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कलम का सिपाही
कविता

कलम का सिपाही

शैल यादव लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज) ******************** जन्म इकतीस जुलाई अट्ठारह सौ‌ अस्सी। जन्मस्थल उत्तर प्रदेश के लमही जिला काशी।। माता‌ थी आनंदी पिता थे अजायब राय। धनपत राय बचपन का नाम उर्दू में नवाब राय।। अमृत राय पुत्र का नाम पत्नी का शिवरानी। लिखकर चले गए लगभग तीन सौ कहानी।। कहानियों का संग्रह है 'मानसरोवर' नाम से। प्रसिद्धि उनकी विश्व में लेखन के काम से।। बनारस से निकालते थे वे पत्रिका 'हंस'। लेखन में अब तक चल रहा है इनका वंश।। 'बड़े भाई साहब' पढ़ा पहुंचे जब अष्टम् में। दो बैलों की कथा पढ़ी आ गये जब नवम् में।। फटे जूते के बहाने मौका मिला दशवीं में। ईदगाह पढ़ने का मौका मिला ग्यारहवीं में।। 'प्रेमचंद घर में', 'कलम का सिपाही' की कहानी। पत्नी और पुत्र ने लिख डाला उनकी जीवनी।। गद्य की विधाओं में उनकी बहुत पकड़ थी। नम्र थे विनम्र थे ‌उ...
असंगत
कविता

असंगत

शैल यादव लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज) ******************** जो संगत नहीं होता वही 'असंगत' है, यह संसार दोनों में ही बहुत पारंगत है। 'असंगत' दैनिक जीवन का‌‌ ही एक अङ्ग है, बदलता‌ प्रतिदिन जीवन का जैसे रङ्ग है। असंगत हैं सभी के शरीर के कुछ अङ्ग भी, असंगत हैं चाल-चलन असंगत हैं ढङ्ग भी। शरीर की सभी अंगुलियाॅं होती असंगत हैं, किन्तु सभी कार्यों में ‌वे होती पारंगत हैं। असंगत सदैव ही नकारात्मक नहीं होता, ‌बुराइयों से असंगत होना ही सही होता। असंगत है संसार के सभी व्यक्तियों का रुप, मिलता नहीं कभी भी किसी का स्वरूप। कोई यहाॅं श्याम वर्ण तो कोई पूरा श्वेत है, कहीं है धरा उर्वर तो कहीं बिलकुल रेत‌ है। कोई अकिंचन तो कोई‌ धनपति कुबेर है, कहीं गेंदा, गुलाब तो कहीं केवल कनेर है। असंगत हैं बोली-भाषा असंगत हैं देश, असंगत हैं रहन-सहन असंगत हैं वेश। असंगत को संगत का मिले जब...
चतुर्दिक
कविता

चतुर्दिक

शैल यादव लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज) ******************** चतुर्दिक, सबजन को जकड़ा है भ्रष्ट तंत्र ने, मानवीयता की जगह ले लिया अब यंत्र ने। यंत्रवत व्यवहार करने लग गए सब लोग, तन का मन से अब नहीं रह गया योग। लूट हत्या डकैती का सर्वत्र बोलबाला है, सर्वत्र अंधेरे से पराजित उजाला है। कहीं छल है कहीं दम्भ है कहीं द्वेश है, कहीं झूठ कहीं पाखण्ड कहीं आवेश है। कहीं भुखमरी है कहीं बेरोजगारी है, जहाॅं देखें वहीं दिखती लाचारी है। रोजगार नहीं मिल रहा बेरोजगारों को, भोजन का संकट है उनके परिवारों को। सरकारी तंत्र तो बिल्कुल ही सड़ गया है, सबके अहित हेतु बिलकुल वह अड़ गया है। परीक्षा से पहले ही उत्तर चतुर्दिक है, यह कार्य लगता बिल्कुल अनैतिक है। इस अनैतिकता का दिखता कहीं अन्त नहीं, इसको रोकने वाला दिखता कोई सन्त नहीं। राम लला के आने पर भी नहीं कोई भय, ...
मेला
कविता

मेला

शैल यादव लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज) ******************** यह संसार एक अद्भुत विशाल मेला है, अनेक सम्बन्धों का अनुपम यहाॅं रेला है। रेले में जब अपनों से हाथ छूट जाते हैं, नेह के सभी धागे जब टूट जाते हैं। जब व्यक्ति हो जाता बिल्कुल अकेला है, तब जीवन यह लगता सबको झमेला है। जहाॅं देखें वहीं दिखाई दे रहा है खेल , कहीं झूला, कहीं गाड़ी, तो कहीं ‌है रेल । चटपटे व्यञ्जनों का यहाॅं होता बोलबाला है, जो सभी उम्र वालों को करता मतवाला है। दुकानों को सजाकर सभी बैठे विक्रेता हैं, खुद सज सॅंवरकर निकले सभी क्रेता हैं। कहीं मृत्यु का कूप कहीं जीवन का दृश्य है, ध्वनि विस्तारक यंत्रों से शांति अदृश्य है। पल-पल बदलता यहाॅं जीवन का परिदृश्य है, यहाॅं नहीं कोई कभी बिल्कुल अस्पृश्य है। सभी रङ्ग सभी रूप सभी जाति सभी धर्म यहाॅं, जीवन की सच्चाई का दिखता है मर्म यहाॅ...
धर्म
कविता

