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देश संविधान से चलता है
कविता

देश संविधान से चलता है

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** बताओ देवतुल्य अपना जहर कहां रखते हो, उड़ेल उड़ेल क्यों नहीं थकते हो, रह रह फिजां में विष घोल देते हो, माजरा समझे बिना कुछ भी बोल देते हो, अधिकार हनन बिना भी चिल्लाते हो, दूसरों का हक़ बेदर्दी से खाते हो, बचा खुचा खुरचन भी डालते हो खुरच, क्या डर नहीं लगता हो न जाये अपच, क्या जहां और देश आपके लिए बना है, हैवानियत कर क्यों सीना तना है, देखो अपना लेकर बैठे हो संपूर्ण आरक्षण, किस बात से आ रहा हीनता वाला लक्षण, कुंडली हर जगह है तो करो सबका रक्षण, कर्तव्य भूल कर रहे हो भक्षण पर भक्षण, हां आपकी पीड़ा इसलिए है कि व्यवस्थाई नियम खुद नहीं बनाये हो, अपने अनुसार व्यवस्था न होने पर बौखलाये हो, अच्छा बता दो औरों को कितना सम्मान देते हो, अस्पृश्यता की नजर रख इम्तिहान लेते हो, आपके भ्रामक नजरिये ...
रफ्तार
कविता

रफ्तार

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** हां थे बहुत लोग उसके बनकर या कहें सब थे गिरफ्तार, रफ्तार का था शौकीन नाम था रफ्तार, जिस अंदाज में आता था, उसी अंदाज में जाता था, कुछ लोग उन्हें देखकर ताली बजाते थे, कुछ लोग उन्हें देखकर गाली सुनाते थे, उनका अलग ही धुन था, जल्दबाजी उनका अपना गुन था, उसी रफ्तार ने उसे बुला लिया, मौत ने एक दिन नींद भर सुला दिया, जिस रफ्तार से आया था, उसी रफ्तार से चला गया, एक जिंदगी तेजी के द्वारा छला गया, वो नादान था, दुनियादारी से अनजान था, तभी तो उनका जीवन जीने का तरीका रहा धांसू, ताउम्र रहेंगे परिजनों की आंखों में आंसू। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। ...
न्यू ईयर और…
कविता

न्यू ईयर और…

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** सुबह-सुबह किसी ने उसे उठाया, हैप्पी न्यू ईयर की बधाई चिपकाया, उन्हीं शब्दों को उन्हें वापस लौटाया, फिर उसने एक गंभीर बात बताया, कि इसका तो काम ही है हर साल आना, जो हम गरीबों को नहीं दे सकता खाना, हमारा तो हर दिन एक जैसा होता है, हमें नहीं पता नया साल कैसा होता है, कभी-कभी तो यह दिन हमारी बेबसी को उतार डालता है, भरपेट वालों की अत्यधिक खुशी हमें भूखा मार डालता है, किसी दिन काम ही नहीं होगा तो वो दिन हमारे किस काम का, हो जाता दिन हमारी भुखमरी और पैसे वालों के दिनभर के जाम का, हम तो चाहते हैं न्यू ईयर मियां तुम चुपके से आओ, इस दिन को छुट्टी के बजाय भरपूर काम की ओर ले जाओ, काम होगा तो देश का विकास होगा, रूटीन बदलेगी नहीं पर भोजन पास होगा, जिम्मेदार गरीबी दूर करने का नारा लगाते...
रेत का केक
कविता

