योंकि पता है समय चक्र का उन्हें इक दिन तो जड़ से अलग होना है या तो उस असामयिक झंझावात से या फिर उस समय पूर्ण समयावधि से जाते हुए इक अव्यक्त झनझनाहट के असह्य दर्द को व्यक्त करते हुए ही सही अपने सम्पूर्णता को भस्मित करके भी कर जाते है बस परोपकार स्वार्थ रहित ताकि सूखे पत्तों की वो झनझनाहट भी बने सुमधुर संगीतमय तरंगित रागिनी। . पर...
महत्वाकांक्षा
लघुकथा

महत्वाकांक्षा

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** अपने आंसू पोछते हुए शालू समझ नही पा रही थी इस परिस्थिति के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाये। शिक्षित परिवार की शालू सर्व गुण संपन्न थी। मायके और ससुराल दोनों ही परिवार में प्रिय थी। इकलौता बेटा तरूण की परवरिश भी ऐसे किया कि लोग बाग तारीफ करते न थकते थे। संस्कार और उच्च सामाजिक मापदंड दोनों ही कड़ियों का पालन हो रहा था बेटे के परवरिश में। फिर कहां चूक रह गई । संदीप के बार बार समझाने पर भी शालू के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे कल रात जब बेटे का फोन आया था - "माँ आपको पोता हुआ है और साथ में हमें यहाँ की नागरिकता भी मिल गयी। "आपकी मेहनत ही रंग लायी है माँ जो आज मैं ये सब हासिल कर पाया हूँ। शालू के दिल दिमाग में इक ही बात घुमड़ रही थी - ये सपना तो कभी न था मेरा कि बेटा अपनी मिट्टी छोड़ कर विदेशी बन जाये। उसने तो विदेश में शिक्षा दिलवाने का कदम इस...
साथ-साथ
कविता

साथ-साथ

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** आम जन नहीं है परेशान मन्दिर और मस्जिद से कब सोच में आती उसे राम लला की जन्मभूमि और कब याद आता बाबरी का मस्जिद।। उसकी सोच में तो है मंहगाई का अस्तित्व।। पत्नी डूबी इस फिक्र में क्या बने रोटी के साथ सब्जी या फिर दाल क्योंकि इस भाव में नहीं दे सकती दोनो साथ-साथ ।। पति की सोच सिमटी है ईद और दिवाली पर क्या दिलाउं परिवार को उपहार के नाम पर।। काफी मशक्कत के बाद भी दे नहीं सकता नये कपड़े और मिठाइयों के डब्बे पूरे परिवार को साथ साथ ।। बेटा भी तो समझ नहीं पा रहा क्या करें कम व्यय में कौन सी डिग्री कर पायेगी उसका उद्धार मां की ईच्छा अभिलाषा पिता के ईमानदार सपने कैसे पूरे होंगे साथ साथ।। अचानक मिला एक समाचार रामलला को भूमि मिल गई मस्जिद को भी मिला जमीन बस इक पल थम गई सबकी सोच और विचार मिले साथ साथ।। अचानक घर की लक्ष्मी का स्वर गुंजायमान...
स्त्रीत्व की स्वाधीनता
कविता

स्त्रीत्व की स्वाधीनता

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** स्त्रीत्व की स्वाधीनता को पहचानने लगी है वो स्वयं में स्व को ढूंढकर खुद में जीने लगी है वो अति गहरे जख्म दिये सतत इन अपनों ने उसे इन बनावटी रिश्तों में उलझ उबने लगी है वो। चाहती है अंतर्सात कर ले गहरे जख्मों को वो झेल जाए जीवन के कठोर झंझावातों को वो सहेजे रिश्तों के जाल जिसने घायल किया उसे डर है रिश्ते सहेजते चटक कर न टूट जाए वो मानस में पडे़ अतीत के नींव को कैसे उखाडे़ वो कटुता से व्यथित मन को किस तरह संभालें वो उपदेश वही दे रहे हैं जिन्होंने घायल किया उसे सुन उनके आदर्शवाद व्यग्रता से खिन्न हुई है वो। छल प्रपंच की कटुता से ओतप्रोत हो चुकी है वो छद्दम जीवन अब नहीं व्यतीत कर सकती है वो दुख के क्षणों ने अंतर्आत्मा में संबल दिया है उसे चट्टान बन स्व को समेटने में माहिर हो गई है वो। स्त्रीत्व की स्वाधीनता को सही पहचान देगी वो आत्मविश्वास क...
ईश का आशीष
कविता