धर्म

शैल यादव लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज) ******************** धार्यते इति धर्म:सर्वमान्य परिभाषा है धर्म की, धर्म में प्रमुखता है सर्वत्र बस केवल कर्म की। सद्कर्मों का अभाव जहाॅं वहाॅं कोई धर्म नहीं, धर्म हीन मानवों में रह सकता कोई मर्म नहीं। इस संसार में मानव का सर्वोच्च धर्म है मानवता, किंतु कुछ वर्षों से हावी‌ है सारे संसार में दानवता। जिसके हृदय में प्राणियों हेतु नहीं है कोई निष्ठा, दानवता की परिभाषा है वह नीचता की पराकाष्ठा। उच्च‌ मानव कुल में जन्म लेकर कार्य न‌ हों नीच, सद्गुणों सद्व्यवहारों की एक आदर्श रेखा खींच। संतानों की उत्तरोत्तर प्रगति में पिता का ही धर्म है, खेती के उत्पादन में केवल अपना‌ कठिन कर्म है। सभी लोग सुखी रहें ऐसी हो सबकी कामना, अनिवार्यतः किसी से नहीं होगा दुःख का सामना। इस धरा पर हैं अनेक जातियाॅं और धर्म भी, सबके भिन्न ...
हे प्राणप्रिय …
कविता

हे प्राणप्रिय …

शैल यादव लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज) ******************** जब-जब घर से जाना होता, बहुत दिनों पर आना होता, नत नयनों को नम करके, अंतिम दिन का खाना होता ! प्रिय से बोली प्राणप्रिया तब, बोझिल लगता कर्म क्रिया अब, अबकी लौट के ‌आना जल्दी, बिना आप के शून्य यहाॅं सब! बिना आप के मेरे आर्य, ठीक न लगता कोई कार्य, रजनी दिवस ‌स्वपन जागृत में, हो गये हैं आप अब अपरिहार्य! दो जिस्मों में एक है जान, सच कहती हूॅं झूठ न मान, तुम बिन मेरा अस्तित्व नहीं है, मेरी तो ‌केवल तुम शान ! बच्चों का भी यही है हाल, टिफिन बैग स्कूल बवाल, जाती हूॅं थक ताम झाम से, सब लगता जी का जंजाल! क्यों पढ़ना-लिखना छोड़ दिए, क्यों अपने मुंह को मोड़ लिए, पथ के कांटों को फूल बनाकर, क्यों अपनी राह को मोड़ लिए! नयन राह की ओर निहारे, सबकी आशा हो तुम प्यारे, ओ मेरे जीवन आधार, आ जाओ जी चाह पुकारे!! ...
दुनियादारी
कविता

दुनियादारी

शैल यादव लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज) ******************** सामाजिक संबंधों से जब मैं, हो जाऊंगा निराश और हताश, तब मेरे मुंह से निकलेगा अनायास, कि धोखे की नींव पर, टिकी है यह‌ सारी दुनिया, कि जिसकी नींव ही धोखा हो, हकीकत ‌हो सकती है, भला उसकी मंजिल कभी? फिर मैं कहूंगा, चिरस्थाई नहीं है, इस संसार के लिए जो, वह मेरे लिए कैसे स्थाई हो सकता है, जो भी आया है जीवन में किसी के, जाएगा तो अनिवार्यतः ही, यह परम सत्ता, तो प्रतिपल परिवर्तनशील है, उसने कहा था कि, परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, और जो शाश्वत होता है, वह कभी भी अशास्वत कैसे हो सकता है? इसलिए उसका बदलना, उसके भीतर के दोषों को नहीं दिखता, बल्कि दिखाता है, उसके भीतर की दुनियावी सास्वतता...!! परिचय :- शैल यादव निवासी : लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज) सम्प्रति : शिक्षक- जीआईसी घोषणा ...
अबे ओ काले घन!
कविता

अबे ओ काले घन!

