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Tag: ललिता शर्मा ‘नयास्था’

हाला
कविता

हाला

ललिता शर्मा ‘नयास्था’ भीलवाड़ा (राजस्थान) ******************** कौन फ़िज़ा में घोल रहा, गरल भरा ये प्याला यूँ। नस-नस में क्यूँ दौड़ रही, मधुशाला की ये हाला यूँ? घर का दिया ही बुझने लगा, करके घर को काला यूँ। उसको पिला दे साक़ी ज़रा-सी, छोड़ के मेरे वाला यूँ॥ आँख में आकर बैठ गया, मदिरा का ये नाला यूँ। फूट रहा न जाने कब से, अश्रु का ये छाला क्यूँ? झुलस रहा है उपवन मेरा, फूल सुगंधित मतवाला यूँ। गंध लगे दुर्गंध उसी को, जब जाता मदिरा में डाला यूँ॥ वेशबदलकर कौन यहाँ, आया ओढ़ दुशाला यूँ। उजली चादर मैली करने, बुनता कोई जाला क्यूँ? यौवन की मादकता से, रोई गुल की माला क्यूँ ? चूर नशे में सोच किसी की, बली चढ़ी कोई बाला क्यूँ? अच्छी बातें नहीं सुहाती, बुरी को जाता पाला क्यूँ? नशे ने किया है नाश सभी का, नशे को सबने न टाला क्यूँ? परिचय :-  ललिता शर्म...
मैं क्या पाठ पढ़ाऊँ उन बच्चों को …
कविता

मैं क्या पाठ पढ़ाऊँ उन बच्चों को …

ललिता शर्मा ‘नयास्था’ भीलवाड़ा (राजस्थान) ******************** मैं क्या पाठ पढ़ाऊँ उन बच्चों को, जिनको आज़ादी का एहसास नहीं। मातृभूम हेतु मर मिटने वाले, अब लगते इनको ख़ास नहीं॥ कोख़ में पलते बच्चे कहते थे, माँ मुझको धरती पर क़ुर्बान करो। पुष्प सरीखा बलिवेदी पर चढ़ जाऊँ तो, गर्भ पे अपने अभिमान करो॥ अब भ्रूण को मिलता वो रसपान कहाँ, आँवल में भी वो त्रास नहीं। मातृभूम हेतु मर मिटने वाले, अब लगते इनको ख़ास नहीं॥ जो थे मात-पिता के राज दुलारे, वो घर की चौखट भूल गये। पकी हुई फसलों-से उनके बच्चे, फाँसी के फंदे झूल गये॥ नवयुग की इस पीढ़ी को देखो, रत्ती भर मन में इनके वो उल्लास नहीं॥ मातृभूम हेतु मर मिटने वाले, अब इनको लगते ख़ास नहीं॥ ये दक्खिन वाली चलते हैं चाल, परकटे-से बिखरे-बिखरे बाल। अब बिगड़ गया है माँ का लाल, और सिमट गया है इनका जीवन-काल॥ रक्त सनी उन तारीख़...
वसन्त ऋतु
छंद

वसन्त ऋतु

ललिता शर्मा ‘नयास्था’ भीलवाड़ा (राजस्थान) ******************** सरसी छंद गीत मात्राभारः १६,११ झूम रही है उपवन शाखी, मधुकर करता शोर। ऋतु वसन्त है सबसे प्यारा, देखो चारों ओर॥ प्रमुदित होते किसलय कानन, खिली-खिली-सी धूप। पर्ण पाँखुरी की जम्हाई, यौवन छलके कूप। वासंती हो बैठे पंछी, नर्तक झूमें पोर॥ ऋतु वसन्त है सबसे प्यारा, देखो चारों ओर॥ उजला-उजला नभ का साया, बादल-बदली नील। दिनकर आता तम को हरने, झेन-फेन-सी झील। पवन-वेग से गूँज रही है, राग वसन्ती भोर॥ ऋतु वसन्त है सबसे प्यारा, देखो चारों ओर॥ शुचि-सोम-सरी कल-कल बहती, निर्मल जल की धार। उच्च शिखर की आभा जैसे, धरणी का श्रृंगार॥ पीत मञ्जरी महक उठी हैं, माघ बना चितचोर॥ ऋतु वसन्त है सबसे प्यारा, देखो चारो ओर॥ ऋतु वसन्त है सबसे प्यारा, देखो चारों ओर॥ परिचय :-  ललिता शर्मा ‘नयास्था’ निवासी : भीलवाड़ा (राजस्थान...
आ गया है वो मेरी ज़िंदगी में
लघुकथा

आ गया है वो मेरी ज़िंदगी में

ललिता शर्मा ‘नयास्था’ भीलवाड़ा (राजस्थान) ******************** अपनी पचासवीं लघु कथा पुस्तक के विमोचन की ख़ुशी में मैं प्रकृति की गोद में अपना अकेलापन दूर करने के लिए राजस्थान से कश्मीर गई। सुबह की ठंडी-ठंडी हवाएँ मन को सहला रही थी व तन को रह-रह कर सुकून दे रही थी। हाथ में चाय का कप था। हल्की-हल्की बारिश की बूँदे भी थी जो बरस कर भी दिखाई नहीं दे रही थी। इतना मनोरम दृश्य किसी सूटकेस में भर करके मन सहेजकर रख लेना चाहता था। पलकें अकिंचन भाव से अनिमेष हो चुकी थी मानों पर्वत-शृंखलाएँ चिरनिद्रा में सो रही है बिलकुल शांत। इसी बीच एक कुत्ते के बच्चे की आवाज़ें आई। उसने मेरी मंत्रमुग्ध तंद्रा को भंग कर दिया था इसलिए मैं रौद्र भाव से उसकी ओर गई। मेरे आश्चर्य का ठिकाना तब नहीं रहा जब मैंने उसे एक छोटे से बालक के हाथ में देखा। दोनों में मासूमियत कूट-कूट कर भरी थी उतनी ही उनके चेहरे पर दरिद्रता भ...
आ हिंदी बैठ ज़रा
गीत

आ हिंदी बैठ ज़रा

ललिता शर्मा ‘नयास्था’ भीलवाड़ा (राजस्थान) ******************** आ हिंदी बैठ ज़रा, तेरा थोड़ा शृंगार करूँ। नवयुग की इस परिपाटी पर, तेरी थोड़ी मनुहार करूँ।। भूल गए हैं पथ के पंथी, पंखों को लहराना। भूल गये हैं मातृभूम पर, अपना ही ध्वज फहराना।। भूले भटके इन राहगिरों में, फिर से वो ही उद्गार भरूँ।। आ हिंदी बैठ ज़रा, तेरी थोड़ी मनुहार करूँ।। इस नवयुग की परिपाटी पर, तेरा थोड़ा शृंगार करूँ।। निर्झर मिश्री तुझसे बहती, किसलय सीखे खिलना। हिंद धरा की हिंद वाणी तू, बहुत ज़रूरी तुझसे मिलना।। अंग-अंग में रंग भरूँ मैं, नित अवलेखा से प्यार करूँ।। आ हिंदी बैठ ज़रा, तेरी थोड़ी मनुहार करूँ।। इस नवयुग की परिपाटी पर, तेरा थोड़ा शृंगार करूँ।। चरण पखारूँ नित उठकर, गुणगान करूँ मैं तेरे। तू ही धरणी, तू ही करणी, ये मान भरूँ मैं तेरे।। अपनेपन का आभास करा, कभी न तेरा अपकार करूँ...