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Tag: शरद सिंह “शरद”

भुला न सके हम
कविता

भुला न सके हम

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** चाहा बहुत था भुला दे तुम्हें हम पर भुला न सके हम पूछा जमाने ने होती क्यो रुसवा, चाहा बहुत था कह दे सभी कुछ पर बता न सके हम। तडपे थे जब जब हम हास्य बिखेरा था हमने हंसे थे लब पर हंस न सके हम चाहा बहुत था करदे बयां हम पर बेबाफाई तुम्हारी कह न सके हम। जागे सदा यादों में तुम्हारी पलकें झुकी पर सो न सके हम। रही नम यह आंखे सिले होंठ अपने बरसे नयन पर रो न सके हम . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर ...
यह ज़िन्दगी
कविता

यह ज़िन्दगी

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** न जाने क्यों चलते चलते, यह ज़िन्दगी ठहर जाती है। त्याग कर प्राचीनता, नवीनते में झांकती आंखें, छोड़ कटुता, मधुरता को तलाशती आंखें, न जाने क्यों स्वयं गुम हो जाती हैं। न जाने क्यों चलते........ हंसते अधर, अठखेलियां करते थिरकते पांव, तपती धूप से तड़प कर, किसी तरु की ढूंढते छांव, न जाने क्यों इनमें शिथिलता आ ही जाती है। न जाने क्यों....... खिलखिलाते होंठ जब नकार बदहवासियों को, मनाते जश्न जब त्याग उदासियों को, न जाने क्यों आंखे विद्रोही हो जाती हैं। न जाने क्यों....... उडें उन्मुक्त हो, परिंदों से, विस्तृत गगन में, भरे मस्त हो उड़ाने, तितली सी चमन में, न जाने क्यों मस्तियां अवरोधित हो जाती है। न जाने क्यों....... मदमस्त भाव उभरते हैं हृदय पट पर, उभरते हैं नये रंग चित्र पट पर, न जाने क्यों चलती लेखनी सिहर जाती है। न जाने क्यों चलते चलते ज़िन्दगी...
मन मेरा
कविता

मन मेरा

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** आज झूम उठा मन मेरा है, वारिश की ठन्डी बूँदो मे, लहर लहर लहराया मन मेरा है आज झूम उठा मन मेरा है। काली बदरिया ने झाँका था मुझे, मदमस्त आँखो से निहारा था मुझे, बोली थी क्यो है इतराई सी, मै बोली कुछ लजाई सी शरमाई सी आज विहॅस उठा  मन मेरा है, वंशी ध्वनि से झूम उठा मन मेरा है, आज झूम उठा मन मेरा है। पपिहा ने लगाई टेर दूर कही झुरमुट में, आज फिर छुपा चाँद घूँघट मे, मेरा मन तड़पा है चन्दा की चाह मे, तू है अपने कान्हा की वाँह मे, आज तुझसे जलता मन मेरा है, आज झूम उठा मन मेरा है। विहँस उठी राधा सुन पपिहा की बातों को, कब से जगी हूँ मै ओ बाबरे रातो को, कान्हा के मिलन से आज, पुलकित मन मेरा है। आज झूम उठा मन मेरा है। आज झूम ...........।। . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.क...
स्वप्न
कविता

स्वप्न

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** मदमस्त हो दौड़ पडी़ गगन मे पंछी बन, समझ बैठे हमसे हँसी अब कहाँ यह वन उपवन, भूल गयी यह स्वप्न है मिट जायेगा भोर होते ही, खो जायेगे सब नजारे एक ठोकर के आते ही, विचर रही थी गगन मे इतराती नसीब पर, टूट गया स्वप्न फिर हुई तन्हाई मे मगन . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु ...
मन मेरा डर जाता
कविता

मन मेरा डर जाता

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** मै सोई थी, जगा गया वह हौले से, देखो अब मै आ गया बोला कानो में हौले से, क्यों उदास होती है अब तू, मै तेरा तू मेरी है क्यों भरती नयनो मे आँसू, क्यों चौक-चौंक उठ जाती है। मै बोली तेरे बिन कान्हा, नही चैन मुझे आता है, न भाते यह रास रंग, न सोना ही अब भाता है। जब तू छुप जाता है कान्हा, मन मेरा डर जाता है, न जाने किस डर से कान्हा, हिलक हिलक दिल रोता है, तू कहता है तू मेरा है, फिर क्यो तू तड़पाता है, देख के मेरे ब्यथित ह्रदय को, क्या चैन बहुत तू पाता है, एक यही ख्वाहिश है मेरी, मै तेरे संग रहूँ सदा, जब चाहूँ मै तुझे निहारूँ, कभी न हो तू मुझसे जुदा, वादे बहुत किये है मुझसे, अब यह भी वादा कर दे, हाथ पकड़ लेगा तू मेरा, अन्त समय मे आकर के अन्त समय में आकर के।। . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने...
नया
कविता

