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Tag: राजेन्द्र लाहिरी

गिनते रहिये दिन
कविता

गिनते रहिये दिन

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** जिंदगी में एक वक्त ऐसा भी आता है जब कुछ कुछ खालीपन महसूस होता है, दिल गुजरे जमाने को याद कर रोता है, जो सिर्फ यादों में ही रहेगा, दुबारा आ जाऊं वक्त नहीं कहेगा, इधर समय गुजरता जाएगा, आयु साल दर साल घट जाएगा, कम होता जाता है दबदबा, कोई बचता नहीं मुंहलगा, आपको आपसे ही कोई नहीं मिलायेगा, गुजरा पल-पल पल तड़पायेगा, रहने लगेंगे सिर्फ यादों के सहारे, एक छोर में खुद तो दूसरे छोर में बाकी सारे, समझना न समझना खुद के ऊपर होगा क्योंकि बतियाएंगे रोज नदी के धारे, यदि किया है कुछ ऐसा काम, जो रख दे बरसों तक नाम, तो सफल रहेगा किसी का भी जीना, कब भागना पड़े सब छोड़ तब तक गिनते रहिये दिन, साल, महीना। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाण...
मुक्त होने का समय
कविता

मुक्त होने का समय

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** अब किस बात का इंतजार है, क्या आपका दिल नहीं बेकरार है, हजारों वर्षों तक दबे कुचले हो जीने से घुटन महसूस नहीं हो रही, आधी आबादी क्यों चिरनिद्रा सो रही, अब और कितने समय तक खुद से जोर नहीं लगाओगे, हाथ जोड़े-घूंघट काढ़े कब तक चुप रह पाओगे, प्रभात आपके लिए भी हो गया है, देखी भाली हो इस दुनिया को आपके लिए कुछ भी नहीं नया है, लूटा गया मान सम्मान, हक़ अधिकार, देखो आज भी यहीं है, बदले स्वरूप सारी देनदारियां एक-एक कर गिनने का समय है, एकपक्षीय सोच वालों से सब कुछ छीनने का समय है, इतनी बदल चुकी दुनिया क्या आज से स्वयं जुड़ने का मन नहीं करता, उड़ रही है नारियां अन्य देशों की क्या आपका मन उड़ने को नहीं करता, साम, दाम, दंड, भेद से है जो बिछाया गया जाल उसे आगे आ खुद से काटो, ड्योढ़ी लांघने का ये अच्छा समय है ...
अहसानफरामोश
कविता

अहसानफरामोश

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** हक अधिकार मिला? हां मिला। किसकी बदौलत? पता नहीं। आरक्षण से नौकरी मिला? हां मिला। किसकी बदौलत? पता नहीं। और इस तरह से महामानवों को लोग भुला देते हैं, उनके योगदानों को भुलाकर समाज को पे बैक करने के जगह पत्थरों पर रकम लुटा देते हैं, और घूमते रहते हैं इस स्थान से उस स्थान, इस पहाड़ से उस पहाड़, देखते ही नहीं न गर्मी न बरसात न जाडा, वह महसूस करने लगता है कि नौकरी मैंने मेहनत से पाया, जिसके लिए भरपूर समय लुटाया, वो भूल जाता है उनका होना न ऊपर वाले को पसंद है और न ही नीचे वाले को, पग पग पीना पड़ता है विष के प्याले को, बंदा पद के नशे में मदहोश है, तभी तो समाज के प्रति अहसानफरामोश है। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ...
जब कुछ लिख कहेंगी
कविता

जब कुछ लिख कहेंगी

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** कहां गया नारी सम्मान के लिए कुछ दिन पहले तुम्हारा किया गया संकल्प, या निकाल चुके हो अपने दिल से इस बात का विकल्प, वैसे भी इतिहास गवाह है कि तुमने अपने स्वार्थ के बारे में ही सोचा है, जब,जहां,जैसे पाये नारियों के हक़ अधिकार को जब तब नोचा है, आज फिर अपनी मनमानी दोहराओगे, धूमधाम से नारी को जलाओगे, दिन भर हुड़दंग करोगे रंग गुलाल उड़ाओगे, मुझे यकीन नहीं है तुम्हारी लिखी कहानी कथाओं पर, आधी आबादी को हासिये पर धकेल कुछ नहीं दिये हो प्रथाओं पर, हां जितना जलाना है जला लो आज जमाना तुम्हारा है, मुझे इंतजार उस दिन का रहेगा जब नारियां तुम्हें जलायेगी कुछ लिख और कहेंगी अब सारा जमाना हमारा है। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ ...
गड़बड़ हे भई
आंचलिक बोली, कविता

