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Tag: महिमा शुक्ल

धोखा
लघुकथा

धोखा

महिमा शुक्ल इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** रमा और राज साथ ही पढ़ते थे, रमा उसकी लच्छेदार बातों पर खूब हँसती जल्द ही बीस साला प्यार के गिरफ्त में आ गए दोनों। कस्मे-वादों की फेहरिस्त भी बना ली दोनों ने। रमा ने उसे अपना सब कुछ मान लिया, राज पर ऐतबार उसे इतना कि एक दिन घर से चुपचाप उसके साथ चल दी, सब कुछ छोड़-छाड़ कर अपना अशियाना सजाने के लिए। प्यार में डूबे दोनों ने रजत के एक दोस्त के यहॉँ पनाह ली। सपनों में खोयी रमा को अपना घर बनाने की तमन्ना थी, दो दिन बाद ही रमा बोली अब आगे? चलें कहीं और? नौकरी करनी होगी वरना कैसे चलेगा काम? रजत ने लापरवाही से कहा क्या जल्दी है? अभी आराम से रहो रमा ने फिर पूछा "पैसे कहाँ से आएंगे जो मैं लायी थी वो ख़त्म हो गए" अब रजत झटके से तुरंत बोला ये है ना सुरेश ये देगा। रमा को शंका होने लगी अरे तो चुकाओगे कैसे? रजत ने धीरे से कहा...
कोहरे में  चाँद
कविता

कोहरे में चाँद

महिमा शुक्ल इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** चाँद अब कम ही दिखता है. और देर से भी निकलता है सीमेंट के बढ़ते जंगल हैँ. फिर भी बात जोटते हर पल हैँ.. ना तू आता दिखायी देता है है.. आसमान भी अकेला बैठा है बदली से झाँक ले ऐ चाँद.! बेचैन चांदनी तेरी राह तके है. हो तुम दूर पर पास ही लगते हो। रोज़ आते हो आज क्यों छुपते हो? ढूँढते है तुम्हें धुंधले आसमान में एक नज़र तो मिलाओ इन नज़रों से कल करा लेना फिर इंतज़ार आज है ज़मीं भी है बेक़रार ये "चाँद" चाँद को पुकारे है आ मिलो तुम भी मेरे चाँद से. परिचय :- महिमा शुक्ल निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ...
अंतिम साँस
लघुकथा

अंतिम साँस

महिमा शुक्ल इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** चौंच में तिनका दबाए नन्हीं गौरैय्या मुनिया ऐसे आशियाने की तलाश में थीए जहाँ वहाँ अपनी आने वाली सन्तति के लिए घोंसला बना सके तेज गर्मी में मुनिया का जी हलकान हो रहा था। पखेरू तक ना कोई हरा पेड़ दिख रहा था ना कोई पानी को जगह घने धुएँ व प्रदूषित हवा उसकी चेतना को क्षिण करने लगे, अर्ध मूर्च्छा में मुनिया अपनी माँ की नसीहत याद करने लगीए रे मुनिया जंगल और एसी शुद्ध हवा छोड़ के यहाँ वहाँ मत जाया कर। तू जी न सकेगी। पर कहा मुनिया ये सब मानती, नयी उम्र की तरंग और मन की उड़ान उसे दूर इस शहर में ले आए थे। कुछ दिन इस घर से घर ऊँची इमारतों की छत पर इतराती मुनिया सीमेंट के जंगल में ही रह गयी। सच में अब उसका जीवन दूभर हो गया। पूरी ताकत समेटती मुनिया पुनः माँ के पास लौटना चाह रही थी। तिल तिल छीजती मुनिया अर्द्ध मुर्छित होने लगी, प्रदूषित आबोहवा का जिम्...