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भारतीय मतदाताओं का दृष्टिकोण
आलेख

भारतीय मतदाताओं का दृष्टिकोण

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ****************** स्वत्नत्रता के ७५ वर्षों में हमारे देश का लोकतंत्र जितना सुदृढ़ और परिपक्व हुआ है, हमारा मतदाता उतना ही संकुचित होता जा रहा है। इसे एक विडम्बना भी कह सकते है। परन्तु यह वास्तविकता है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण, पहले भी और आज भी भारत में राजनीतिक दलों का वैचारिक दृष्टि से परिपक्व न होना है। उनकी सोच राष्ट्र के लिए न होकर अपने दल के लिए और इससे बढ़कर भी नेताओं के व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु होती है। लोकतंत्र यह लोगों द्वारा, लोगों के लिए ,लोगों की व्यवस्था होती है, यह मूल मंत्र राजनीतिक दलों द्वारा भुला दिया गया है। राजनीतिक दलों द्वारा भारतीय राजनीति का हित शुरू से ही मतदाताओं को अशिक्षित रखने में ही समझा गया। आजादी के बाद से ही हमारे देश में शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर बहुत कम खर्च किया गया है। परिवार और समाज में अगली पीढ़ी को शिक्षित, स्वस्थ ...
चुनावी सियासत
कविता

चुनावी सियासत

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ****************** रे मूरख मतदाता, क्यों माणुस की तू बोली बोल ? रे, घोड़े की बात कर, तू गधे की बात कर !! चुनाव आवे तो एक अनार हजार बीमार होय, रे, नीबू की बात कर, तू नारियल की बात कर !! पोथी पढ़ सब पंडत भये, मूरख बचे न कोय , रे, सयाना तू, पत्थर उठा दंगल की बात कर !! जात न पूछो साधू की पूछ लीजिये ज्ञान, छोड़, रे, मजहब की बात कर तू जात की बात कर !! अँधेरे घर में बीमार लुगाई, भूखे बच्चें सोय, रे, खाट उठा काँधे पर, झंडे की बात कर !! परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर मध्य प्रदेश इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, 'नई दुनिया' में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के...
कल और आज
कविता

कल और आज

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ****************** तुम आज के मस्तवाल मैं भी कल का कोतवाल !! तुम्हारे ये अहंकारी बूट मैं देखता आस्था की लूट !! तुम्हारा सत्ता का तंत्र मेरा विश्वास का मंत्र !! तुम्हारा बलिष्ठ तन मेरा नाजुक सा मन !! तुम्हारे स्वछंदी वेश मेरे विश्वास का देश !! तुमसे तो डरती उपेक्षा मेरे पीछे सदैव अपेक्षा !! परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर मध्य प्रदेश इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, 'नई दुनिया' में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्...
सब खत्म…?
कविता

सब खत्म…?

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ****************** कई बार दरवाजे पर ही अड़ जाता हैं मन मेरा मुझसे पूछता हैं सब कुछ खत्म ? अब कुछ नहीं बचा ? मै घबरा जाता हूँ हाथ पांव कंपकंपाने लगते है मेरा मन मेरा बदन सुन्न हो जाता है और सवाल अनाथ दरवाजे पर ही चस्पा हो जाता है !! घबरा कर मैं अपने गुरु के यहाँ दौड पड़ता हूँ सर्वनाश का भय दिखाकर पीठ पर गुरु दक्षिणा का बोझ लादकर गुरु मुझे उपदेश देता है इस जीवन में कुछ भी खत्म नहीं होता अंत से ही तो सब शुरु होता हैं !! यह समझना जरुरी है कि क्या तो अन्त हैं और क्या तो शुरुवात हैं ? बावरा मन अन्त को ही शुरुवात समझ लेता हैं पागल मन शुरुवात को ही अन्त समझ लेता हैं अस्थिर मन समाप्ति के बाद शुरुवात की कामना करता हैं शुरू में समझता नहीं मन कोई संकेत अंत दफ़ना जाते जाने कितने रहस्यों के संकेत फिर भटकन भरा जिंदगा...
ढ़लान
कविता