रेत का केक

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** अर्द्ध छुट्टी के समय बच्चे विद्यालय के खेल मैदान में खेल रहे थे, होली की खुशियां मन में रख एक दूसरे पर धूल उड़ेल रहे थे, सभी बच्चों ने एक दूजे को निमंत्रण भिजवाया, जन्मदिन मनाने के लिए रेत का केक बनाया, बालू पर उकेर तोरण बांध रहे थे, बालमन नहीं कोई सीमा लांघ रहे थे, एक स्वर में सब कोई हैप्पी बर्थडे टू यू गा रहे थे, रेत का केक काटे जा रहे थे, केक का टुकड़ा काट-काट सबको प्यार से बांटा गया, दिख रहा था सब में नाता नया, बड़े ही चाव से सब केक खा रहे थे, खाने का अभिनय कर मुंह बजा रहे थे, सबसे मिलने के लिए बर्थडे गर्ल ने अपनी सुविधानुसार बना लिए शिफ्ट, सारे बच्चे अपनी क्षमतानुसार उन्हें थमा रहे थे फूल पत्ते से बना गिफ्ट, इस तरह से बच्चों का आज दिन बन गया, हुआ छुट्टी का सदुपयोग और मिला उन्ह...
वो थे इसलिए….
कविता

वो थे इसलिए….

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** प्रकृति ने पैदा किया इस धरती में जरूर, इंसान होकर भी इंसान नहीं बन पाये क्योंकि कुछ लोगों को था जाति का सुरूर, था उस सनक में इतना ज्यादा घमंड, अमानवीय अत्याचार करते थे प्रचंड, वो रहने को तो मुट्ठी भर थे, पर अपने लाभ के लिए सदा प्रखर थे, जिनके लिए जरूरी था साम, दाम, दंड, भेद, हत्या जैसे अपराध पर थे नहीं जताते खेद, था सबके लिए जरुरी उनकी हंसी, सब त्याग देते थे मन में उमड़ी खुशी, ऐसा नहीं है कि किसी ने उनकी करतूत किसी को बताया नहीं, जाल में उलझे लोगों ने जिसे समझ पाया नहीं, उनका प्रमुख काम था स्वयं पढ़ना, उलझाये रखने के लिए कथाएं गढ़ना, सब पड़े थे जैसे हो आदिमानव, मिथकों को तोड़ने आया एक महामानव, सारे विरोधों के बाद भी जिसने भरपूर पढ़ा, मानवता के लिए जिसने संविधान गढ़ा, महाग्रंथ में जिसने लिख डाले इंसा...
उम्र भर
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उम्र भर

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** वो देता रहा उम्र भर दिलासा, और मरने के समय का नहीं हुआ खुलासा, उसने कहा था कि सुधार देंगे तुम्हें या तुम्हारे समाज को, खत्म कर देंगे चली आ रही रिवाज़ को, बाद में पता चला कि असल में सुधारने की बात तो धमकी थी, धोखे में रखने से उसकी किस्मत चमकी थी, वो तब भी वंचित था, आज भी है और आगे भी रहेगा, लफ्ज़ो की मीठी चाशनी में डूबा सब सहेगा, इधर पूरा कौम जीवित है इस उम्मीद में कि उम्र के किसी दौर में तो आएगा सवेरा, सब सम हो न हो कोई लंपट लुटेरा, मगर आस और आश्वासन तो सदा से वंचितों को वो देता आया है, अपनी वादों,बातों को कभी नहीं निभाया है, क्योंकि वो बना रहना चाहता है औरों से उच्च और रहबर, दे दे कहर, क्योंकि उन्हें फर्क नहीं पड़ता कोई ठोकरें खाये दर दर, जब जब किसी ने आस के फूल खिलाना चाहा, व...
बंजर सोच
कविता