नया

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** हर सुबहा हर दिन नया होता है, नयी किरन नया सूर्य होता है, फूलो की सुगन्ध नयी और, पक्षियों का कलरव नया होता है, नयी धरती नया अम्बर, मौसम भी नया होता है, कही वीरानियां कही महफिल, कही उदासी फिर भी जश्न होता है, पर मेरी उदासी  हो या महफिल, मेरे संग मेरा कान्हा होता है। . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानि...
याद आता है
कविता

याद आता है

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** तेरा यमुना तट पर वंशी बजाना, और मेरा अपलक तुझे निहारना, याद आता है कान्हा। मिले थे जब हम कदम्ब की छाँव मे, तमन्ना थी समा जाऊँ आगोश मे, तेरे कहे शब्द "आऊँगा जल्दी ही", गूँजते हैं हर पल इन कानो मे, वादा कर छोड़ दिया तन्हा फिर, नयन बरसे यूँ ज्यों घटा बरसे घिर घिर हर बात पर विश्वास किया हमने, हर बार वादा कर तोडा़ तुमने, हर आहट पर नजरे उठा करती है, हो के मायूस फिर जम के बरसा करती हैं। . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, ल...
मिथ्या ख्वाब
कविता

मिथ्या ख्वाब

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** खेले सदा  जो वीरानियो मे भाई उन्हें कब महफिले, अरमा सजे टूटे सदा जब मिलती कहाँ है मन्जिले उड़ते परिन्दे देख के नभ मे, तौल लिये पर ख्वाहिश के, हर ख्वाहिश दम तोड़ गयी, की भाग्य ने गुप चुप साजिश ये, सप्त सिन्धु भर जाये अश्रु से, या उठे दावानल अन्तस मे, तिल तिल कर मर जाये स्वप्न, या मिले ठोकरे हर पग मे, हो न मलिन ह्रदय किसी का, तेरे अन्तर की दुखती रग से, होठों पर मुस्कान सजा नयनो मे छुपा ले मोती को, महफिल मे जगा कहकहे बुलन्द, फिर अश्रु बहा ले वीराने मे, यूँ बहका ले अपना हर अरमां, मिथ्या ख्वाब जगा कर जीवन मे . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेर...
दिवा स्वप्न
कविता

दिवा स्वप्न

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** बिना पंख उड़ जाये गगन मे, होड़ लगायें पंछी संग, देखे सपने ऊँचे ऊँचे, अलग हकीकत का है रंग! लगें चाँद तारे मुट्ठी में, चाहें जब भी खेलें संग, उतरे चाँद मेरे आंगन में, कण कण में भर देता रंग! आता है वह सांझ सकारे, हो जाती हूँ मैं गुम सुम! सुबहा बेवफा हो हो जाता है उषा के आँचल मे गुम! . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अ...
मिट जाना ही अच्छा है
कविता

मिट जाना ही अच्छा है

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** धुंधली होती स्याही का, अब धुल जाना ही अच्छा है, दर्द दे रही यादों का, अब मिट जाना ही अच्छा है। भूल न पाते उन लम्हों को, जो टीस बने चुभते अब तक, ह्रदय से ऐसे लम्हों का, अब मिट जाना ही अच्छा है। दर्द दे रही ...... खेले थे बचपन मे जब हम आँख मिचौली सखियों संग, रंग विरंगी खुशियों को हम, नही संजो कर रख पाये, खुशियों के उन रंगो का अब धुल जाना ही अच्छा है। दर्द दे रही ..... सजा लिए अरमान बड़े, दिवा स्वप्न भर नयनो में, धूल धूसरित हुये सभी, नहीं हुये पल्लवित सपनों में ! सपनों में दर्द सिसकता है ! सपनों की इस दुनिया का अब मिट जाना ही अच्छा है ! दर्द दे रही ..... सुन्दर, सुरभित प्यारी बगिया, थे पुष्प खिले प्यारे प्यारे ! मनुहारि ऐसा रूप खिले, किये उपक्रम जी भर के ! निद्रा त्यागी, दिन चैन गया सींचा उनको मन भर कर के, पर निष्ठुर हवा चली ऐसी, सब उड़ा दिये मन क...
ज़रा आहिस्ता चल …
कविता