ढ़लान

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ****************** गुस्से में निकल गए दहलीज़ पार कर गए जाते-जाते रुक गए फिर पलट गए फिर झुक गए एक पल श्वास लेने ठहर गए ! वेदनाओं में बह गए भावनाओं में कह गए जीने के अंदाज बदल गए इस धारे में जाने कितने बह गए ! जो ऐंठ गए वो टूट गए जो हार गए वो जीत गए तुम मुझे क्षमा करों मैंने तुम्हें माफ़ किया ऐसा ही कुछ कह गए !! परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर मध्य प्रदेश इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, 'नई दुनिया' में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रि...
अपना लक पहन कर चलों
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अपना लक पहन कर चलों

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ****************** मेरे बदन से मेरी कमीज किसी ने अलग कर ली। मेरी सीट के पीछे बैठे व्यक्ति ने यह कारनामा कैची से बड़ी खूबसूरती से किया। मै बस में झपकी ले रहा था। वह शरारती यही पर नहीं रुका, उसने उसी अंदाज में मेरी बनियान के भी टुकड़े करके उसे भी मेरे बदन से अलग कर दिया। न जाने कहाँ जा रहा था मैं। और क्यों जा रहा था? किसी मंजिल की तलाश थी या मंजिल मुझे अपनी ओर ले जा रही थी? शुक्र है कि वह मेरा पाजामा नहीं उतार पाया। मेरी गहरी नींद की मुझे गहरी कीमत चुकानी पड़ी। माँ हमेशा कहती थी, 'बेटा सफ़र में सावधान रहना चाहिए' पर सावधान रहने का यह मतलब तो नहीं कि सोया ही ना जाय? और फिर बदन से कोई कपडे उतार ले यह तो कल्पना से परे ही है। उसने चुराया कुछ नहीं पर उसकी शरारत मुझे महँगी ही पड़ने वाली थी। नीद में गाफिल लोग मालूम नहीं क्या क्या गवाते है? 'जो सोवत है सो खोवत है, जो...
मेरा बाप–तेरा बाप
कहानी

मेरा बाप–तेरा बाप

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ****************** ‘मुझे घर जाना होगा I अम्मा कह रहीं थी कल मेरे बाप की तिथि हैं I श्राद्ध करना पड़ेगा I सारा सामान लाना हैं I पंडित को भी बुलाना पड़ेगा I ब्राह्मण भोज होगा I ग्यारह ब्राह्मण ढूंढने हैं I खाने की सारी व्यवस्था करनी हैं I किराना, सब्जी वगैरे, सभी सभी तो खरीदना पड़ेगा I पैसों का इंतजाम करना ही हैं I वह चिंता अलग खाएं जा रही हैं I ‘धनाजी बोला I ‘क्या रे तू .....? अभी तो आया हैं .... एक घूंट भी नहीं गया अंदर अभी .... और अभी से जाने की रट लगा रहा हैं ?’ भिकाजी बोला I ‘कल बाप का श्राद्ध करना हैं I जाना ही पड़ेगा I क्यों रे भीकू तेरे बाप का श्राद्ध कब आता हैं ? ‘धनाजी जाने के लिए खड़ा हो गया I भिकाजी रुआंसा हो गया I उसकी आँखें नम हो गई I धनाजी को दारु का ज्यादा असर नहीं हुआ था I उसे लगा भिकाजी को दारु चढ़ गई हैं , और वह किसी भी क्षण जोर जोर से रोने ...
परिचित-अपरिचित
कहानी