बंजर सोच

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** जिंदगी जीने के लिए जरूरी है एक सकारात्मक सोच, जो काम करता है सतत आगे बढ़ने-बढ़ाने के लिए रोज, सोच दो तरह के होते हैं, एक जो सकारात्मक मानवतावादी है जिसमें आपसी प्रेम भाईचारा सहयोग और सदा मिलकर चलने पर आधारित होता है, दूसरी सोच बिल्कुल इसके उलट नकारात्मकता वाला जो सिर्फ प्रचारित होता है, मगर कुछ लोग केवल भ्रमित रहते हैं, कभी मानवीय मूल्यों को तो कभी हिंसात्मक विचार को सही कहते हैं, जब खुद पर मुसीबत हो तो हर किसी से सहयोग की अपेक्षा रखते हैं, जब सहायता देने का वक़्त आता है तो ईर्ष्यावश मन में भाव उपेक्षा रखते हैं, उत्कृष्ट सोच खुद के साथ ही औरों के लिए भी एक नये मार्ग पर निरंतर हंसते हुए चलना सिखाता है, पर दूसरी तरफ विपरीत प्रभाव में जा दूसरों की प्रगति पर जलना सिखाता है, परंतु कई ...
जिस दिन वे अपने घर आ गए
कविता

जिस दिन वे अपने घर आ गए

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** छुपा नहीं पा रहे हो, गाहे बगाहे अपनी धृष्टता दिखा रहे हो, आज के इस सभ्य कहे जाने वाले युग में, हांक रहे हो मानव अब भी जातिय चाबुक में, महामहिम बनकर भी, माननीय बनकर भी, दिखा दे रहे हो अपनी जाति का चेहरा, बलात कब्जा किये पद और पॉवर को बनाकर मोहरा, अब तो जता दो मंशा चाहते क्या हो, सड़ी गली व्यवस्था बनी रहे और कुछ भी न नया हो, संवैधानिक, लोकतांत्रिक देश में रह रहे हो मत जाओ भूल, हर दिन हर पल हर सांस दिये जा रहे हो शूल पर शूल, ओछी नीतियों ने देश को कितना तड़पाया होगा, पल पल आंखों से आंसू छलकाया होगा, तिल तिल मर मर चिंतन मनन कर पुरखों ने ये नियम नए लाया होगा, पर आपके भूख और हवस ने कितने बार व्याख्या भटकाया होगा, सारे दुर्गुण काट व्यवस्था जमाया होगा, मत भूलो आप पर भी कोई भारी पड़ सकता ...
दिखाओ अपने अंदर का डर
कविता

दिखाओ अपने अंदर का डर

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** तुम्हारा ये डर जाने का कारोबार, लगा जबरदस्त, धमाकेदार, वाकई में डरते बहुत हो, पल पल मरते बहुत हो, हथियारों से लैस तुम्हारे इतने रहबर, क्या नहीं बचा सकते तुम्हें बढ़कर, लोगों का दिमाग,उनके दिए पैसे, थेथरई के साथ खा लेते हो कैसे, फिर मानते आए हो हमें सदा दुश्मन, फिर भी वसूलने की चेष्टा हमसे ही हमारा धन, सुनियोजित रहन सहन, सुशिक्षित पूरा जीवन, सुनियोजित प्रशिक्षित संगठन, जहां समर्पित शत्रुओं का तन मन धन, जगह जगह विराजित तुम्हारेआस्थाई बूत, सर्वज्ञ,शक्तिशाली,सर्वव्यापी मजबूत, मगर डर किस बात का, कहते खुद को उच्च जात का, क्यों घबरा,छटपटा रहे देख विरोधियों के बढ़ते फैलते जाल, कहां खो गया भस्म करते, आकाशवाणी करते,डराते मायाजाल, युगों युगों से चले आ रहे अपने विचारधारा,सिद्धियों पर क्यों भरोसा नहीं ...
शिक्षा बिना दुनिया?
कविता

शिक्षा बिना दुनिया?