ज़रा आहिस्ता चल …

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** ऐ वक्त ज़रा आहिस्ता चल, थक चुकी, संग तेरे दौड़ते दौड़ते न मिली कोई मंजिल न सहारा मिला, बहती कश्ती को न कोई किनारा मिला, रातें ढलती रही सुबहा होती रही यूँ जिन्दगी की शाम हो गयी न सुबहा सजी, न शामें सजी जिन्दगी यूँ ही बीती, जिन्दगी खोजते खोजते, ऐ वक्त .......... मै कैसे चलूँ संग तेरे बता, किधर खो गया है नही कुछ पता, मैने पकड़ा स्वयं को तो तू खो गया, तुझको जो पकड़ा, वजू़ खो गया अब कैसे तलाशूँ तू ही बता, उम्र खोने लगी अब तुझे ढूंढते ढूंढते ऐ वक्त ज़रा .................. . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित ...
क्या तुम मुस्करा पाते हो
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क्या तुम मुस्करा पाते हो

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** क्या सितम करते हो कान्हा, मेरी नींद से बोझिल आंखो को, खोलते हो अपने स्नेहिल स्पर्श से, फिर जा छुपते हो दूर कहीं, झुरमुटो मे तरुओं के, मै बावरी हो दौड़ पड़ती हूँ, तुम्हे खोजने को यहाँ वहाँ, और तुम मुझे बदहवास होते देख निर्दयी हो मुस्कराते से बंसी बजाते हो नित ही खेलते हो यह लुकाछिपी का खेल तुम कान्हा, अँखियाँ की नींद चुरा, दिन का चैन चुरा लेते हो बन्द आँखों से अहसास होता है, खोलूं जब नयन छुपे ही रहते हो, सताते हो हर दिन यूँ ही तुम मुझे कान्हा, मुझे सताकर क्या तुम, मुस्करा पाते हो? . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक ...
दीप
कविता

दीप

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** रात्रि के गहन अंधकार में वह स्वयं को जलाता गया, अश्रु बहते रहे तन पिघलता गया, बांट कर रोशनी खुद जलता गया। दूर कहीं जब दिन ढल गया, रात अन्धेरा जब छाता गया, तब वह छोटा सा दीपक जला रात भर, राह सभी को दिखाता गया। समझा न जहाँ उसकी पीडा़ कभी , होकर विकल, रात भर वह रोता गया कहाँ समझी किसी ने अहमियत दीप की, सुबह होते ही उसको नकारा गया। यही तो है चलन यहाँ का सखे, वह तो औरो की खुशियों मे खोता गया। बस औरों की.....................।। . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। ...
मै खुश थी
कविता

मै खुश थी

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** मै खुश थी अपनी तन्हाई में, क्यो स्वप्न दिखाए बहारो के। तन्हाई संग हॅसना रोना या बाते करना बस तन्हाई से, भाई थी मुझको अपनी दुनिया, क्यो स्वप्न दिखाए बहारो के, बही जब जब नयनो से अश्रु धार, गले लगाया तन्हाई ने, जीवन के खट्टे तीखे क्षण मे साथ निभाया तन्हाई ने जब भूख लगी तो गम खाये जब प्यास लगी अश्रु पिये मैने, जब दर्द हुआ दिल तड्प उठा, साथ निभाया तन्हाई ने, कुछ पल को मै जब भटक गयी, आ राह दिखाई तन्हाई ने, मै खुश थी अपनी तन्हाई ने, क्यों स्वप्न दिखाये बहारो के, रोका मुझको बहुत था उसने, पल पल समझाया तन्हाई ने कोई किसी का नही यहाँ कितना बतलाया तन्हाई ने बोली थी ठोकर खा जायेगी रोडे़ है पग पग बिछे यहाँ, महफिल न आये रास तुझे फिर क्यो ख्वाब सजाये तू, मै तेरी ,तू मेरी साथी और न कुछ अब समझे तू, न ही कोई संगी साथी कह गले लगाया तन्हाई ने मै खुश थी अपनी तन्हाई ...
अधूरा  पात्र
लघुकथा

अधूरा पात्र

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** निशा बालकनी मे खडी़ दूर क्षितिज मे आँखे गडा़ये बिचार मग्न थी। उसके हाथ मे एक कागज का टुकड़ा था, शायद किसी का पत्र। उसमे लिखे शब्द उसके मन मस्तिष्क को झकझोर रहे थे, वह जबाब देना चाह रही थी,पर समझ नही पा रही थी कैसे? क्या कहूँ? क्या सम्बोधन करूँ? प्रिय? नही प्रिय होता तो जीवन को अप्रिय न बना देता। मित्र? नही, मित्र तो सुख दुख का साथी होता है, चोट लगने पर वह तिलमिला जाता है स्वयं चोट नही देता। तो क्या सम्बोधन करूँ? अनजान? पर अनजान भी तो नही है। फिर? फिर क्या, बगैर किसी सम्बोधन के ही अपने प्रश्न पूछती हूँ। जिनका सटीक उत्तर उसे देना होगा। पर क्या दे सकेगा वह मेरे प्रश्नों का उत्तर? उसके पास होगा मेरे अनुत्तरित प्रश्नों का हल? शायद, शायद वह जबाब दे, शायद मिल जाये मुझे मेरे जबाब। दे सकोगे मेरे प्रश्नों का उत्तर? लौटा सकोगे वह पल, वह सुहानी शाम, वह गुन...
मौत  या  जिन्दगी
कविता

मौत या जिन्दगी

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** ऐ जिन्दगी ठहर जरा, तुझसे कुछ बात करना है। तुझे तेरी असलियत को, विस्तार से समझाना है। क्या मुकाबला है तेरा, और इस हॅसी मौत का, इससे तुझे रूबरू कराना है। कभी गर आया खुशी का, अबसर तेरे रहते तो अन्तर मे समाया रहा गम का अजब डर, डर रहता है तेरे रहते, न जाने कब पलट जाये पल, तू तो बढ़ जाती है साथ वक्त के, और हम रह जाते बिखरे से। किसी से मिलन तो किसी से जुदाई, ऊँचे ऊँचे महलो को कर दे धराशाई। पकड़ा बड़े जतन से किसी मन्जिल को जब जब, आगे है मन्जिल कह, सपने दिखाये तब तब। कभी किसी मन्जिल पर तू न रुकी है, बढती सदा आगे ही आगे रही है। आज गर लबों की मुस्कान बनी तो, कल नयनो से अश्रुधारा बही है। दिन के उजाले मे मिले, कुछ पल सुकूँ के तो, रात को नीद की दुश्मन बनी है। तुझसे इतर देख इस मौत को तू, यह देती है बस नीद सुकूँ की। जिन्दगी से हारे थके हैं जो, मौत नीद देती उनक...
आज न रोको
कविता

आज न रोको

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** आज न रोको इन कदमो को, आगे आगे बढ़ जाने दो, तोड़ के बन्धन पिंजरे का, दूर गगन मे उड़ जाने दो। बहुत पी लिए गम और आंसू, अब जी भर मुस्काने दो । जो राह तलाशी है अब हमने, उस मन्जिल को पा जाने दो। तू लड़की है, तू पत्नी है, तू माँ है, तू बेटी है बाली, बन्दिश अब हट जाने दो। बढ़ने दो प्रगति राह पर, हमे करिश्मा करने दो। आसमान के चाँद को छूलें, नापे गहराई सागर क , पंछी जैसे भरे उडा़ने, परवाह नही अब तूफानो की, भिड़ जायेंगे झंझावातों से, अब पंख मेरे खुल जाने दो। नभ मे ऊपर उड़ जाने दो। न मानूं कोई अब रोक टोक, मेरे मन को खिल जाने दो। झेले झंझावात बहुत हर कष्ट सहे, जो मिले मुझको, इक पल चैन का न पाया मैने, जो रूप दे दिया था मुझको, अब जियूँ सिर्फ खुद की खातिर, अब खुद को खुद मे जी लेने दो, अब छोड़ चुकी मै नासमझी, कुछ मुझे प्रगति कर लेने दो। कुछ मुझे .... . लेखक पर...
याद करना हमारी
कविता

याद करना हमारी

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** थमती सांस के साथ, यह आंसू भी थम जायेंगे, चलती है सांस जब तक, इनको भी बहने दो यारो। यह महफिल भी होगी यह नगमे भी होगे, यह फिजाऐ यह बहारे भी होगी, पर हम न होगे, तब याद करना हमारी भी यारो न आँख खुलेगी न होठ हंसेगे न पांव चलेगे न हम रुकेगे, चार कांधो पर हमे उठा लेना यारो। आयेगी हर ऋतु समय समय पर, सावन भी बरसेगा समय समय पर, पर भीगने को हम न होगे, तब याद करना हमारी भी यारो। महफिल भी होगी टोली भी होगी, यारो की अपनी हमजोली भी होगी, तलाशोगे हमको, पर हम न होगे, तब याद करना हमारी भी यारो। खिलेगा बौर आम तरुओ पे जब जब महक से दिशाऐ खिलखिला उठेगी, आमो की बगिया मे सब ही मिलेंगे, पर हम न होगे, तब याद करना हमारी भी यारो। तब याद ...................।। . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की ...
पाँव थिरक उठता है
कविता

पाँव थिरक उठता है

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** हो दिल मे उमंग तो, हर तार झंकार उठता है। न रहता भान किसी का, मन मयूर झूम उठता है। खिल जाते है मधुर पुष्प वीराने मे, हर भ्रमर का गान गूँज उठता है। कहाँ रहता है ध्यान बदहवासियो का, हर सांस से संगीत फूट उठता है। मिट जाती है अन्धेरों की छाया, हर पग पर दीप जल उठता है। रहता न वीरान रास्ता कोई, हर मोड़ पर जश्न झूम उठता है। सज  जाती है महफिले उर अन्तर में, वाणी से मधुर गान फूट पड़ता है। जब होता है मिलन उस कान्हा स , स्वतः ही पाँव थिरक उठता है। स्वतः ही ........................।। . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाश...
मै क्यों गाऊँ
कविता

मै क्यों गाऊँ

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** मै गीत विरह के क्यों गाऊँ, मै गीत विरह के क्यों गाऊँ। मेरे तन के रोम रोम में, बसा हुआ कान्हा प्रियतम, जब चाहूँ मै उसे निहारूँ, साथ मेरे रहता हरदम। जब मै सोऊँ वह भी सोऐ, साथ मेरे उठ जाता है, जब वह रहता साथ ही हरपल, फिर क्यों मै न इतराऊँ, मै गीत विरह के क्यों गाऊँ। जब चाहूँ पलके मूंदे, वंशी की ध्वनि मैं सुनती हूँ, जब लगता तन्हा हूँ मै, उससे बतियाया करती हँ। जब हो जाती दग्ध ह्रदय, वह हमे हँसाया करता है, गाकर अपनी मधुर रागिनी, मुझे रिझाया करता है। मै उसकी वह मेरा है, मै इसको क्योंकर झुठलाऊँ, मैं गीत विरह के क्यों गाऊँ। हर दिन ही तो मेरे दिल में, वह नये तराने लिखता है। रूठूँ गर मै कभी अगर तो वह हमे मनाया करता है। उसकी इन प्यारी बातो को क्योंकर भला मै ठुकराऊँ मै गीत विरह के क्यों गाऊँ। मै गीत .... . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शर...
आखिर तू है क्या
कविता

आखिर तू है क्या

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** ऐ जिन्दगी! जिन्दगी निकल रही है, पर न जान सकी, ऐ जिन्दगी! तू ही बता तू है क्या। तू गुल का गुलिस्ताँ है, या गम की गजल है को, ऐ जिन्दगी! तू ही बता तू है क्या। तू रात्रि का गहन अन्धेरा है, या दिन का चमकता उजाला है, ऐ जिन्दगी! तू ही बता तू है क्या। तू खुशनुमा फूलों की महक है, या नुकीले काँटो की गहन पीडा़ है, ऐ जिन्दगी! तू ही बता तू है क्या। कोकिल की कूक पपिहा की रटन है, या अन्जान कर्णभेदी कर्कश ध्वनि है, ऐ जिन्दगी! तू ही बता तू है क्या। तू चन्दा की शीतल चाँदनी है, या सूर्य की तपती दुपहरी है, ऐ जिन्दगी! तू ही बता तू है क्या। तू सपनो मे छायी खुशनुमा खुमारी है, या डरी सहमी रात अन्धेरी है ऐ जिन्दगी! तू ही बता तू है क्या। अब तक न जान सकी, ऐ जिन्दगी! तू ह बता तू है क्या। . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थ...
न जाने क्यों
कविता