परिचित-अपरिचित

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ****************** सुबह के नौ बजे थे I गुरु परिचित अपने नित्यकर्म निपट कर चिंतन की मुद्रा में अपने एसी कक्ष में बैठे थे I पर आज उनका मन चिंतन में नहीं लग रहा था I वह सुबह से ही अशांत था और सूर्योदय से अभी तक गुरु परिचित को स्वस्थ चिंतन नहीं करने दे रहा था I गुरु परिचित का मन अस्वस्थ होने का भी एक कारण था I कल देर रात को उनके ख़ास और परमप्रिय लाडले शिष्य कुमार अपरिचित को एक फार्महाउस में देर रात चलने वाली रेव्ह पार्टी में नशे में धुत , एक लड़की के साथ आपत्तिजनक अवस्था में पुलिस ने गिरफ्तार किया था I गुरु परिचित को यह बात रात में ही सेवक ने जगा कर बताई थी I गुरु परिचित तुरंत पुलिस थाने में जाकर उनके लाडले शिष्य कुमार अपरिचित को अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर छुड़ाकर लाए थे I इस बात की उन्होंने किसी को भी कानोकान हवा तक नहीं लगने दी और मिडिया से बचाते हुए नशे मे...
आदमी से गधा बेहतर
कहानी

आदमी से गधा बेहतर

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ****************** ‘गाढवे, तुम वास्तव में गधे ही हो।' साहब ने भले ही क्रोध में यह कहाँ पर राजाभाऊ गाढवे बिलकुल शांत ही थे। साहब पर उनकों कतई गुस्सा नहीं आया, बल्कि उन्होंने विनम्रता से कहा, ‘धन्यवाद सर !‘ अब साहब ज्यादा ही नाराज हो गए। उन्हें लगा गाढवे उनका मजाक उड़ा रहें हैं। ‘गाढवे .....गाढवे, अरे मैं तुम्हें साफ़ साफ़ गधा कह रहा हूँ। धन्यवाद क्या दे रहे हो मुझे ?‘ ‘फिर क्या देना चाहिए सर आपको ? ‘ राजाभाऊ ने फिर विनम्रता से कहाँ। वह बिलकुल शांत थे। ‘कुछ भी नहीं।‘ साहब का पारा कुछ ज्यादा ही चढ़ गया था ।‘ मुझे कुछ देने की जरूरत नहीं है । तुम अपना काम ठीक से किया करो ।इतनी मेहरबानी तो कर सकते हो मेरे ऊपर ? ‘ ‘यस सर ।‘ राजाभाऊ गाढवे को यह समझ में ही नहीं आ रहा था कि उनकी गलती कहाँ हुई ? और साहब के इतना नाराज होने की वजह क्या हैं ? उन्होंने चुपचाप साहब के साम...
हजार मुंह का रावण …!!
कहानी

हजार मुंह का रावण …!!

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ****************** “ठहरो !“ डायनासोर से भी कई गुना बड़ा और भारी भीमकाय भ्रष्टाचार दौड़-दौड़ते बड़ी मुश्किल से ठहर पाया I फिर भी वह बहुत आगे तक आ ही गया था I उसके पावों में लाखों अश्वों का बल आ गया था और अनेक हाथियों के पेट से भी बड़ा भारी उसके पेट का आकार हो गया था, इसलिए उसने खुद को सम्हालने में बड़ा समय लियाI ठहरने के बाद वहीँ खड़े-खड़े बड़े कष्ट से उसने अपनी गर्दन घुमा कर थोडा पीछे की ओर देखा और पाया कि लोकतंत्र उसके पीछे-पीछे दौड़ा चला आ रहा थाI भ्रष्टाचार ने यह भी देखा कि लोकतंत्र के पीछे-पीछे लोकतंत्र के प्रहरी आम मतदाताओं की भी बहुत बड़ी भीड़ चली आ रही थी I लोकतंत्र हांफते हांफते भ्रष्टाचार के पास आकर रुका I “अरे ! कब से आवाज लगा रहां हूँ ? ठहरने का नाम ही नहीं ले रहा? “थोडा ठहर जा !“ लोकतंत्र ने तनिक नाराजी भरे स्वर में कहाँ ! भ्रष्टाचार अपने भीमकाय शरीर क...
रंगबिरंगी
कहानी