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** वो भद्र मानव चला जा रहा था, चलता ही जा रहा था अपनी मानसिक शांति के लिए, उस दौर में जब मनुष्य मरे जा रहा था हथियारों से युक्त क्रांति के लिए, भोर का समय, नीरवता लिये, तभी देखा दो जगह रोशनी, ना जोगन ना जोगनी, एक जगह एक बालक ग्यारह साल का, माथे पर लंबा तिलक, मुस्कुराता चेहरा, हाथ में थी आरती, जोर जोर से गाये जा रहा था भजन, दूसरे जगह कोई शोरशराबा नहीं, पर बैठा था वहां भी एक बालक, ढिबरी के अंजोर में बार बार कुछ पढ़ रहा था, अगल बगल बस्ता और किताबें, बालक बुदबुदा रहा था ज्ञान विज्ञान की बातें, भद्र पुरूष अवाक देखे जा रहा, उन्हें लग रहा कि उस झोपड़ी से कभी डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, निकल-निकल आ रहा, वह सोचने लगा कि काश यह होता मेरा घर, मैं करता यही बसर, और होते ये सारे मेरे अपने, जीवंत करते मेरे ...
कौन हो चंदा?
कविता

कौन हो चंदा?

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** चुप कैसे क्यों मौन हो चंदा, या बतला दो कौन हो चंदा, कभी मामा तुम बन जाते हो, अंधियारा गुस्से में लाते हो, हमें पता है बस इतना ही कभी घटते कभी बढ़ जाते हो, क्यों किसके पीछे पड़ जाते हो, कोई कहते स्त्री और कोई पुरुष, अमावस्या को हो जाते हो खड़ूस, तारे क्या लगते हैं तेरे, कोई कहता बलम हो मेरे, किसी का मुखड़ा तुम्हारे जैसा, कोई लूट रहा तेरे नाम से पैसा, रात भर इतराते रहते हो जब तक न हो जाये भोर, खबर भी है तुमको क्या कुछ भी चाह रहा कोई तुम्हें चकोर, कभी कहलाते हो आफ़लब, कभी दिखते हो सबको लाजवाब, जंजालों से खुद को संभालते हो, खुद को ग्रहण से निकालते हो, जा सकता है कोई तुमसे पार, पूछ रहा था एक दिलदार, औलाद को कहे कोई चंदा सूरज, बतलाओ किस किस की हो जरूरत। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी न...
आज के आज
कविता

आज के आज

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** देखता हूं आज का काम आज, बेवजह पाल के नहीं रखा हूं रिवाज, हाड़तोड़ मेहनत दिन भर की करता हूं, देखता हूं आज को कल पर नहीं विचरता हूं, दुनिया के लोग कहते हैं 'कल किसने देखा', मुझे कल को देखने की जरूरत भी नहीं, तभी चैन की नींद सो पाता हूं, ज्यादा लंबा दिमाग नहीं लगाता हूं, यदि नींद ही नहीं होगी, तो बन सकता हूं रोगी, अतः मुझे रोग नहीं पालना, आज का आज कल पर नहीं डालना, कल के बारे में सोचने के लिए दुनिया में भरे हैं और लोग, चिंता से उबर नहीं पाते भले ही खाएं छप्पन भोग, न किसी देवता से आस न किसी काले जादू का डर, क्योंकि हमें फुरसत नहीं दिन भर, काम कर अपनी उमर बढ़ाता हूं, बचत,निवेश और टैक्स चोरी की संभावित झंझट में नहीं आता हूं, मरने का डर नहीं तभी तो जीना आता है, डरपोक दिन में कई कई ब...
सही मैं हमेशा से हूं
कविता