ईश का आशीष

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** जीवन की अविरल धारा में चाहिए यदि ईश का आशीष क्यों आडंबरपूर्ण विधान में आस्था औ पूजा के नाम पर श्रद्धाहीन विचारों के जाल में जकड़ देते हो अपने आप को मन के अवसाद को दूर करने की अतृप्त इच्छा मे बंधकर लटका देते हो न मूल प्रकृति औ मौलिक चेतना को सूली पर। अंतस्थ की जागृति औ ताजगी हेतु करते हो न बुनियादी भूल क्यों चढा देते हो इक आवरण धर्म आस्था व्रत औ परंपरा का। मंत्रोच्चार से करना है अगर स्वयं को स्वच्छ और पवित्र तो भीगो न इस संकल्प से जो भर दे सकारात्मक ऊर्जा। चाहते हो मूल्यवादी जीवन दमित कर दो आसुरी प्रवृति जागृत करो न दैवीय संस्कार ध्यानस्थ हो जाओ क्षमा भाव में फिर नहीं घिरोगे आडंबर से प्रवाहित होगी न अंतर्मन में सतत ही सकारात्मक उर्जा हो जायेगा सार्थक मंत्र स्नान। जीवन के अविरल धारा में मिलेगा तभी ईश का आशीष। . परिचय :-  नाम : अंजना झ...
खूबसूरती बसी है तुझमें
कविता

खूबसूरती बसी है तुझमें

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** जिंदगी कितनी खूबसूरती बसी है तुझमें आलिंगनबद्ध हैं तुझसे तेरे हर स्वरूप में सत्य से परे बंधे हैं मोह के अटूट बंधन में आशा और आकांक्षा के भ्रमित संसार में। हमें लुभाती रहती है तू सदा हर रूप में कभी पूजा की पवित्र सजी हुई थाली में कभी मद से भरे उस गर्मागर्म प्याली में डूबते रहते हैं सदा झूठ की खुशहाली में कभी सराबोर होली के रंगबिरंगे रंगों में कभी दीपावली के प्रज्ज्वलित दीप में कभी रमज़ान के पश्चात ईद के चांद में कभी ईश के झिलमिलाते क्रिसमस में। कभी बसंत के मदमस्त पुरवाईयों में कभी पतझड़ के सूखे हुए उन पत्तों में कभी गर्मी की उमसपूर्ण उन थपेड़ों में कभी शीत की कंपकंपाती हवाओं में । क्यों ऐ जिंदगी हम डूब गए हैं तुझमें बंधी हो तुम सांसों की कच्ची डोर में झूठ और सच के क्षीण से आवरण मे बेगाना कर देता जो तुझसे इक पल में। . परिचय :-  नाम : अंज...
स्त्री का अस्तित्व
कहानी

स्त्री का अस्तित्व

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** रूपा तीन विद्यालय की संचालिका है। इतनी कर्मठ महिला अपने आप सम्मान की पात्रा हो जाती है। कितनों को ही रोजगार देने में सक्षम। एक समय ऐसा भी था जब वह अपनी जिंदगी से निराश हो चुकी थी। जीवन का चक्र तो अनवरत चलता है जिसमें दिवस के उजाले के साथ रात्रि की कालिमा का भी आवागमन होता है। मैं जिस रूपा को जानती थी महाविद्यालय के दिनों में वो अपने आप में ही सिमटी रहती थी, और मैं भी अंतर्मुखी, स्वाभाविक था दोनों इक दूजे के ज्यादा करीब नहीं थे। पर अरसे बाद जब रेल में यात्रा के दौरान हम दोनों आमने सामने की सीट पर मिले तो हर्षातिरेक से भर आलिंगनबद्ध हो गए। दोनों का ही व्यक्तित्व परिवर्तित मैं उम्र के इस पड़ाव पर अंतर्मुखी से बहिर्मुखी और रूपा भी व्यावसायिक महिला के अनुसार मिलनसार। थोड़ी देर इक दूजे की पारिवारिक जानकारी ली हम दोनों ने, पर मैंने महसूस किया अतीत ...
अधिकारी दामाद
लघुकथा

अधिकारी दामाद

अंजना झा फरीदाबाद हरियाणा ******************** प्रिया बैठक में गुमसुम बैठी थी, उसे पता नहीं चल रहा था - रंजन से कैसे जिक्र करे माँ के आने का। क्या शादी के समय हुई घटनाओं को भूलकर सहजता से व्यवहार कर पायेगा रंजन माँ के साथ। माँ की सोच भी तो कुछ गलत नहीं थीं अपनी बेटी के लिए अपने सामाजिक स्तर का ही दामाद चाहतीं थीं। सरकारी अफसर की बेटी का हाथ अपने भविष्य निर्माण में लगे निजी संस्था के कर्मचारी के हाथ में कैसे दे देतीं। अब ये अलग बात थी कि रंजन की पारिवारिक स्थिति से प्रभावित होकर दोनों के दिल में प्यार के बीज माँ ने ही डाले थे। प्रिया के पापा रंजन के ही घर की गली में आलीशान मकान खरीदे और पूरे परिवार को स्थायी रूप से रखकर अपने कार्य स्थल पर चले गए। रंजन के पापा भी उच्च पदासीन पदाधिकारी,बड़े भाई शहर के नामी चिकित्सक। उनका मकान भी कुछ कम आलीशान नहीं था। उसमें सोने पर सुहागा ये कि जात बिरादरी ...