रंगबिरंगी

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** मंच पर से वक्ता बोल रहा था। अचानक वह बोलते बोलते रुक गया। सबसे अंतिम पंक्ति की ओर उसने टेढ़ी नजरों से देखा, एक क्षण देखता रहा और फिर विषय से हट कर बोला, “मुझे ऐसा लगता हैं कि अंतिम पंक्ति में बैठे हुए चारों सज्जन अगर मेरी बात शांति से सुने तो बेहतर होगा, इससे वें भी मेरी बात ठीक से समझ सकेंगे और दूसरों को भी कोई परेशानी नहीं होगी और वें सब भी शांति से मेरी बात सुन सकेंगे। आखिर हम लोग सेवानिवृत्ति के पश्चात् आने वाली समस्याओं पर ही तो चर्चा कर रहें हैं, और यह सबके भले के लिए ही तो हैं।“ वें चारों सकपका गए, फिर मुस्करा दिए और गर्दन हिला कर शांति से भाषण सुनने का वक्ता को आश्वासन दिया। वक्ता फिर से विषय पर बोलने लगा। परन्तु उन चारों की हरकते बदस्तूर जारी थी। इन अभिन्न मित्रों की शरारती चौकड़ी अनेक वर्षों के उपरान्त एकत्रित हुई थी और जिगरी दोस्त...
पुतला
कथा

पुतला

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** मुग़ल बादशाह औरंगजेब को जिसने नाकों चने चबाएं, जिसने हिन्दवी स्वराज्य की नीव रखी, ऐसे राष्ट्रभूषण और महाराष्ट्र में घर घर पूजे जाने वाले, छत्रपति श्री शिवाजी महाराज का यहाँ इस शहर में इस चौराहे पर काले घोड़े पर विराजमान सुन्दर ऐसा मनमोहक बड़ा सा पुतला गर्व के साथ आने जाने वालों का बरबस ही अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर लेता हैं। घोडा भी दो पावों को ऊपर कर, गर्दन ऊंची कर, मानों युद्ध में जाने के लिए तैयार हो इसी अंदाज में अकड के साथ खडा है। चौराहे के बायीं ओर थोडा ऊपर की ओर चढ़ने के बाद हनुमानजी का मंदिर हैं, और थोडा आगे जाने के बाद मेरा ऑफिस था। एकदम बायीं ओर मुड़ते ही कुछ झोपड़ियाँ थी। अब मेरा ऑफिस में जाने का रोज का यहीं रस्ता था। मैं भी क्या कर सकता था? रोज मुझे छत्रपति श्री शिवाजी महाराज और बजरंगबली के दर्शन अनायास हो ही जाते थे। हाल ही में मेरा तब...
मृत्यु का सुख
कहानी

मृत्यु का सुख

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** ताराबाई के शरीर से प्राण निकले और आखिरकार इस भवसागर से उसको मुक्ति मिल गई। अब ताराबाई के शरीर से प्राण निकले जरुर पर उसकी आत्मा का क्या? भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हैं, ‘जो मरता हैं वह शरीर। आत्मा कभी नहीं मरती। और प्रत्येक शरीर में एक अदद आत्मा भी तो होती ही हैं। अर्थात जिसे मृत्यु के मुख में जाना होता हैं वह शरीर और जिसका मृत्यु कुछ भी नहीं बिगाड सकती वह अजरामर आत्मा। इसीलिए हम सब को हमेशा यहीं बताया जाता हैं कि आत्मा हर जन्म में हमेशा शरीर रूपी कपडे बदलती रहती हैं और यह कि आत्मा अमर होती हैं । अब सवाल यह कि ताराबाई की मृत्यु के बाद ताराबाई का शरीर छोड़ने वाली और ताराबाई की अमर कहलाने वाली आत्मा अभी तक कहाँ भटक रही होगी? ज़रा ठहरिए। कहाँ भटकेगी? अभी तो इसी घर में, नहीं-नहीं इसी कमरें में भटक रहीं होगी? अभी तो ताराबाई की मृत देह जम...
आहिस्ता-आहिस्ता
कविता