सही मैं हमेशा से हूं

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** मुझे बचपन से छोड़ दिया गया था अपनों से दूर गैरों के घर, मजबूरन हो रहा था मेरा बसर, मेरे ही पिता का दिया वे भी खा रहे थे, पर मुझे हरामखोर कह नित गरिया रहे थे, खैर मुझे सहना ही था, उन्हीं के साये में रहना ही था, दूसरों के घर रहना खाना मेरी गलती नहीं थी, बड़ा हुआ तो देखा हालात बदला हुआ, भावनाएं अभी था मचला हुआ, लगना पड़ा घर को संभालना, सभी सदस्यों को काम कर पालना, विवाह, बच्चे के बाद भी कोई सुख नहीं देखे, नहीं चिंता गांव समाज को लेके, पढ़ा लिखा था तो मिला नौकरी, करने लगा सरकारी चाकरी, न कोई बुराई न कोई लत था, बताओ मैं कहां गलत था, संपूर्ण परिवार को खुद संभाला, सबने अलग कर घर से निकाला, बराबर होती रही बुराई, किसी को याद न रहा मेहनत और कमाई, आई रिश्तों में दरार और गफ़लत था, आप ह...
चलो खुलकर मुस्कुराते हैं
कविता

चलो खुलकर मुस्कुराते हैं

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** मुस्कुरा लो यार तलब न दबाओ, हर एक क्षण खुश नजर आओ, इसके फायदे एक नहीं अनेक है, महत्व इसका बहुत ही विशेष है, सोचो हमने कब कब मुस्कुराया है, हमें हर पल उन्होंने सिर्फ जलाया है, पर हम निराश नहीं हैं, उदास भी नहीं हैं, क्योंकि उपलब्धि की वो कील मेरे बाप ने ठोंके है, विषमताओं का प्रवाह सिर्फ उसने रोके है, वरना मुस्कुराने के पहले गिड़गिड़ाना होता था, हर देहरी पर सर झुकाना होता था, बाबा साहेब ने हर मिथक तोड़ा, अपने पैरों पर खड़ा कर हमें छोड़ा, हम अब शिक्षा की अलख जगा रहे हैं, इत्मीनान से यदि मुस्कुरा रहे हैं, तो इसका कारण सिर्फ बाबा भीमराव है, स्वतंत्र अस्तित्व की ओर जिनका झुकाव है, पुरखों का अहसास सोच भी सिहर जाते हैं, हर पग की कठिनाइयां जो बताते हैं, तो चलो खुलकर मुस्कुराते हैं, हमा...
बहुमूल्य योगदान
कविता

बहुमूल्य योगदान

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** बड़े गुस्से से वो निकले थे पूरे लाव लश्कर के साथ उस मतदाता के हाथ पांव तोड़ने, तभी चुनावों की तारीखों का एलान हो गया, त्वरित नेताजी परेशान हो गया, अब वो उसी लाव लश्कर के साथ घूम रहे हैं हाथ पांव जोड़ते, चंद घंटे पहले की अकड़ छोड़ते, ये किस्सा गिरती हुई नैतिकता का पूरा हाल बता गया, और सब जान गए कि मौकापरस्त राजनीति का ये खूबसूरत दौर है नया, तो अब नेताजी घर-घर जा सही काम का भरोसा दिलाएंगे, गिर पैरों पर गिड़गिड़ाएंगे, पिला चार पेटी, खिला दो बोटी, फिर अपनी ईमानदार छवि के दम पर वहीं सीट फिर से जीत लाएंगे, तथा देश की उन्नति में अपना बहुमूल्य योगदान दे पाएंगे, हमें भरपूर भरोसा है कि यह नेता संविधान को खत्म होने से बचाएंगे, और वोटरों के घर वहीं पुराने गरीबी व भुखमरी के दिन ला पाएंगे। ...
प्रकृति के अंश
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प्रकृति के अंश

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** एक पत्थर से जैसे ही उसने ठोकर खाया, उस पाषाण को उसने उठाया, हृदय और माथे से लगाया, और बोला कि अच्छा हुआ कि मेरा पैर आपमें लगा यदि आप खुद आकर मेरे पैर में लगे होते तो आज मेरा पग टूट गया होता, कहीं बैठे-बैठे मैं उस पल को रोता, प्रकृति के नियमों से चलने वाला हूं, स्वार्थ के लिए उसे नहीं छलने वाला हूं, इस तरह से हुई होगी पत्थरों को पूजने की शुरुआत, प्रकृति को पूजने की आगाज, जो आज भी जारी है आदिवासियों में, धरती के मूलनिवासियों में, तब कुछ चालाकों के मन में आया होगा विचार, पाषाणों को दे दिया होगा आकर, और बोला होगा साक्षात साकार, जो है दुनिया को चलाने वाला निराकार, फिर डर-डर कर रहने वालों पर हुआ होगा पहला प्रहार, तब प्रारंभ हुआ होगा डर का व्यापार, इस तरह लोग मानने हो गए मशगूल,...
वो सदाबहार वृक्ष
कविता