न जाने क्यों

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** न जाने क्यों आज दिल मचल उठा, न जाने क्यों आज मन तड़प उठा। रोका था न जाने कब से नयनों के अन्दर, न जाने क्यों आज अश्रु वह फिसल उठा। बड़े जतन से दबाया था हर दर्द को सीने में, न जाने क्यों आज हर दर्द कसक उठा सोये नही है रात रात जागे है हम, न जाने क्यों आज चिर निद्रा को मन ललक उठा। छोड़ दी थी वह अतीत की डायरी कब से, न जाने क्यों आज उसे पढ़ने का मन कर उठा। दबा दिया था जिस अन्धेरे को गर्त में, न जाने क्यों आज वह अन्धेरा जाग उठा। आ जाओ कान्हा ले लो आगोश मे अपने, न जाने क्यो आज यह दिल तेरे दीदार को तरस उठा। जाने न देगा मुझे कंटीले जाल मे विश्वास है मुझे, न जाने क्यों आज न देख तुझे अश्रु झिलमिला उठा। यह अश्रु झिलमिला उठा।। . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की ...
अश्रुबाँध
कविता

अश्रुबाँध

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** जाने कब का बँधा अश्रुबाँध, आज दरकने लगा है, अश्रु सैलाव आज बढ़ने लगा है। दिन का चैन नीद निशा की बहाने लगा है। लाख रोका न आये सैलाब ऐसा, पर हर बार सैलाब उमड़ने लगा है। हारी नही थी अपनी बदहबासियो से, भयावह भँबर मे नाव डगमगाने लगी है। सहसा ही अदृश्य हाथ सम्मुख था मेरे, कश्ती मेरी तट पर बढ़ने लगी है, डुबाना न कश्ती कसम है तुम्हे अब, अन्तिम समय तक न होना जुदा अब कान्हा मेरे अब स्वयं मे समाना, मन्जिल कठिन है पर आगे ही बढाना। झेले बहुत दर्द हर गम को पिया है, शायद न अब कुछ बाकी रहा है, आकर के अब जो लगालो गले से, सह जायेगे सब जो हमको मिला है। सह जायेगे सब ...... . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलन...
अन्तिम जश्न
कविता

अन्तिम जश्न

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** "हास्य-व्यंग" बैठे बैठे एक ख्याल आया, अब तो बैकुन्ठ जाने का समय आया, पर वह अन्तिम जश्न, जश्न क्या? जिसमे होठो ने न गुनगुनाया जिसमे जोर जोर से ताली न बजाया| कौन होगा जो आँसू के साथ नगमे भहाये, और यदि किसी ने सुनाया तो तरन्नुम मे न सुनाया, भगैर तरन्नुम के कौन बजायेगा ताली, न बजी ताली तो क्या अन्तिम जश्न मनाया, किससे कहूँ जो लिखे कुछ नगमे, फिर सुनाये मस्त हो मृत्यु जश्न में, सोचा न जाने कौन क्या लिखेगा, किसी के मन मस्तिष्क मे भी चढे़गा? चलो छोड़ो खुद ही लिखते है कुछ पंक्तियां अपनी मौत की, पकी पकाई कौन न खाना चाहेगा, हर कोई पढ़ नाम करना चाहेगा| यह सोच लिख डाला दो पन्नों का मृत्यु काव्य पढ़ कर हुआ सन्तुष्ट हृदय एक काम निबटा डाला अब पढेंगा कौन? विकट प्रश्न आ मडराया फिर चिडि़या के पंजो से निशां जैसे शब्दो को समझेगा कौन लेखिनी दाँतों मे दबा होठो के ए...
चलने दो लेखिनी
कविता

चलने दो लेखिनी

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** एक पल ठहरो, रुको जरा शब्द नही खामोश, दिल है भरा। करो वीरानियों से खाली यह दिल, मिलेगी एक बड़ी शब्दों की महफिल। रहते निरन्तर शब्द ह्रदय पटल पर, किसी वजह से आते नही जु़वां पर| कुछ झिझक, कुछ डर, कुछ कटाक्ष, से डरा रहता है हमारा अन्तर। पर क्यों? लेखिनी को क्यों विराम दें? क्यों न इन बन्धनों को तोड़ दे? चलने दो निर्बाध यह लेखिनी, दिल मे दबी व्यथा को निकाल दें। . लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अप...