जरे आदमी
राजेन्द्र लाहिरी
पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
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(छत्तीसगढ़ी)
वइसे तो दूध के जरे आदमी ह
दही घलो ल फूंक के पिथे,
फेर कोनो धियान नइ देवय के
गरीब शोसित आदमी ह
का का सहि के जिनगी जींथे,
वो तो गरीबी के आगी म
रोज के रोज जरत रथे,
उपर ले जात के अपमान
कोनो ल कुछु नइ कहय फेर
भितरे भीतर धधकत मरत रथे,
कतका घिनक बेवस्था बनाय हें
मनुस के घटिया रहबरदार मन,
बिन काम बुता करे बने हे ऊंच
अउ काम कर कर के मरत हे
निच कहा जरोवत हे अपन तन,
बेसरमी ल ओढ़ रात दिन
जात पात के नाव म सतावत हें,
जानवरपना भरे हे ओकर तन मन म
रोज रोज छिन छिन जतावत हें,
आदमी जरे तो हे फेर मरे नइ हे,
का डर हे के पलटवार करे नइ हे,
जे दिन एमन जुर मिल एक हो जाहि,
सासन सत्ता अपन हाथ म लाय के
बिचार नेक हो जाहि,
जे दिन अदरमा इंखर फाट जाहि,
ओही दिन अपन बिरूध बने
सबो अमानवीय बेवस्था ल काट जाहि।
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