आहिस्ता-आहिस्ता

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** आहिस्ता-आहिस्ता पास आईयें आहिस्ता-आहिस्ता ही दूर जाईयें !! अपनी ही गलतियों का दंड भुगतले दूसरों के गुनाहों का प्रायश्चित कीजियें फिर से अनुभव के पहाड़े पढ़ियें फिर से कुछ नयी गलतियां कीजियें समझदारी का घमंड पाल लिजियें !! तू दूर चला गया कि मैं दूर हो गया इतना भर जोड़- -बाकी कर लीजियें हल न हो सकने वाला गणित हल कीजियें निर्लिप्त अलिप्त सी जिंदगी जी लीजियें !! विकृति की परिधि में आकृति के खेल कीजियें आदमी के इंसानियत की कीमत लगा लीजियें परछाई से आसक्ति का मोल चुका दीजियें जीवित रहने का शोक मना लीजियें मृत्यु का तो उत्सव ही मना लीजियें !! मैं ठहर जाता हूँ, आप भी ठहर जाइयें आती जाती साँसों का मूल्य गिन लीजियें किस के लिए क्या बचा, कितना बचा? अब तो इसका हिसाब कर लीजियें बाद में ही आगे का सफर कीजियें !! आहिस्ता-आहिस्ता पास आईयें आहिस्ता-आहिस्ता...
अब क्या होगा ?
कविता

अब क्या होगा ?

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** अनजान राहो पर खामोश चल रहे मगर तय है मिलेंगे किसी अजनबी की तरह !! आँगन मचल रहा होगा बुलाने के लिए दहलीज उदास होगी गुजरे वक्त की तरह !! दीवारे खंडहर होंगी और रंग उजड़ा होगा एक सराय होगी बिना मुसाफिरो की तरह !! पतझड़ से परेशां होंगे यहा पेड़ सारे अंदर से जल रहे होंगे शोलो की तरह !! जख्म फिर से हरे और घाव उभर रहे होंगे इकठ्ठे होते रहेंगे गम अमानत की तरह !! रास्ता सुनसान होगा किसी अपने को ढूंढेगा मौत भी लावारिस होगी अजनबी की तरह !! दौर गुजर गया और वक्त बदल गया है क्यो ये दिल मचल रहा है नादाँ की तरह !! परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, 'नई दुनिया' में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प...
वक्त
कविता

वक्त

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** तुझको मुझसे, मुझको तुझसे क्या काम है? वक्त ने वक्त से मिलाया, वक्त ही जरुरत है! बेवजह नहीं यूँही वक्त का बर्बाद होना कुछ और नहीं, मिटने मिटाने की हसरत है! वक्त पे खामोश रहे, वक्त पे चिल्लाएं वक्त पे आंसू बहाएँ, वक्त की ही सियासत है! मैंने जो लिखी इबारत, वक्त ने मिटा दी खुद के लिखे पे इतराएँ, वक्त वो इबारत है! दोस्ती और दुश्मनी वक्त की मोहताज है हम नादाँ, कहीं मोहब्बत कहीं नफरत है! कोशिश कर ऐ इन्सां, तू वक्त को पढ़ सके तेरी हो या मेरी, सब की इबादत वक्त है! परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, 'नई दुनिया' में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दि...
नैतिकता-अनैतिकता
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नैतिकता-अनैतिकता

