Monday, December 23राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर आपका स्वागत है... अभी सम्पर्क करें ९८२७३६०३६०

Tag: मनीष कुमार सिहारे

मेरी मुस्कान हो तुम
कविता

मेरी मुस्कान हो तुम

मनीष कुमार सिहारे बालोद, (छत्तीसगढ़) ******************** पापा, मेरी मुस्कान हो तुम। मां मेरी धड़कन, तो मेरी जान हो तुम।। आसमानों को छूने की, अरमान हो तुम। रोटी कपड़ा और, मेरा मकान हो तुम।। चाह खिलौने की हुई, तो सारा दुकान हो तुम। हमारी प्यारी सी अंगने की, रोशन दान हो तुम।। पापा, मेरी जान मेरी मुस्कान हो तुम।। पापा, मेरी जान मेरी मुस्कान हो तुम।। मेरे हर एक दर्द का, इलाज़ हो तुम। दो शब्द की, एक बढ़ी क़िताब हो तुम।। दुखों को आंखों में रखने वाले, एक फ़िराक हो तुम। मुसीबतों में मिले, प्यारे से अल्फाज़ हो तुम।। मैं नन्हा सा परिंदा, तो सारा आसमान हो तुम। मां की चूड़ी बिंदिया, और सुहाग हो तुम।। अंधेरे में जल रहे, एक चिराग़ हो तुम। पापा, मेरी जान मेरी मुस्कान हो तुम।। पापा, मेरी जान मेरी मुस्कान हो तुम।। पापा, मेरी आन बान शान, और मेरा पहचान हो तुम। छो...
बचपन
कविता

बचपन

मनीष कुमार सिहारे बालोद, (छत्तीसगढ़) ******************** ना कुछ पाने का शौक था ना कुछ खोने का गम था बिना कपड़ा के तन था मिट्टी से सना बदन था मां के हाथों में डंडा कंचा से जेबें तन (तन्यता) था घर में सबका लाडला मै फिर भी मैं अतलंग था बालपन में ऐसे जैसे उड़े गगन पतंग था ना चिंता, ना फिकर किसी का ना खोया किसी में मन था कुछ ऐसा मेरा बचपन था कुछ ऐसा मेरा बचपन था ना कोई छल कपट ना मित्रों में फरेब था मित्रता की एक डोरी बगावत टोली समेत था विद्यालय की वेश भूषा मां पहनाएं शर्ट सफेद था वापसी की संध्या बेला वही शर्ट बलेक (धूल धूल) था मित्रों के साथ में दूर घर से मन मलंग था फिर मां की पूजा-आरती से लाल लाल बदन था कुछ ऐसा मेरा बचपन था कुछ ऐसा मेरा बचपन था ना थिरकते पांव जमीं पर ना थिरकते आसमान था मैं मां का लाडला इस बात का अभिमान था दौड़ धूप ऐसे जैसे बिल्कुल न...
कौन हूं मैं
कविता

कौन हूं मैं

मनीष कुमार सिहारे बालोद, (छत्तीसगढ़) ******************** प्रगटा जब यहां तो सारा, कायनात शून्य था। नेत्रों से दृश्य सब, मैं दृश्यों के तुल्य था।। नीकल जूंबा से चीख मेरे, कानो में धुन्न था। रंगीन कायनात भी, रंगों से अपुर्ण था।। मेरे पुर्व यहां सभी, नामों से भी बेनाम था। मै खड़ा था जहां, वो जगह भी अनजान था।। इस जग से वाकिफ क्या, मैं खुद से अनजान हूं।। मन मे ये सवाल है, की कौन हूं मैं कौन हूं। मन में ये सवाल है, की कौन हूं मैं कौन हूं। कण कण से बना मैं, ना आदि का संयोग हूं। हूं ना काव्य रस मैं, पर रस से परिपूर्ण हूं।। मुझी से ये जमाना है, जमाने से मैं ना हूं। मन में ये सवाल है, की कौन हूं मैं कौन हूं। कर्म मार -काट का, तो मैं एक क्षत्रिय हूं। वो ही ज्ञान बांट का, तो मैं एक ज्ञानिय हूं।। कर्मों से जानू मैं , ऐसा ना कर्मजान हूं। मुझी से सब बने यहां, मैं...
कलयुग का विनाश
कविता