गड़बड़ हे भई

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** (छत्तीसगढ़ी कविता) छाता ओढ़ के सुरुज ल ढांकय देखव ए अत्याचारी मन, जोर जुलुम के बेवस्था ल पकड़े हावय देखव समाजिक बीमारी मन, हजारों साल के धत धतंगा करके नई अघाए हें, संकट खतरा कहि कहि के गरीब गुरबा ल सताये हें, नाक कटाय के डर नई हे कोनो नाक इंखर तो पइसा हावय, अकेल्ला रहिथंव मोर कोनो नई हे सुखाय नहीं जऊन भंइसा हावय, कुकुर बिलाई छेरी बछरू कतको के नजर म देवता आये, शरम बेच लोटा धर मांगय बइठे ठाले तीन तेलइ के खाये, हांसी आथे पढ़े लिखे मन उपर तर्क वितर्क ले दुच्छा हावय, गहना धर के मुड़ी ल अपन अनपढ़ जोगी जगा हाथ देखावय, मया पिरित नही हे देस से जेला ओहर का सियानी करही, ए डारा ले ओ डारा तक बेंदरा कस धतंग धियानी धरही, कांदी खाये पेट के भरभर पगुरा के वोला पचाही जी, चिंता फिकर का करना हे चारा दूसर लाही जी। ...
गंभीर और सुलझे जन
कविता

गंभीर और सुलझे जन

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** देखो कैसा मुमालिक ये, फर्ज को भुला बैठा है बन बैठा जज या पीठाधीश, काम क्या खुद का भूल गया कहते जो खुद को खबरनवीस, दो गुटों में बैठे हैं, एक दूजे से ऐंठे हैं, आधा सच बताता वो, आधा सच बताता ये, आधा झूठ परोसता वो, आधा झूठ परोसता ये, बैठे गोद धनकुबेरों के जन मन गन को लूट खसोटता ये, भ्रामकता में गूंगे बहरे जन, नहीं सच को खोजे इनका मन, तवायफों के दीदार को बैठे मुजरे में सब उलझे हैं, कुछ मत कहना इनको यारों जन गंभीर बहुत और सुलझे हैं। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने पर...
खुशबू बन बिखरना है
कविता

खुशबू बन बिखरना है

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** मर जाने के डर से नहीं मरना चाहते हो, तो आज ही मर जाओ, बड़ी जिंदगी चाहते हो तो अभी सुधर जाओ, सुधर कर भी गर मुर्दे ही रह गए, बिना प्रतिरोध सैलाब के धारे में बह मर गए, तो बता जी रहे थे वो कौन सी जिंदगी थी, न प्रतिकार न प्रतिशोध बकवास जीवन अब तक क्यों और किसके लिए सह गए, खंजर को हमारी जरूरत कभी नहीं होती, अगर लगाव होता तो वार करता ही क्यों? हल्के वार से भी शरीर नहीं रह पाता ज्यों का त्यों, मैं सुधर चुका हूं, अपनी जागृति वाली खुशबू संग कोने कोने में बिखर चुका हूं, कभी न कभी लोग साथ आएंगे, महक खोजते खोजते जब अपना भूत खोजेंगे तो निश्चित ही खुद खुशबू बिखरायेंगे, जिन्हें औरों की ड्योढ़ी पर निश दिन नाक रगड़नी है रगड़े, ऐसों को छोड़ो उनके हाल पर हर हाल में आगे बढ़ना है उनका जाल काटते बिना क...
रणनीति
कविता

रणनीति

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** चुनाव में खड़े थे प्रत्याशी चार, जीतना है सबको नहीं चाहिए हार, चूंकि प्रतिद्वंद्वी थे तो मिलकर नहीं किये विचार, करना था एक दूजे पर प्रहार, पहले ने समर्थक वोटरों को गिना, कम पड़ रहे थे समर्थक तो कैसे जाएगा जीत छीना, योजना के तहत जाल बिछाया गया, फ्रेम में पांचवा प्रत्याशी लाया गया, जिसने द्वितीय उम्मीदवार के समर्थकों में अच्छा खासा पैसा बांट डाला, उनकी हिम्मत को काट डाला, दूसरे को पता नहीं कि रणनीति के तहत फोड़ा गया है बम, उसके सारे मतदाता खा पी नाच रहे झमाझम, पहले का अपना वोटर बच गया, दूसरे का वोटर पांचवे द्वारा कट गया, रणनीतियां ही करती है काम ईमानदार हो चाहे मूर्ख, हमेशा सफल रहते हैं चालबाज धूर्त। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा प...
देखो चुनाव हो रहा है
कविता

देखो चुनाव हो रहा है

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** सब लड़ रहे हैं, आगे बढ़ रहे हैं, लड़ रहा है भाई-भाई, बहू संग सासू माई, एक नहीं हो रहे, नेक नहीं हो रहे, मतैक्य नहीं हो रहे, दबंग भी लड़ रहा, मलंग भी लड़ रहा, भुजंग भी लड़ रहा, चुनावी ताप बढ़ रहा, मिठाई की भरमार है, धन बल बेशुमार है, मतदाताओं में चुप्पी है, प्रत्याशी बेकरार है, बेवड़ों में छलका जाम है, हर दिन सुबह और शाम है, मुराद पूरी न हुए तो धमकी देना आम है, पीना खाना ही इनका काम है, प्रजातंत्र रो रहा है, जिम्मेदार सो रहा है, धर्म की ललक है जागी इतनी इंसानियत बिलख के रो रहा है, हो रहा है हो रहा है, चुनाव देखो हो रहा है। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। ...
सोचो स्वयं क्या हो
कविता

सोचो स्वयं क्या हो

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** मनुष्य में मनुष्य नहीं दिख पाता पर तुरंत ही जाति दिख जाती है, कुछ लोगों को उनके संस्कार शायद यहीं सिखाती है, जाति के नाम पर कुछ लोग बन जाते हैं हिंसक सरफिरे, स्व उच्चता की कितनों भी दुहाई दे रहते हैं गिरे के गिरे, योग्यता को आंकने का पैमाना लिए रहते हैं कुढ़ता से घिरे, कोयला ही मान बैठते हैं जो हर कर्म से रहते हैं हीरे, हर पदचाप की गूंज लिए ठोकर पर ठोकर खाये पत्थर को लगा लेते हैं सर माथे पर, सबसे प्रिय मित्र लगने लगता है अस्पृश्य जब उसे लाना पड़ जाये घर, शायद इसीलिए लोग बने रह जाते हैं कूपमंडूक, जो चाहते हैं इंसानियत से फैलते प्रकाश छोड़ अपनी जाति धर्म वाला धूप, मूर्खों कब समझोगे कि चंद्रमा, पृथ्वी और सूर्य का कोई धर्म या जाति नहीं होता, बहकाकर पेट भरने वालों द्वारा समानता के सि...
मुंह बंद करा गया
कविता

मुंह बंद करा गया

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** वो चिल्ला-चिल्ला बताने लगा, लिखे हैं बहुत किताबें सुनाने लगा, अपने ही मुख खुद का करने लगा गुणगान, चमत्कारियों की करतूतों का हर जगह करने लगा बखान, वो कह रहा था कि उनके किताबों में भरा हुआ है विज्ञान ही विज्ञान, जिसकी व्याख्या नहीं कर पाता समय में पहले कोई स्वयंभू विद्वान, आज के युग में भी धड़ल्ले से हर जगह अंधविश्वास फैला रहा, सृष्टि की उत्पत्ति का अजीब फार्मूला कथे कहानियों में बता रहा, दिमाग से पैदल चलने वाला उनकी हां में हां मिला रहा, अपनी स्थिति से ऊपर उठ नहीं सकते सारे जग वालों को बता रहा, इन लोगों के मिल रहा देखने हर हमेशा दो-दो रूप, अंदर बाहर हर तरफ से है कुरूप, सच्चे सीधे नास्तिक से एक दिन टकरा गया, जो सिर्फ जय भीम बोल कर उनका बड़ा सा मुंह बंद करा गया। ...
उद्धारकर्ता आ रहे हैं
कविता

उद्धारकर्ता आ रहे हैं

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** आ रहे हैं आ रहे हैं उद्धारकर्ता आ रहे हैं, जिसने देखा नहीं संघर्ष उनके दिलों में छा रहे हैं, भावनाएं अच्छी भड़काता है वो, नवयुवा को भटकाता है वो, कई प्रकरणों में फंसाता है वो, खुद बच के निकल जाता है वो, अचानक हुआ था अवतरण, भौंकने वालों ने दिया शरण, मूछों को ताव देता है, दुश्मन को भाव देता है, बना मान्यवर से भी बड़ा मान्यवर, हवाई राहों से घूमता शहर शहर, आलीशान कोठी बनाता है, अपनों को ही गरियाता है, गृहस्थ जीवन जीने वाला कंवारा खुद को बताता है, सपनों में बसके किसी के आंसू बहुत दे जाता है, पहुंच उनका काफी अंदर है, गुरू पीर सामने बंदर है, देते धमकियों पे धमकियां, बनते अपने मुंह मिट्ठू मियां, सगे भाई को गाली दे दे कई नये भाई बना रहे हैं, आ रहे हैं आ रहे हैं उद्धारकर्ता आ रहे हैं, वंचित ...
गीत गणतंत्र का
कविता

गीत गणतंत्र का

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** संविधान में संजोये गए सभी मूलमंत्र का, चलो सब मिल गाते हैं गीत गणतंत्र का, न रहा कोई रंक और न रहा कोई राजा, हर कोई बजाओ मिल प्रजातांत्रिक बाजा, चुनावी वक्त आया तो चुनने से पहले किसी को, खूब सोचो समझो और रखो होंठों पे हंसी को, खोजना है अब सबको आयाम तो विकास के, बदल जाएंगे फिजां जल्द अपने आसपास के, जानना ही होगा हमें नियम व अनुच्छेद को, मिटाना ही पड़ेगा धर्म, जाति-पाती भेद को, यहां नहीं कोई मालिक वो तो है आम जनता, लोकतांत्रिक शासन की होती है जान जनता, गर अपनी जेब भरने को कोई भ्रष्टाचार लाए, न्यायालय में घसीट उसे सद आचरण सिखाएं, ध्वज ही फहराने से न होते कर्तव्य पूरा, नियमों को नहीं मानो तो है सब अधूरा, अधिकारी हो गर मदारी तो जनता बने जमूरा, कानून को जो न मानें मानो खाया वो धतूरा, जनता का, जनता के द्...
आ जाओ तिरंगा के नीचे
कविता

आ जाओ तिरंगा के नीचे

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** सम्मान की लड़ाई बाद में लड़ते रहना पहले अपनी जान बचाओ, जुबानी जंग भी लड़ो और जरूरत पड़ने पर हथियार भी उठाओ, इन मीठे बोलने वालों के झांसे में मत आओ, चंद सिक्के खातिर दरी न उठाओ, जिंदा रहे तो मिलेंगे अपने अनुसार जीने के हजार तरीके, दिमाग लगाओ, समाज की गंदगी मिटाओ, सबसे अच्छा तरीका है समाज से पाखंड को हटाओ, विश्वास तो करके देखो कि बिना अंधविश्वास शानदार जिंदगी जी सकते हो, मन मस्तिष्क को साफ रख लोगों को मानसिक गुलामी क्या है बताओ, इससे होने वाली पीढ़ीगत नुकसान गिनाओ, क्यों भागना किसी धूर्त के पीछे, उनका काम ही है पाखंड परोसना तो उनसे ऊपर उठ ले आओ उन्हें कदमों के नीचे, एक जुट होने के लिए काफी है एक सर्वमान्य ध्वज तिरंगा, जिसके नीचे सुरक्षित रहेगा आन, बान, शान और रह पाएंगे जिंदा, क्योंक...
रद्दी का मोल
कविता

रद्दी का मोल

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** बचपन से शौक था उसे पढ़ने का, नई इबादत गढ़ने का, हरपल आगे बढ़ने का, हर परिस्थिति से लड़ने का, मगर समय निकलता गया, चुनौतियां आता गया नया, वो अड़े थे बड़े पद के ख्वाब में, ठसक आ चुका था रुआब में, नहीं अपनाया चाह से कोई छोटा पद, जेब भी अब नहीं कर रहा था मदद, थक हार कर बन गया बाबू, मगर दुनिया का चलन हो चुका था बेकाबू, समझौते कर परिस्थितियां कबूला, किताबों को भूला, अब उन्हीं ज्ञान भरी किताबें को मन नहीं कर रहा था रख सहेजने का, निर्णय ले लिया उस रद्दी को बेचने का, ले गया उसे एक किशोर खरीददार, जिन्हें था किताबों से असीम प्यार, और लग गया मन लगाकर पढ़ने, समय लगा गुजरने, चार साल बाद वह किशोर आया सामने, फूल माला दे सब लगे हाथ थामने, पहचान उसने उस बाबू को बोला समय ने मेरा इम्तिहान लिया, ...
देश संविधान से चलता है
कविता

देश संविधान से चलता है

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** बताओ देवतुल्य अपना जहर कहां रखते हो, उड़ेल उड़ेल क्यों नहीं थकते हो, रह रह फिजां में विष घोल देते हो, माजरा समझे बिना कुछ भी बोल देते हो, अधिकार हनन बिना भी चिल्लाते हो, दूसरों का हक़ बेदर्दी से खाते हो, बचा खुचा खुरचन भी डालते हो खुरच, क्या डर नहीं लगता हो न जाये अपच, क्या जहां और देश आपके लिए बना है, हैवानियत कर क्यों सीना तना है, देखो अपना लेकर बैठे हो संपूर्ण आरक्षण, किस बात से आ रहा हीनता वाला लक्षण, कुंडली हर जगह है तो करो सबका रक्षण, कर्तव्य भूल कर रहे हो भक्षण पर भक्षण, हां आपकी पीड़ा इसलिए है कि व्यवस्थाई नियम खुद नहीं बनाये हो, अपने अनुसार व्यवस्था न होने पर बौखलाये हो, अच्छा बता दो औरों को कितना सम्मान देते हो, अस्पृश्यता की नजर रख इम्तिहान लेते हो, आपके भ्रामक नजरिये ...
रफ्तार
कविता

रफ्तार

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** हां थे बहुत लोग उसके बनकर या कहें सब थे गिरफ्तार, रफ्तार का था शौकीन नाम था रफ्तार, जिस अंदाज में आता था, उसी अंदाज में जाता था, कुछ लोग उन्हें देखकर ताली बजाते थे, कुछ लोग उन्हें देखकर गाली सुनाते थे, उनका अलग ही धुन था, जल्दबाजी उनका अपना गुन था, उसी रफ्तार ने उसे बुला लिया, मौत ने एक दिन नींद भर सुला दिया, जिस रफ्तार से आया था, उसी रफ्तार से चला गया, एक जिंदगी तेजी के द्वारा छला गया, वो नादान था, दुनियादारी से अनजान था, तभी तो उनका जीवन जीने का तरीका रहा धांसू, ताउम्र रहेंगे परिजनों की आंखों में आंसू। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। ...
न्यू ईयर और…
कविता

न्यू ईयर और…

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** सुबह-सुबह किसी ने उसे उठाया, हैप्पी न्यू ईयर की बधाई चिपकाया, उन्हीं शब्दों को उन्हें वापस लौटाया, फिर उसने एक गंभीर बात बताया, कि इसका तो काम ही है हर साल आना, जो हम गरीबों को नहीं दे सकता खाना, हमारा तो हर दिन एक जैसा होता है, हमें नहीं पता नया साल कैसा होता है, कभी-कभी तो यह दिन हमारी बेबसी को उतार डालता है, भरपेट वालों की अत्यधिक खुशी हमें भूखा मार डालता है, किसी दिन काम ही नहीं होगा तो वो दिन हमारे किस काम का, हो जाता दिन हमारी भुखमरी और पैसे वालों के दिनभर के जाम का, हम तो चाहते हैं न्यू ईयर मियां तुम चुपके से आओ, इस दिन को छुट्टी के बजाय भरपूर काम की ओर ले जाओ, काम होगा तो देश का विकास होगा, रूटीन बदलेगी नहीं पर भोजन पास होगा, जिम्मेदार गरीबी दूर करने का नारा लगाते...
रेत का केक
कविता