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** “बना-बना के दुनिया फिर से मिटाई जाती है जरुर हम में ही कोई कमी पाई जाती है!" नैतिकता क्या होती हैं और अनैतिकता क्या होती हैं? यह प्रश्न अक्सर अनेकों को संभ्रमित करता रहता हैं। नैतिकता के मापदंड क्या होते हैं? रोजमर्रा के व्यवहार में उसका क्या महत्व होता हैं? व्यवहार में कहाँ तक हम इन बातों का विचार कर सकते हैं? या इन बातों का कितना महत्व होना चाहियें या नैतिकता को हम कितना सहन कर सकते हैं? या अनैतिकता हमें कितना प्रभावित या परेशान कर सकती हैं? समाज में व्यक्ति की एक दूसरे से नैतिकता की कितनी और क्या अपेक्षाएं रहती हैं? या नैतिकता और अनैतिकता की ओर देखने का हर एक का द्रष्टिकोण कैसा होना चाहियें? धर्म, संस्कार, प्रथा और परम्पराएं इनका नैतिकता से क्या सम्बन्ध हैं? नैतिकता सिर्फ धर्म पालन के लिए ही होती हैं क्या? नैतिकता का मूल्यमापन कैसे हो? औ...
लिविंग रिलेशनशिप
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लिविंग रिलेशनशिप

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ******************                           मराठी नाटकों की अपनी एक अहमियत होती हैं और उनमें व्यवसायिकता भी भरपूर पायी जाती हैं। मुझे भी मराठी नाटक देखने का बहुत शौक हैं और इसी कड़ी में कुछ दिनों पूर्व एक मराठी नाटक देखने का अवसर प्राप्त हुआ। नाटक का नाम था 'झालं गेलं विसरुन जा' अर्थात जो भी हुआ उसे भूल जाओं। वैसे हिंदी में कहावत भी हैं, 'बीती ताही बिसार दे।' नाटक की समीक्षा करने का कोई विचार मेरे मन में नहीं हैं, परंतु नाटक के विषय की ओर सबका ध्यान जरुर आकर्षित करना चाहूंगा। नाटक का विषय था स्त्री-पुरुषों के अनैतिक शारीरिक संबंध। इससे भी महत्त्वपूर्ण यह कि विवाह संस्था हेतु स्थापित सामाजिक नैतिक परम्पराओं और मूल्यों को ध्वस्त करते हुए पत्नी के मित्र के साथ स्थापित अनैतिक शारीरिक संबंधों को पति द्वारा बडी सहजता और सरलता से मान्यता देते हुए स्वीकार करना। यहाँ...
विकृती को मान्यता
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विकृती को मान्यता

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** बीते अनेक वर्षों मे, फिल्मों में दुर्जन खलनायकों को महिमामंडित करते बाजारवाद का योजनाबद्द षड्यंत्र हम देखते आ रहें हैं। इसमें सद्गुणी, सज्जन नायक कहीं तो भी पीछे पड़ता गया। आगे चल कर नायक में ही खलनायक की विशिष्टता (दुर्गुण) की भी बाजार को जरुरत महसूस होने लगी। इसी तरह आज वर्तमान में समाज में भी नायक और खलनायक में अंतर करना कठिन हो गया हैं। अच्छाई और बुराई में आज इतना साम्य हो गया हैं कि उनमें भेद करना कोई जरुरी नहीं समझता। नैतिकता और अनैतिकता के सारे मापदंड ही ध्वस्त हो चुके हैं। समाज के लिए भी अहितकर बातें समाज के ध्यान में ही नहीं आती। उसका एक महत्वपूर्ण कारण यह हैं कि समाज ने विकृती को जीवन का अभिन्न अंग समझ लिया हैं और उसे स्वीकार भी कर लिया हैंI यह भले हीं विडम्बना लगे परन्तु आज का कटु सत्य यहीं हैंI ‘सब चलता हैं,’ हमें क्या करना?’,’ह...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : अंतिम भाग- ३१
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : अंतिम भाग- ३१