कलयुग का विनाश

मनीष कुमार सिहारे बालोद, (छत्तीसगढ़) ******************** घोर दयनीय दशा देख, मन में उठा सवाल है। ये तांडवम महादेव का, या कलयुग का विनाश है।। बढ़ती महामारी है साथ, काबुल के जंगलों में आग है। अच्छे खासे फसल यहां, गजदलों का प्रहार है।। एक राष्ट्र अफगानिस्तान, आज तालिबानों का गुलाम है। ये कर्मफल है अपना, या ईश्वर की मायाजाल है। है दो देशों का झगड़ा, या तृतीय विश्व युद्ध का कगार है।। घोर दयनीय दशा देख, मन में उठा सवाल है। ये तांडवम महादेव का, या कलयुग का विनाश है।। सतयुग त्रेता द्वापर गए, बचा वो बस इतिहास है। पशु पक्षी अदृश्य हुए, संकट में कलयुग आज है।। बदल रहे ये प्रकृति भी , मौसम में भी बदलाव है। सावन में सुखा खार, और भादो में दरिया बाढ़ है।। लाखों लोग मारे गए, क्या और कब्र तैयार है। कर वाकिफ मुझे ऐ खुदा, क्यों इतना तू नाराज़ हैं।। प्रेम बंधन तूझसे है, ...
शिक्षक
कविता

शिक्षक

मनीष कुमार सिहारे बालोद, (छत्तीसगढ़) ******************** कबो ना हिंसा करन कहय ना शोषण को भरन कहय जो अय सच्ची बातें वाही हरदम ओही करन कहय कदै ना झुठी बात बताई सच्चाई की राह ले जायी मानो खुद वो नईयां होयी जो पथिक को दरिया पार करायी उस गुरु को मैं याद किया करता हूं पग बंदन मैं करता हूं पग बंदन मैं करता है बिन शिक्षक मनु जीवन नाही लागत है वो पशु समानी जो चर चारा वन से आये पशु मनु मे फर्क ना आयी शिक्षा बिन जीवन अधुरायी जबै शिक्षक मनु जीवन आये तबै सबै मे समझ ओ आये कि होनो संतब मिठू वाणी कि होनो ढोंगी अनुनायी उस गुरु को मैं याद किया करता हूं पग बंदन मैं करता हूं पग बंदन मैं करता हूं परिचय :-  मनीष कुमार सिहारे पिता : श्री झग्गर सिंह निवासी : पटेली, जिला बालोद, (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्व...
दीवाना हो गया
कविता

दीवाना हो गया

मनीष कुमार सिहारे बालोद, (छत्तीसगढ़) ******************** पंछी देखा सोंचा मन में कुछ तो ख्याल करुं इसे ही पुरी कविताओं में सोलह श्रृंगार करूं मन की कई सवालों के पिछे मैं खुद गुंथता चला जो था मन में बातें वो सारी मैं भुलता चला देख दिवाना हो गया मानो की मैं कान्हा बना पहली दफा जो देखी राधा बांवरा कान्हा हुआ नीले नीले चमक थी उसकी मानो गगन तर आयी हो गिरने को खुब बारिश घनघोर बिजली छायी हो कल तलक जो ख्वाब थे हकिकत में वैसा आ गया देख दिवाना हो गया देख दिवाना हो गया करूं क्या तारिफ उसकी शब्द भी फीकी लगे इस कारवां में फना़ हो जाने को मन मेरा मचलने लगे ढलती सुरज की रक्त किरण उसके वस्त्र पर पड़ने लगे नील वस्त्र धारण वो कन्या मोती सा चमकन लगे लगे आईने कपड़ों पे उसके तर-बदर अर्चि चलने लगे अचानक वो अर्चि आंखों के मेरे सामने कहीं खो गया जैसा सोंचा ना था वैसा संग म...
टूटे ख्वाब
कविता