शैल यादव लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज) ******************** अबे ओ काले घन! क्यों बना रहे हो हमें और भी निर्धन, पेशे से ‌भले ही मैं 'किसान' हूॅं, लेकिन यार मैं भी तो एक इंसान हूॅं, नहीं मिलती किसी भी प्रकार की हमको पेंशन है, दिन-रात,सुबह-शाम, आठों पहर केवल टेंशन है, चैत माह में जब रबी की फसल तैयार है, फिर बूॅंदों की तलवारों और ओलों से क्यों प्रहार है, हमारी जिंदगी में क्यों रोड़े बन रहे हो, निरपराध के लिए भी क्यों कोड़े बन रहे हो, तैयार फसलों को देखकर कैसे तुम्हारा मन करता है आने को, अब तुम ही बताओ कहाॅं से लाऊॅं अन्न बच्चों को खाने को, खून पसीने से सींच-सींच कर जब मैं अन्न उगाता हूॅं, तब जाकर कहीं बच्चों के लिए मैं दो वक्त की रोटी पाता हूॅं, लेकिन अबकी बार तो रोटियों से पहले तुम आ गए, मौत का तरल दूत बनकर गगन में तुम छा गए, अब तुम ही बताओ कैसे ह...
मैं रंग हूॅं…
कविता

मैं रंग हूॅं…

शैल यादव लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज) ******************** हाॅं! मैं रंग हूॅं। मेरी कोई जाति नहीं, मेरा कोई धर्म नहीं, मैं किसी का शत्रु नहीं, किसी विशेष का मित्र नहीं, सब हमारे हैं, मैं सबका अंग हूॅं, हाॅं! मैं रंग हूॅं। दिन-रात, सुबह-शाम में, जामुन, गुलाब और आम में, तन बदन धरती आकाश में, रजनी के तम दिवस के प्रकाश में, वृक्ष लता गुल्म में, रहम करम ज़ुल्म में, मैं सभी के संग हूॅं, हाॅं! मैं रंग हूॅं। प्रकृति के यौवन के श्रृंगार में, फूलों के साथ-साथ अंगार में, गिरगिट और सियार में, प्यार और तकरार में, नफ़रतों से तंग हूॅं, हाॅं! मैं रंग हूॅं। सफ़र में हमसफ़र में, गली गाॅंव शहर में, आठों प्रहर में, जीवन जीने का अलग-अलग ढंग हूॅं, हाॅं! मैं रंग हूॅं। हाॅं! मैं रंग हूॅं...। परिचय :- शैल यादव निवासी : लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज) ...
ऋतुराज वसन्त में हूॅं
कविता

ऋतुराज वसन्त में हूॅं

शैल यादव लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज) ******************** मैं वर्षा में, शिशिर में, ऋतुराज वसन्त में हूॅं। मैं पूरब में, मैं पश्चिम में, मैं सारे दिगन्त में हूॅं।। मैं गेंदा में, गुड़हल में, गुलाब और पलाश में हूॅं । मैं इच्छा में आकांक्षा में, मैं आप की आश में हूॅं ।। मैं रक्षाबंधन में, दीपावली में और होली में हूॅं। मैं कुमकुम में, चंदन में और रंगोली में हूॅं।। मैं दोस्त में, मैं दुश्मन में, जागते में सपनों में हूॅं । मैं शत्रु में, मैं मित्र में, मैं पराये और अपनों में हूॅं।। मैं अलक्तक में, महावर में,चूड़ी और कङ्गन में हूॅं। मैं पूजन में, अर्चन में, नमन और वन्दन में हूॅं ।। मैं भारत माता के माथे पर शोभित बिंदी में हूॅं। मैं पंजाबी, गुजराती, मराठी और हिन्दी में हूॅं ।। मैं युद्ध में, मैं बुद्ध में, मैं कृष्ण में, मैं राम में हूॅं। मैं दिन में, मैं ...
मैं शिक्षक हूँ
कविता

मैं शिक्षक हूँ

शैल यादव लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज) ******************** हाँ, मैं शिक्षक हूँ! मैं ही बनाता चिकित्सक, अभियंता, नीतियों को बनाने वाला नियंता, दाता हूँ, शिक्षा का, ज्ञान का, और हूँ, मैं ही अज्ञानता का हंता, कभी कुंभकार के कच्चे कुंभ की तरह, ठोकता हूँ‌, पीटता हूँ, तरासता हूँ, कभी ज्ञान का, अनुशासन का, उपहार दे बन जाता संता, जीवन हो सफल कैसे? उसका मैं वीक्षक हूँ, हाँ, मैं शिक्षक हूँ! मैं ही बनाता वक्ता, प्रवक्ता, अधिवक्ता, न्यायाधीश, मैं ही बनाता डीएम एसएसपी दारोगा पुलिस, मैं ही बनाता चालक, परिचालक, संचालक और उड़ाने वाला हरक्यूलिस, मैं ही सिखाता क्रिकेट कबड्डी कराटे कुश्ती फुटबॉल हांकी और टेनिस, नैतिक मूल्यों का मैं नियमित निरीक्षक हूँ, हाँ, मैं शिक्षक हूँ! मैं ही हूँ शिखर तक पहुंचाने वाला, क्षमाशील, कर्तव्यनिष्ठ, मै‌ ही हूँ गुरु द्रोणाचार्य, ...