वो सदाबहार वृक्ष

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** धूर्तों तना या पेड़ तो बार बार काटते आये हो, उसी पेड़ के फल खाये हो, शायद जड़ काटने की तुम्हारी औकात नहीं, जड़ के रहते तुम्हारी बनेगी बात नहीं, क्योंकि वो इतनी गहरी है कि तुम्हारा साम, दाम, दंड, भेद काम नहीं आया, कुदरत के दुश्मनों को कुदरत ने मजबूत नहीं बनाया, हर तरह के हथियारों से लैस रहे हो, हो चुके इतने उदंड कि कभी बंधन में नहीं रहे हो, लकड़ी काटने के लिए लकड़ी का ही सहयोग लेते हो, कभी बिना सहयोग लिए काट कर देखो, आपसे होगा नहीं फिर भी कहूंगा षड़यंत्र छोड़ प्यार बांट कर देखो, बात काटने ही हो रही थी कि उन सदाबहार पेड़ों का अस्तित्व कभी भी मिटा नहीं पाओगे, कुछ अंतराल के बाद वो फिर उठेगा, और ऐसा उठेगा कि तुम्हें भी बेमन से गर्व करना पड़ेगा, पर चिंता मत करना वो पेड़ कभी अपना स्वभाव नहीं बदल...
यादें रेडियो की
कविता

यादें रेडियो की

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** क्या बताएं वो समय ही कुछ और था, तब मनोरंजन के लिए रेडियो का दौर था, स्टेशन खुलने से पहले बजते रोचक नये-नये गाने, जो होते थे बड़े ही सुहाने, बड़े अदब से किया जाता था नमस्कार, मन प्रफुल्लित होता सुन देश दुनिया का समाचार, आज के टी वी चैनलों की तरह कई स्टेशन सुनने को मिलते थे, पसंदीदा कार्यक्रम सुन दिल खिलते थे, मेरी दिनचर्या में रेडियो शामिल था अनवरत, हो चाहे ऋतु सर्दी, गर्मी, बारिश या शरद, होती थी रोज कृषि पर उपयोगी चर्चा, मुफ्त की सलाह बिना किये कोई खर्चा, स्वास्थ्य से संबंधित जब सलाह होते थे, बच्चे ट्यून बदलने के लिए रोते थे, कमेंट्री सुनते चक्कर लगा आते खेत का, तब दौर था राष्ट्रीय खेल हॉकी और क्रिकेट का, रेडियो सीलोन सुनाता बिनाका गीतमाला, न सुन पाये तो लगता समय खराब कर डाला, बी बी सी हिंदी, ...
धरती आबा के वंशज
कविता

धरती आबा के वंशज

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** जनाब कितने आये और कितने गये, पर हम आज भी वहीं हैं जहां थे भले ही न बन पाये आपके जैसे नये, बुरी नीयत रख हमारी कितनों जमीनें साल दर साल आप हड़पे मगर आज भी हम मालिक हैं अपने खिलखिलाते हरे भरे जंगल के, यहीं हम ढूंढ लेते हैं सारी खुशियां और जरूरतें जन मंगल के, हमें मिटाने की हर कोशिशों के बाद भी हम अडिग हैं जस के तस, हमारी हस्ती मिटा सको ये नहीं है आपके बस, जब मिटा नहीं पाते, हमें हमारी जगहों से हटा नहीं पाते तो हमें कहने लगते हो उपद्रवी या नक्सली, जिस मानसिकता के मिल जाएंगे आपके लोग हर चौराहे हर गली, लेकिन लगा देते हो हम पर इल्जाम, जग में करते हो हमें बदनाम, जो परिचायक है आपके क्रूर सामाजिक व्यवस्था का, लाभ उठाते रहते हो अपने सामाजिक, राजनीतिक अवस्था का, मत भूलो हम वाकिफ़ हैं जंगल ...
तीन भाई
कविता