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** उस दिन स्कूल में सोनू को मैने बडी शान से कहां, 'आज मैने राम मंदिर में पूजा की।' 'क्यों? उस घर के सब बडे कहां गए?' सोनू ने पूछा। सोनू को भी पता था कि वह घर मेरा नही है।' कितने सारे तो भगवान है वहां मंदिर में? तुमने कैसे की होगी पूजा?' सोनू ने मुझसे पूछा। 'माई बताती गयी और मै करते गया।' 'वो बुढीया तो बहुत ही खूंसट है। तू अनाथ उस घर में आश्रित है। तेरे उपर तो बहुत चिल्लायी होगी? है कि नही?' सोनू के बोलने का तरीका ऐसे ही था और वो बातों-बातों में हमेशा मेरी हालात का मुझे एहसास भी करा ही देता था। 'नहीं ज्यादा नहीं चिल्लायी मेरे उपर।' 'ठीक है।मै तेरी जगह होता तो उस खूंसट की एक भी नहीं सुनता।' 'तूने नहीं की कभी तेरे घर में भगवान की पूजा?'मैने सोनू से पूछा। 'अरे हाट! अपने को नहीं कहता कोई ऐसे फालतू काम। इन्ना ही करती है सब कुछ। मेरे को तो सिर्फ खा...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ३०
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ३०

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** दिन कैसे जल्दी जल्दी गुजरते रहते हैं इसका हम अंदाज भी नहीं लगा सकते। मैं फिर से जनकगंज में सरकारी प्राथमिक विद्यालय में जाने लगा था। मेरी तीसरी कक्षा की परीक्षाएं ख़त्म हो गयी थी और विशेष यह था कि इतना भटकने के बाद भी मैं प्रथम श्रेणी में अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हुआ था। काकी ने तो पूरे बाड़े में ही पेढ़े बांटे थे। नानाजी ने भी दादा को चिट्ठी लिखकर मेरे पास होने की खबर कर दी थी। दादा का भी नानाजी को जवाब आ गया था जिसके अनुसार हमें ये भी पता पड़ा कि माँजी और सुशीला बाई सिवनी में थी। सुशीलाबाई ने भी अपना त्यागपत्र भेज दिया था पर उस पर फैसला जुलाई महीने में स्कूल खुलने के बाद ही होने वाला था। दादा का जरूर भोपाल तबादले का आदेश अभी तक उन्हें नहीं मिला था। कुल मिलाकर इन सब अनिश्चतितताओं के कारण दादा के विवाह की तिथि अभी तय नहीं हो सकी थी। मेरे स्कू...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २९
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २९

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** बसंतपंचमी के आठ दिन पहले ही हम सब ग्वालियर के छत्रीबाजार के मकान में पहुँच गए। वहां पर हमें छोड़ने के बाद माँजी और सुशीलाबाई को दादा बेबी की माँ के यहाँ मतलब सुशीलाबाई की मौसी के यहाँ छोड़ने गए। वैसे छत्रीबाजार वाले पुश्तैनी मकान में रहने का मेरा यह पहला ही अवसर था। रिश्ते जन्म से और पुराने ही थे पर पहचान नए सिरे से थी। जिन रघुभैया नहीं नहीं वे मेरे ताऊ है और मुझे उन्हे आदर के साथ ताऊजी ही कहना चाहिए तो जिन ताउजी के बारे में दादा माँजी और सुशीलाबाई को बुरहानपुर और पथरिया में बता चुके थे और जिन ताऊजी से दादा अपने ब्याह के बारे में बात करने वाले थे उन ताउजी को मैंने तो पहली ही बार देखा। इसी के साथ उनकी पत्नी राजाबाई मतलब मेरी ताईजी और सबसे बड़ी एक विधवा ताईजी भी जो यही रहती थी उनसे भी मिलना हुआ। ताऊजी के बच्चों समेत पूरा परिवार हमारे उपनयन संस...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २८
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २८

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** अगले रविवार बड़ी प्रसन्नता से मैं गणपत के साथ हाट में ग्रामपंचायत का कर वसूलने गया। इस बार सब विक्रेता मुझे जानते थे और छोटा होने के कारण सब मेरे साथ हंसी मजाक भी करने लगे। संयोग रहा कि इस बार भी मेरे द्वारा ही सबसे ज्यादा कर वसूला गया था। शाम को हम सब घर वापस लौटे। पिछला अनुभव होने के कारण इस बार हिसाब किताब जल्द ही निपट गया था। गणपत ने उसके दो मित्रों को उनका मेहनताना देकर रवाना किया फिर मुझे भी एक रूपया दिया। अब मेरे पास तीन रुपये जमा हो गए थे। हम सब जब घर वापस आए थे उस वक्त माँजी, सुशीलाबाई और सुरेश गाव में ही किसी के यहां किसी कार्यक्रम में गए थे। घर में बेबी और उनका दो वर्ष का बेटा ही थे। गणपत ने बेबी को सारे रुपये सम्हाल कर रखने को दिए। गणपत का दो वर्ष का बेटा सुदर्शन जिसे सब शुंडू नाम से पुकारते थे मेरे पास आकर बैठा। मैं उसके साथ ख...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २७
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २७

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** दूसरा दिन एक नयी सुबह लेकर आया। गणपत कल रात घर आया ही नहीं था। बेबी ने दोनों गाय का दूध निकालने के बाद खुद ही राधा और यशोदा को खूंटे से आजाद किया। मैं भी जागने के बाद तख़्त पर बैठ गया था। बेबी ने मुझे देखा और बोली, 'बाळोबा, आज अकेले ही घूम के आओं और आने के बाद बाहर से ही आवाज लगाना। मैं आकर कुएं से दो बाल्टी पानी निकाल कर तुम्हारे सर पर उड़ेल दूंगी।' आज मुझे तालाब पर अकेले जाने में मुझे कोई संकोच ही नहीं था पर सुशीलाबाई के डर के कारण मैं जाने से पहले अपने नहाने की पूरी तैयारी कर के गया। पथरिया गाव मुझे भा गया था और अच्छा भी लगने लगा था। बुरहानपुर जैसा यहां दिन रात काम करने का माँजी का फरमान भी नहीं था। महत्वपूर्ण यह था कि माँजी और सुशीलाबाई की सेवा बेबी कर ही रही थी इसलिए माँजी को भी आराम सा था। मुझे तो दोनों समय खाना और सोना। बस यही काम था...
उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २६
उपन्यास

उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २६

विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र. ****************** मेरा और सुरेश का कुछ ज्यादा सामान तो था ही नहीं सुशीलाबाई का भी एक ही थैली थी वे किसी को भी उसे छूने नहीं देती। उनके थैली में एक तौलिया और एक बड़ा सा पीतल का लोटा रखा रहता। इसी लोटे का इस्तेमाल वे दिन भर करती। इस लोटे की किस्मत में दिन भर सुशीलाबाई के हाथों खुद को राख से जाने कितनी बार मंजवाना लिखा रहता यह कोई ज्योतिषी भी नहीं बता सकता था। माँजी जरूर ज्यादा सामान लायी थी। इनमे घरगृहस्थी का सामान, थोड़े मसाले अचार इत्यादि थे। और हां सुशीलाबाई के कपडे भी माँजी को ही सम्हालने पड़ते इसलिए वे भी माँजी के सामान के साथ ही थे। घर में हम लोगों के अंदर आंगन में आते ही बेबी नहीं मुझे उन्हें बेबी नाम से नहीं पुकारना चाहिए। मुझसे तो वें बहुत बड़ी है पर उनका तो मूल नाम ही बेबी है और सब इन्हे बेबी नाम से ही पुकारते भी है। हां तो मैं कह रहा था कि हम लोगों के...