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Tag: विष्णु दत्त भट्ट

महंगाई की मनमानी
व्यंग्य

महंगाई की मनमानी

विष्णु दत्त भट्ट नई दिल्ली ******************** तीन दिन पहले की बात है। मुझे चाय पीने की इच्छा हुई और मैं रसोई में गया। मध्यम वर्ग वालों की रसोई होती ही कितनी है, बस एक आदमी मुश्किल से खड़ा हो पाता है। मैं चाय बनाने की कोशिश कर ही रहा था कि मैंने देखा कि एक मृगनयनी चुपचाप अंदर दाखिल हुई। उसे बेधड़क अन्दर घुसते देख मैंने आदतन कहा कि आंटी जी आप कौन? आंटी जी संबोधन सुनते ही वह बिदक गई और बोली- मरघिल्ले ! एक पैर केले के छिलके पर और दूसरा कब्र में लटका है और मुझे आंटी कह रहा है? अरे! आप हो कौन जो मेरी रसोई में घुसकर मुझे ही गरियाने लगी? मैं नई-नवेली जीएसटी हूँ। अभी मैंने सोलह वसंत भी पार नहीं किए और तुम मुझे आंटी कह रहे हो। उसने ठसक के साथ उत्तर दिया। ठीक है कि तुम जीएसटी हो पर मेरी रसोई में क्यों घुस रही हो? मैंने तो तुम्हें नहीं बुलाया? कैसे नही बुलाया? तुमने मुझे खुल्ला न्यौता दिया है।...
चाहते हैं सब हल निकले
कविता

चाहते हैं सब हल निकले

विष्णु दत्त भट्ट नई दिल्ली ******************** चाहते हैं सब हल निकले आज नहीं तो कल निकले। अहंकार की माया है, युद्ध भयंकर छाया है। स्वार्थ साधने की ख़ातिर, आतंकी अब दल निकले। हाहाकर है चारों ओर मारो -मारो का है शोर। इस खूनी मार-काट का ना जाने क्या फल निकले? बच्चे-बूढ़े नर और नारी संकट सब पर है ये भारी। जान निरीहों की बन्धु, ना जाने किस पल निकले? चारों तरफ़ बस डर ही डर जीवन काँपे थर, थर, थर। जान बचाने को अपनी भागे रक्षक दल निकले। युद्ध भला किसका करता, बस जीवन तिल-तिल मरता। अहंकार तुष्टि की खातिर, लाशें अब हर पल निकले। दुष्ट दुष्टता छोड़े ना मुँह हिंसा से मोड़े ना। लाशों के बाजार में चाहे हर हाल दुकां ये चल निकले। सुनो सत्य ओ तालिबानी! धरती किस के संग न जानी। सत्य छोड़ फिर खून बहाने, बेहूदों के दल निकले। वैमनस्य अब छोड़ो भी, स्नेह सूत्र को जोड़ो जी। ...
मैं मज़दूर
कविता

मैं मज़दूर

विष्णु दत्त भट्ट नई दिल्ली ******************** मैं मज़दूर घर से बहुत दूर लालसा में दाल, भात, नून की रोटी दो जून की, मुन्ने को, मुनिया को अपनी प्यारी सी दुनिया को ममता की छाँव को छोड़कर गाँव को नदी को नहर को आ पहुँचा शहर को। खाली बैठना बेमतलब ऐंठना काम से जी चुराना नहीं था गँवारा मेहनत से अपनी शहर को सँवारा। कैसी करते हैं बात लगा रहा दिन रात आँधी, बारिश, सर्दी, गर्मी हालात चाहे जो हों मैं कभी नहीं डरा और पूरी ईमानदारी से शहर की तिजोरियों को भरा। सूखी रोटी संग पीकर जल सजाए हमने जिनके महल जुटाए जिनके लिए ऐश्वर्य के साधन, कितना संकुचित निकला उनका मन सोच कर देखिए भाई जब कोरोना ने मुसीबत ढाई तो बिना देर किए मदद करने की बजाय कैसे मुँह फेर लिए मानो जानते न हों पहचानते न हों, ये धन्ना सेठ धन के नशे में इतने चूर हैं कोरोना से ज्यादा तो ये महलों वाले क्रूर हैं।...
सोच हमारी संस्कृति पर भारी
व्यंग्य

सोच हमारी संस्कृति पर भारी

विष्णु दत्त भट्ट नई दिल्ली ******************** हमारा देश बहुत कमाल का देश है। हमारी एक ख़ासियत है कि जो कुछ स्वदेशी है हमने उससे हमेशा नफरत की है और जो कुछ विदेशी है उसे बेइन्तहां प्यार करते हैं। हमें तो बेहूदगी और बेशर्मी भी प्यारी है, बस शर्त यह है कि वे विदेशी हों। अपने देश की तो सादगी भी वाहियात लगती है। हमारे यहाँ महान ऋषि-मुनि हुए, हमें वे फूटी आँख नहीं सुहाते, हम उनसे नफ़रत करते हैं। नैतिकता, भाईचारा, अपनापन, बड़ों का आदर, नारियों का सम्मान ये सारी सीख हमारे पूर्वजों की देन है। लेकिन हम इन सारी अच्छाइयों को दकियानूसी समझकर नफ़रत करते हैं और पूरा ध्यान रखते हैं कि कहीं हमारे बच्चे ये बहियात बातें सीख न जाएँ? हम कितनी उच्चकोटि की निम्न मानसिकता से ग्रस्त हैं कि 'लिव इन रिलेशन' और 'समलैंगिकता' जैसी वाहियात विचारधारा को सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए आंदोलन करते हैं। संस्कृत और हिंदी भा...
पौष्टिक आहार पर कोरोना की मार
व्यंग्य

पौष्टिक आहार पर कोरोना की मार

विष्णु दत्त भट्ट नई दिल्ली ******************** कोरोना क्या आया दुनिया की सूरत बदल गई। प्राणवान तो इस महामारी से त्रस्त हैं ही लेकिन प्राणहीन भी कम त्रस्त नहीं हैं। मेरे घर में अनवरत रूप से एक अखबार आता है। कोरोना से पहले बड़ा हृष्ट-पुष्ट था। किसी अच्छे खाते-पीते घर का लगता था। काफ़ी वजनी होता था। पेजों की भरमार होती थी। हालांकि उनमें वजन ही होता था पढ़ने लायक समाचार तो एक-आध पेज पर ही होते थे। बलात्कार की चटपटी खबर, हत्याओं की सनसनीखेज खबरों को देखकर ऐसा अनुभव होता था जैसे ये सारी बारदातें इसी अखबार ने की हैं? इतना बारीक विश्लेषण तो खुद बलात्कारी और हत्यारा भी नहीं कर पाता जितना बारीक़ विश्लेषण अखबार करता है। कोरोना से पहले अख़बार बहुत ऊर्जावान लगता था। विज्ञापनों की पौष्टिक ख़ुराक़ जमकर मिलती थी। कभी-कभी तो ख़ुराक़ इतनी अधिक होती थी कि पढनेवालों को अपच के कारण दस्त लग जाते थे लेकिन अखबार की ...