तीन भाई

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** जी हां तीन भाई जो लड़ते रहते थे आपस में लड़ाई, कि कौन किसके हिस्से की रोटी खाया, किसने किसको उल्लू बनाया, करना था सबको मुखियागिरी, सिद्धस्त थे करके चमचागिरी, बने रहे औरों की हाथों का खिलौना, फांके पड़े ऐसे बचा नहीं बिछौना, पर कोई कुछ भी नहीं समझने को तैयार, खुद को मानते रहे भाइयों से होशियार, मौका देखकर एक चालबाज आया, चिकनी, चुपड़ी बातों से तीनों को फंसाया, रोज-रोज लड़ना तीनों की बनी आदत, लोलुपता के कारण घर दे रहा शहादत, लड़ते रहने से घर में नहीं कुछ बचा, चालबाज सबको था रहा नचा, बनना था त्रिशूल पर सब शूल बन गए, एका नहीं बची अब सब धूल बन गए, रुतबा दबदबा तीनों मिलके खा गए, नेतृत्व का था मौका वो भी गंवा गए, सुखचैन का गाना चालबाज गा रहे, अकड़ अपनी तीनों न भूल पा रहे, यहीं हाल देखो ...
डर कितना है
कविता

डर कितना है

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** खोजो-खोजो सब कोई बंधु अपने अंदर डर कितना है, जिंदा रहकर डरे हो कितना डरकर गए हो मर कितना है, डर अंदर की कमजोरी है, अनदेखे को श्रेय देना क्यों मजबूरी है, किसने तुम्हें कब कब बचाया है, किसने भीरू बना जब तब डराया है, डरना ही है तो प्रकृति से डरो, उनसे छेड़छाड़ खिलवाड़ मत करो, डर का अंजाम भयानक होता है, मत सोचो ये अचानक होता है, आपके भीतर खौफ धीरे-धीरे भरा जाता है, डराने कोई और नहीं आता है, बचपन में घर परिवार द्वारा, फिर सामाजिक संसार द्वारा, कहीं धन के घमंडियों द्वारा, कहीं धर्म के पाखंडियों द्वारा, ये डर लूट जाने पर मजबूर करता है, अनाम चमत्कारियों से गुहार कर, मन मस्तिष्क गुलामी की ओर जाता है, फिर कुछ धूर्त अपने इशारे पर नचाता है, डर से हमें दूर हमारी एकाग्रता और ध्यान कर सकता है, सोच व ज्ञान ...
दिलवाले बहुजन
कविता

दिलवाले बहुजन

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** गा खेल कूद या नाच, भरपूर समय है तुम्हारे पास, जगराता कर, उपवास रह या महीने भर कांवड़ उठा, मस्तिष्क में सिर्फ इसी बात को बिठा, यहीं सब तो कर सकते हो, यहीं तो सबसे महत्वपूर्ण प्रतियोगी परीक्षाएं हैं, पूरे समाज को यहीं सब करने की आपसे अपेक्षाएं हैं, बरसते फूलों का आनंद लीजिए, घोर आस्थावान होने का परिचय दीजिए, पढ़ाई लिखाई की क्या जरूरत है, देखो भंडारे कराने की कब मुहूरत है, डॉक्टर, इंजीनियर,कलेक्टर, या कोई भी नौकरी करने की, वकील, न्यायाधीश बनने की, बताओ भला आवश्यकता ही क्यों है, खुश रहो भले मानुषों प्राचीन काल से तुम्हारी स्थिति ज्यों की त्यों है, बिजिनेस करने, धंधा करने, विधायक, सांसद, मंत्री बनने, या सत्ता हासिल करने का झंझट भूलकर भी मत लेना, देने वालों में से हो हमेशा दूसरों को ही अपना हिस्...
ये पब्लिक है
कविता