टूटे ख्वाब

मनीष कुमार सिहारे बालोद, (छत्तीसगढ़) ******************** मां के डांट से रोते मैंने, बालक का आवाज लिखा है। टपक गेसुऐ नयनों से उसके, हाथों मे एक किताब लिखा है।। कि मैंने एक ख्वाब लिखा है, आंसुओं से भीगी एक किताब लिखा है । मानव के हरेक शीर्षक से, पुरे कर्मोकाज़ लिखा है।। लोग डरते हैं जहां तर जाने से, वही गहरे पानी का तालाब लिखा है।। सोंच से पहले डर को आगे, लोगों का नया इजाद लिखा है। खुद अंधेरे मे रहकर, प्रकाश के खिलाफ लिखा है।। कि मैंने एक ख्वाब लिखा है, आंसुओं से भीगी एक किताब लिखा है। कि मैंने एक ख्वाब लिखा है, आंसुओं से भीगी एक किताब लिखा है।। एक महल के राजा का मैंने, बदले का अभिशाप लिखा है। राजकुमार का राह निहारे, एक कन्या का घर मे साज लिखा है।। नई नवेली दुल्हन को मैंने, मां लक्ष्मी के दो पांव लिखा है। लगे तीर सीने में आकर, सीने में वो घाव लिखा है।। गिर...
एक अधूरा रिश्ता
कविता

एक अधूरा रिश्ता

मनीष कुमार सिहारे बालोद, (छत्तीसगढ़) ******************** ये सच है, हकिकत है, या कोई कहानी तो नहीं करते थे मिट्ठे बातें तुम, वो फरे बानी तो नहीं तेरे सजदे में कहते मैंने लाखों से सुना है क्या वो सच है, या झुठी जुबानी तो नहीं क्या खता थी मेरा जो तुम ऐसे कहर दें रहे हो ना कुबुली थी तो ना कुबुली कह देते हाँ क्यों कह गए हो अब क्या कहूं जाकर उनसे होंठों पे ख़ुशी जो छायी है क्या छिन लेगा वो सारी खुशियां बदनामी की कहर जो आयी है ईश्वर का खेल बड़ा निराला क्यों होता है जो बाहर से हंसता है वो अंदर ही अंदर क्यों रोता है इस कदर है स्थिति हमारी किससे मैं ये बयां करुं कर गई जो घर इस दिल में कैसे उसको विदा करुं मैं तो मैं था अपनों की सोची होती बचपन से पाला जिसने कुछ तो रहम की होती क्या खता रही उन बेबस नादानो की जो तुम ऐसे कहर दें रहे हो ना कुबुली थी तो ना कुबुली कह देत...
नजा़रा
कविता

नजा़रा

मनीष कुमार सिहारे बालोद, (छत्तीसगढ़) ******************** क्या दिलचस्प नजा़रा है, घर नदी के किनारा है। ढलती सुरज की रक्त किरण से, सारा घर उजियारा है।। मानो घर में दीप प्रज्जवलित, उस सा घर चमकाया है। तट पर बैठे पथिक के मन में, छोटा-सा मुस्कारा है।। मानो उस मुस्कान के पाछे, ये सारा का सारा नज़ारा है। क्या दिलचस्प नजा़रा है, क्या दिलचस्प नजा़रा है।। पंछी सुर में तान भर रही, नदिया छन छन छपक चल रही। दो हंसो का जोड़ा संग में, ऊंचे गगन में तान भर रही।। देख जुगल दो हंसो को, मन में ख्वाबों का छाया है। बीती पल वो याद आ रही, जो पंथि संग गुजारा है। क्या दिलचस्प नजा़रा है, क्या दिलचस्प नजा़रा है।। हरीयाली ना पुछो यहां की, हर एक प्यारा प्यारा है। सुगंध युक्त पवमान यहां की, पल पल बहनें वाला है।। आओ तुम भी सांथ मे मेरे, तर जाये इस दरिया पे। सुन्दर जग की रचना करके, र...