रेत का केक

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** अर्द्ध छुट्टी के समय बच्चे विद्यालय के खेल मैदान में खेल रहे थे, होली की खुशियां मन में रख एक दूसरे पर धूल उड़ेल रहे थे, सभी बच्चों ने एक दूजे को निमंत्रण भिजवाया, जन्मदिन मनाने के लिए रेत का केक बनाया, बालू पर उकेर तोरण बांध रहे थे, बालमन नहीं कोई सीमा लांघ रहे थे, एक स्वर में सब कोई हैप्पी बर्थडे टू यू गा रहे थे, रेत का केक काटे जा रहे थे, केक का टुकड़ा काट-काट सबको प्यार से बांटा गया, दिख रहा था सब में नाता नया, बड़े ही चाव से सब केक खा रहे थे, खाने का अभिनय कर मुंह बजा रहे थे, सबसे मिलने के लिए बर्थडे गर्ल ने अपनी सुविधानुसार बना लिए शिफ्ट, सारे बच्चे अपनी क्षमतानुसार उन्हें थमा रहे थे फूल पत्ते से बना गिफ्ट, इस तरह से बच्चों का आज दिन बन गया, हुआ छुट्टी का सदुपयोग और मिला उन्ह...
वो थे इसलिए….
कविता

वो थे इसलिए….

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** प्रकृति ने पैदा किया इस धरती में जरूर, इंसान होकर भी इंसान नहीं बन पाये क्योंकि कुछ लोगों को था जाति का सुरूर, था उस सनक में इतना ज्यादा घमंड, अमानवीय अत्याचार करते थे प्रचंड, वो रहने को तो मुट्ठी भर थे, पर अपने लाभ के लिए सदा प्रखर थे, जिनके लिए जरूरी था साम, दाम, दंड, भेद, हत्या जैसे अपराध पर थे नहीं जताते खेद, था सबके लिए जरुरी उनकी हंसी, सब त्याग देते थे मन में उमड़ी खुशी, ऐसा नहीं है कि किसी ने उनकी करतूत किसी को बताया नहीं, जाल में उलझे लोगों ने जिसे समझ पाया नहीं, उनका प्रमुख काम था स्वयं पढ़ना, उलझाये रखने के लिए कथाएं गढ़ना, सब पड़े थे जैसे हो आदिमानव, मिथकों को तोड़ने आया एक महामानव, सारे विरोधों के बाद भी जिसने भरपूर पढ़ा, मानवता के लिए जिसने संविधान गढ़ा, महाग्रंथ में जिसने लिख डाले इंसा...
उम्र भर
कविता

उम्र भर

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** वो देता रहा उम्र भर दिलासा, और मरने के समय का नहीं हुआ खुलासा, उसने कहा था कि सुधार देंगे तुम्हें या तुम्हारे समाज को, खत्म कर देंगे चली आ रही रिवाज़ को, बाद में पता चला कि असल में सुधारने की बात तो धमकी थी, धोखे में रखने से उसकी किस्मत चमकी थी, वो तब भी वंचित था, आज भी है और आगे भी रहेगा, लफ्ज़ो की मीठी चाशनी में डूबा सब सहेगा, इधर पूरा कौम जीवित है इस उम्मीद में कि उम्र के किसी दौर में तो आएगा सवेरा, सब सम हो न हो कोई लंपट लुटेरा, मगर आस और आश्वासन तो सदा से वंचितों को वो देता आया है, अपनी वादों,बातों को कभी नहीं निभाया है, क्योंकि वो बना रहना चाहता है औरों से उच्च और रहबर, दे दे कहर, क्योंकि उन्हें फर्क नहीं पड़ता कोई ठोकरें खाये दर दर, जब जब किसी ने आस के फूल खिलाना चाहा, व...
बंजर सोच
कविता

बंजर सोच

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** जिंदगी जीने के लिए जरूरी है एक सकारात्मक सोच, जो काम करता है सतत आगे बढ़ने-बढ़ाने के लिए रोज, सोच दो तरह के होते हैं, एक जो सकारात्मक मानवतावादी है जिसमें आपसी प्रेम भाईचारा सहयोग और सदा मिलकर चलने पर आधारित होता है, दूसरी सोच बिल्कुल इसके उलट नकारात्मकता वाला जो सिर्फ प्रचारित होता है, मगर कुछ लोग केवल भ्रमित रहते हैं, कभी मानवीय मूल्यों को तो कभी हिंसात्मक विचार को सही कहते हैं, जब खुद पर मुसीबत हो तो हर किसी से सहयोग की अपेक्षा रखते हैं, जब सहायता देने का वक़्त आता है तो ईर्ष्यावश मन में भाव उपेक्षा रखते हैं, उत्कृष्ट सोच खुद के साथ ही औरों के लिए भी एक नये मार्ग पर निरंतर हंसते हुए चलना सिखाता है, पर दूसरी तरफ विपरीत प्रभाव में जा दूसरों की प्रगति पर जलना सिखाता है, परंतु कई ...
जिस दिन वे अपने घर आ गए
कविता

जिस दिन वे अपने घर आ गए

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** छुपा नहीं पा रहे हो, गाहे बगाहे अपनी धृष्टता दिखा रहे हो, आज के इस सभ्य कहे जाने वाले युग में, हांक रहे हो मानव अब भी जातिय चाबुक में, महामहिम बनकर भी, माननीय बनकर भी, दिखा दे रहे हो अपनी जाति का चेहरा, बलात कब्जा किये पद और पॉवर को बनाकर मोहरा, अब तो जता दो मंशा चाहते क्या हो, सड़ी गली व्यवस्था बनी रहे और कुछ भी न नया हो, संवैधानिक, लोकतांत्रिक देश में रह रहे हो मत जाओ भूल, हर दिन हर पल हर सांस दिये जा रहे हो शूल पर शूल, ओछी नीतियों ने देश को कितना तड़पाया होगा, पल पल आंखों से आंसू छलकाया होगा, तिल तिल मर मर चिंतन मनन कर पुरखों ने ये नियम नए लाया होगा, पर आपके भूख और हवस ने कितने बार व्याख्या भटकाया होगा, सारे दुर्गुण काट व्यवस्था जमाया होगा, मत भूलो आप पर भी कोई भारी पड़ सकता ...
दिखाओ अपने अंदर का डर
कविता

दिखाओ अपने अंदर का डर

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** तुम्हारा ये डर जाने का कारोबार, लगा जबरदस्त, धमाकेदार, वाकई में डरते बहुत हो, पल पल मरते बहुत हो, हथियारों से लैस तुम्हारे इतने रहबर, क्या नहीं बचा सकते तुम्हें बढ़कर, लोगों का दिमाग,उनके दिए पैसे, थेथरई के साथ खा लेते हो कैसे, फिर मानते आए हो हमें सदा दुश्मन, फिर भी वसूलने की चेष्टा हमसे ही हमारा धन, सुनियोजित रहन सहन, सुशिक्षित पूरा जीवन, सुनियोजित प्रशिक्षित संगठन, जहां समर्पित शत्रुओं का तन मन धन, जगह जगह विराजित तुम्हारेआस्थाई बूत, सर्वज्ञ,शक्तिशाली,सर्वव्यापी मजबूत, मगर डर किस बात का, कहते खुद को उच्च जात का, क्यों घबरा,छटपटा रहे देख विरोधियों के बढ़ते फैलते जाल, कहां खो गया भस्म करते, आकाशवाणी करते,डराते मायाजाल, युगों युगों से चले आ रहे अपने विचारधारा,सिद्धियों पर क्यों भरोसा नहीं ...
शिक्षा बिना दुनिया?
कविता

शिक्षा बिना दुनिया?

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** वो भद्र मानव चला जा रहा था, चलता ही जा रहा था अपनी मानसिक शांति के लिए, उस दौर में जब मनुष्य मरे जा रहा था हथियारों से युक्त क्रांति के लिए, भोर का समय, नीरवता लिये, तभी देखा दो जगह रोशनी, ना जोगन ना जोगनी, एक जगह एक बालक ग्यारह साल का, माथे पर लंबा तिलक, मुस्कुराता चेहरा, हाथ में थी आरती, जोर जोर से गाये जा रहा था भजन, दूसरे जगह कोई शोरशराबा नहीं, पर बैठा था वहां भी एक बालक, ढिबरी के अंजोर में बार बार कुछ पढ़ रहा था, अगल बगल बस्ता और किताबें, बालक बुदबुदा रहा था ज्ञान विज्ञान की बातें, भद्र पुरूष अवाक देखे जा रहा, उन्हें लग रहा कि उस झोपड़ी से कभी डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, निकल-निकल आ रहा, वह सोचने लगा कि काश यह होता मेरा घर, मैं करता यही बसर, और होते ये सारे मेरे अपने, जीवंत करते मेरे ...