ये पब्लिक है

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** ये पब्लिक है कुछ नहीं जानती है, हवाबाज जादूगर जो दिखा दे उसे ही सब कुछ मानती है, कोई कुछ व्हाट्सएप पर फेंक दिया, फेसबुक पर टैग किया, ट्विटर पर बकलोली की, किसी ने हंसी ठिठोली की, और ये पब्लिक मान जाती है, सभी झूठों को सही मान जाती है, आई टी सेल वालों की बातें बन ज्ञान सुहाती है, अब कैसे कहें कि ये पब्लिक है सब जानती है, प्राचीन काल से ही सभी झूठ को सच मानती है, यदि ऐसा है तो क्यों है कभी नहीं लगाती तर्क, मीठे,मनभावन और दिव्य लगते हैं सारे के सारे कुतर्क, जब तक गप्पों को उचित तर्कों से काटेंगे नहीं, सच को वैज्ञानिकता के आधार पर अलग कर छांटेंगे नहीं, तब तक एक ही बात कहता रहूंगा, ये पब्लिक है कुछ भी नहीं जानती। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र...
गांव का पेड़
कविता

गांव का पेड़

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** रह गया गांव का पेड़ वहीं उसी जगह गांव में, बस, ट्रक, ट्रेन, नाव व जहाज की सफर कर फल पहुंच गए शहर गगनचुंबी कंक्रीटों के छांव में, गांव के पेड़ आज भी कर रहे अपने वादे पूरे, नहीं तोड़ा भरोसा, नहीं छोड़ रहे अधूरे, तोड़ रहा फल बच्चा, बुजुर्ग, किसान, मजदूर और पल-पल रखवाली करती महिलाएं, डंटे रह दूर करती वृक्ष की बलाएं, जो सिर्फ अकेले नहीं खाते कोई फल, मिलकर खा रहे आज व कल, जो लेकर चंद कागज के टुकड़े शहर वालों के जायका व तिजारत के लिए, जो महसूस नहीं कर पाते थोड़ा सा अपनत्व और लगाव, फिर पका डालते है रातों रात रासायनिक क्रिया या हत्या कर उस फल की, फिर इंतजार करते हैं तिजारती कल की, चिंता करते हुए खुद की, बीबी बच्चों व आलीशान महल की, जी हां पेंड़ कभी नहीं जाते शहर और भेज देते हैं अपने जि...
भूतकाल का भूत
कविता

भूतकाल का भूत

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** भूतकाल के भूतों ने हमको बहुत सताया है, डरने के कारण अपने हिस्से ठेंगा आया है, आभासी कच्चे चिट्ठों पर आज भी करते भरोसा है, टूटता रहता यकीं अपना मिलता केवल धोखा है, किसी के लिए धंधा ये सब पर हमने बहुत गंवाया है, डर डर सब लुटाया हमने कोई थैली भर भर पाया है, भूतकाल के भूतों का शौक देखो मचल गया, देखने का भाव अब ऊंची नीची जाति में बदल गया, तब के समय के सारे नियम अब भी देखो लागू है, अश्पृश्यता, हिंसा, लिंचिंग करके ये बन जाते साधु है, अब भी मन में मैल भरा जिसे नहीं ये धोते हैं, आगे निकल गया दमित तो खून के आंसू रोते हैं, सदनीयत से जब भी कोई संविधान लागू कराएगा, भूतकाल का भूत फिर तो सरपट भागा जाएगा। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमा...