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Tag: मंजू लोढ़ा

बारिश
कविता

बारिश

मंजू लोढ़ा परेल मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** सभी के अपनी-अपनी, पसंद के मौसम होते हैं, किसी को गर्मी तो किसी को सर्दी भाती है, लेकिन बारिश का मौसम हर दिल, अजीज होता है। इंसान-धरती-नदियां-आकाश सभी इस, रुत की प्रतिक्षा दामन फैलाए करते हैं। घुमड़-घुमड़ कर जब बादल गरजते हैं, दामिनी चमकती हैं, बिजली कड़कती हैं, घनघोर घटाएं छा जाती हैं, बरस-बरस कर धरती के हृदय को, तृप्त करती है, मोर नाच उठते हैं, पपीहे की पिहू-पिहू की पुकार से, वातावरण गूंज उठता हैं। पग-पग हरियाली बिछने लगती हैं, घर आंगन ताल-तलैया-सम्पूर्ण प्रकृति, बूंदो की थाप पर, मानो नृत्य करने लगती है। पहली बारिश की बूंदो से, माटी की सोंधी-सोंधी खुश्बू से, मन आंगन गुलजार होने लगते है, खुली बांहे आसमान की ओर मुंह उठाए, हम स्वागत करते हैं, ऋतुओं की रानी बरखा का, आओ आषाढ़, आओ बरखा तुम्हारा अभिनंदन है़। धरा के ...
मां सरस्वती के चरणों में वंदना
कविता, भजन

मां सरस्वती के चरणों में वंदना

मंजू लोढ़ा परेल मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** देखो वसंत पंचमी का शुभ दिन आया, मां सरस्वती के अवतरण का मंगल दिन आया, सफेद वस्त्रों में सुसज्जित मुख पर असीम शांति, होठों पर मीठी मुस्कान, आंखों से छलक रहा स्नेह का निर्झर, कितनी सुंदर मेरी मां है भारती-वागेश्वरी। हाथों में है तेरे वीणा, सुरों की तु सुरीली देवी, तुझसे ही है सारा संगीत, राग-रागनियाँ और मधुर लहरियाँ, कितनी मीठी शहद सी तेरी वाणी, मेरी मां है वीणापाणी। हंस पर तु विराजित, मोतियों सी तु दमकती, तेरे चेहरे पर छलकता नूर कर देता मन का सारा संताप दूर, हर लो हमारा अज्ञान, दे दो हमें ज्ञान मेरी मां है हंसवाहिनी। तु बह्मा पुत्री-वेदों की अधिकारी, शब्द-शब्द में तु समायी, मां से शुरू हुआ संसार, तुझसे ही पाया अक्षर अंक का ज्ञान, दे दो हमें वरदान, बना लो अपना अधिकारी -वारिस मेरी मां हे शारदे...
कभी तुम चुप रहो
कविता

कभी तुम चुप रहो

मंजू लोढ़ा परेल मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** कभी तुम चुप रहो, कभी मैं चुप रहूँ, कभी हम चुप रहें खामोशियों को करने दो बातें, यह खामोशियाँ भी बहुत कुछ कह जाती हैं, जो हम कह न सकें वह भी कह जाती हैं। कभी तुम ... आओ आज युंही बैठे एक-दुजे की आंखो में डुबे उस प्यार को महसुस करे जो जुंबा पर कभी आया ही नहीं। कभी तुम चुप ... आओ हम तुम नदी किनारे हाथों में हाथ दे चहलकदमी करें मुद्दतों से जो सोया था एहसास उसे तपिश की गर्माहट को महसुस करें। कभी तुम चुप ... आओ आज छेडे, ऐसा कोई तराना जो धडकनों में बस जाये बिन गाये, बिन गुनगुनाये संगीत की लहरियों में हम डुब जाये। कभी तुम चुप ... चुप रहना कोई सजा नहीं चुप रहना एक कला है, जो बिना कहें सब कुछ कह जायें वह प्यार तो पूजा है। कभी तुम चुप रहो कभी मैं चुप रहूँ कभी हम चुप रहें....। परिचय :- मंजू लोढ़ा...
खुशी से मिली नई खुशी
संस्मरण

खुशी से मिली नई खुशी

मंजू लोढ़ा परेल मुंबई (महाराष्ट्र) ********************  घटना अप्रैल २०१९ की है मुंबई के अपर वर्ली इलाके मे स्थित आवासीय इमारत लोढा वर्ल्ड टॉवर्स मे जैनों के बारहवें तीर्थंकर, भगवान वासूपुज्य स्वामी के हमारे नए मंदिर का अंजनशलाका प्रतिष्ठा समारोह था, मंदिर में प्रभु की प्रतिमाओं का प्राण प्रतिष्ठा का समारोह था। यह चार दिवसीय कार्यक्रम बहुत धूमधाम से संपन्न हुआ। इस अंजन शलाका प्रतिष्ठा महोत्सव में होने वाले धार्मिक कार्यक्रम में मैं और मेरे पति मंगल प्रभात लोढ़ा जी ने परंपरा अनुसार प्रभु के माता-पिता का पात्र निभाया। हमारी बड़ी पोती यशवी उस प्रतिष्ठा समारोह में प्रियंवदा दासी का पात्र निभा रही थी। इसी दौरान यशवी से उसके दादाजी बोले- ‘यशवी, मैं और आपकी दादी प्रतिष्ठा महोत्सव में राजा रानी, प्रभु के माता-पिता का पात्र निभा रहे हैं, तो आप राजकुमारी यानी भगवान की बहन का पात्र निभा लो।" तो, उ...
कभी तुम चुप रहो
कविता

कभी तुम चुप रहो

मंजू लोढ़ा परेल मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** कभी तुम चुप रहो, कभी मैं चुप रहूँ, कभी हम चुप रहें खामोशियों को करने दो बातें, यह खामोशियाँ भी बहुत कुछ कह जाती हैं, जो हम कह न सकें वह भी कह जाती हैं। कभी तुम चुप रहो कभी मैं चुप रहूँ कभी हम चुप रहें‌। आओ आज युंही बैठे एक-दुजे की आंखो में डुबे उस प्यार को महसुस करे जो जुंबा पर कभी आया ही नहीं। कभी तुम चुप रहो कभी मैं चुप रहूँ कभी हम चुप रहें। आओ हम तुम नदी किनारे हाथों में हाथ दे चहलकदमी करें मुद्दतों से जो सोया था एहसास उसे तपिश की गर्माहट को महसुस करें। कभी तुम चुप रहो कभी मैं चुप रहूँ कभी हम चुप रहें। आओ आज छेडे, ऐसा कोई तराना जो धडकनों में बस जाये बिन गाये, बिन गुनगुनाये संगीत की लहरियों में हम डुब जाये। कभी तुम.... चुप रहना कोई सजा नहीं चुप रहना एक कला है, जो बिना कहें सब कुछ कह जायें ...
क्यूं नहीं आए सपने में
कविता

क्यूं नहीं आए सपने में

मंजू लोढ़ा परेल मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** मेरे लाड़ले भगवान, कल क्यूं नहीं आए मेरे सपने में... आते तो जीवन खिल जाता, मेरा सखा मुझको मिल जाता, मैं तरस गई तेरे दरशन को। बडा सुरम्य दृश्य था..., पवन थी ठंडी ठंडी सी, और मोगरे की गंध भी, चमक रही थी चांदनी, और रातरानी की सुगंध भी, केसर की कई क्यारीयां थी, शोभा भी वहां की न्यारी थी, झूला था, बगिया सलोनी थी, वहां बस बिटिया मैं तुम्हारी थी। आते ही तुमको झुला देती, मां बनकर लोरी सुना देती, चिंताए तुम्हारी हर लेती, खुद को भी धन्य मैं कर लेती। भटका इंसान जा रहा कहीं, कोई चिंता तुझको हैं कि नहीं, लेकिन तुझको अब भी है विश्वास, मानवता रहेगी जिंदा इसीलिए तेरे होठों पर शरारती मुस्कान है, ले रहा है परीक्षा अपने भक्तों की, पर हरदम उनके साथ हैं। क्यों नहीं आए कल सपने में... आते तो जीवन महक जाता, मेरे सखा, सपना मेरा ...
उसका नाम कला है
कहानी

उसका नाम कला है

मंजू लोढ़ा परेल मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** राजस्थान के एक छोटेसे गाव में उसका जन्म हुआ। पर उसके माता पिता ने निश्चय कर लिया कि, वह अपनी बेटी को कम से कम हाईस्कूल तक तो जरूर पढा़येंगे। बगल के गांव मे एक स्कूल था, माँ सुबह जल्दी उठकर, घर के सारे काम निपटाकर बच्ची को स्कूल लेकर जाने लगी। ज्यों-ज्यों कला बढी़ होती गई, नाम के अनुरूप, वह कई कार्यों मे दक्ष होती गयी। चित्रकारी, सिलाई, कशीदा, मेंहदी लगाना, रंगोली मांड़ना तथा साथ ही घर के कार्य में मां का हाथ बंटाने लगी। सुरत और सीरत दोनों ही सुंदर। और जब हाईस्कूल में दसवीं में वह पुरे स्कूल में अव्वल आयी तो अगल-बगल के गांवो तक उसकी चर्चा होने लगी। माँ-बाप को अब उसके विवाह की चिंता सताने लगी। कला आगे पढ़ना चाहती थी, पर गांव मे कॉलेज नहीं होने से उसे अपनी पढाई छोड़ देनी पडी़। पर उसे जहाँ से ज्ञान मिलता, वह उसे प्राप्त करती। जनवरी २०१६ ...
मैं एक नारी हूँ
कविता

मैं एक नारी हूँ

मंजू लोढ़ा परेल मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** मैं एक नारी हूँ। सदियों से अपनी परंपराओं को निभाया हैं, उसके बोझ को अकेले ढोया हैं, इस पुरूष प्रधान समाज ने हरदम हमको दौयम दर्जे पर रखा है, अपनी ताकत को हम पर आजमाया है। पर अब मुझे दुसरा दर्जा पसंद नहीं मैं अपनी शर्तों पर जीना चाहती हूँ। हक और सन्मान के साथ रहना चाहती हूँ। मेरी सहृदयता को मेरी कमजोरी मत समझो। मैं परिवार को न संभालती, बच्चों की परवरिश न करती, बुर्जुंगो की सेवा न करती, पति को स्नेहही प्रेम न देती, तो क्या यह समाज जिंदा रहता? मै कोमल हूँ, पर कमजोर नहीं, अगर कमजोर होती तो क्या यह नाजुक कंधे हल चला पाते? पहाड़ों की उतार-चढा़व पर काम कर पाते? घर और बाहर की दोनों दुनिया क्या यह संभाल पाते? मेरे त्याग को तुमने मेरी कमजोरी समझ लिया, घर-परिवार बचाने की भावना को मेरी मजबुरी समझ लिया। अगर नारी पुरूष के अहंम को न पोषती, तो पुरूष आ...
आशा की किरण
कविता

आशा की किरण

मंजू लोढ़ा परेल मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** हो घनघोर अंधियारी रात या हो गहरी अमावस की रात, एक नन्हा सा दिया आशा की किरण बनकर जगमगाता है. वह थी एक मुसलधार बारिश की रात, जब जेल की दीवारें, प्रकाशमान हो उठी, एक अद्भूत अलौकिक बालक श्रीकृष्ण का जन्म हुआ, आशा और विश्वास का एक सुरज जगमगाया. वह थी अमावस की रात जिसमें नन्ही-नन्ही दिपमालाओं ने पूनम की रात बना दिया, श्री राम का आगमन अयोध्या का घर-घर प्रकाशमान हो गया. वह थी अमावस की रात जब अहिंसा, क्षमा, अभय के प्रतिक, प्रभु महावीर का निर्वाण कल्याणक हुआ, ज्ञान, तप, त्याग की मूर्ति से हमारा विछोह हुआ, तब माटी के छोटे-छोटे दीपों ने ज्ञान की ज्योत को जलाये रखा। वह गौतम बुद्ध थे, जो यह संदेश दे गये, "अप्प दीपो भवः" अपना प्रकाश खुद बनो, चाहे कितनी भी हो गहरी घनघोर काली अमावस की रात, उसमें भी आशा की एक किरण मुस्कुराती है, जीने का नया हौसला देती...
आज छत पर
कविता

आज छत पर

मंजू लोढ़ा परेल मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** आज छत पर खडी़ थी आसमान की ओर छोर की तरफ देख रही थी, चारो तरफ रंग-बिरंगी पतंगे, हवा में उड़ रही थी, दूर-दूर तक आसमान की ओर पेंगे बढा़ रही थी, अडो़स-पडो़स की छतों पर लोग हर्षोल्लास से पतंगें उडा़ रहे थे, एक अद्भूत खुशी से उनके चेहरे चमक रहें थे, जो किसी और की पतंग को काट गिराता, उसका तो आनंद ही निराला था, पर कुछ पलों में उसकी स्वयं की पतंग कट जाती तो वह खिन्न-मायुस हो जाता, याने कुछ पल की खुशी, कुछ पल का दुःख, मैं सोच रही थी कितना बडा़ है आसमान, हर एक की अपनी पतंग, अपनी डोर, क्यों न सभी पतंगे अपनी डोर के सहारे आसमान में उड़ती जाये? क्यों काटे हम किसी ओर की पतंग? क्यों उसका उल्लास मनाये? हम काटेंगे फिर वह हमारी पतंग काटेगा, इससे क्या होगा लाभ कितना अच्छा हो सबकी पतंगे आसमान में ऊँची और ऊँची उड़ती जाये, सब शिखर पर पहुँचे, सबके मन में एक द...
मैं राष्ट्र प्रहरी हूँ
कविता

मैं राष्ट्र प्रहरी हूँ

मंजू लोढ़ा परेल मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** मैं राष्ट्र प्रहरी हूँ मरने से नहीं डरता...! सिर पर कफन बांधकर चलता हूँ युद्ध के मैदान में, सीना ताने दुश्मनों के छक्के छुड़ा देता हूँ...! न माइनस डिग्री की ठंड न भयंकर गर्मी मुझे परेशान करती है....! विचलित करती है तो घर से आई कोई चिट्ठी जिसमें पत्नी के आंसुओं में डूबे धुंधले शब्द , जब खत में उभरते हैं तो जज़्बातों पर क़ाबू करना मुश्किल सा लगने लगता है..! याद आ जाती हैं बच्चों की मासूम बातें , उनकी मासूम शरारतें , मानस पटल पर कौंध जाती हैं, मैं भी कैसा बेबस हूँ जो उन्हें पल-पल बढ़ते देख नहीं सकता बूढ़े माता-पिता की सेवा से वंचित होने का तो ख़याल आते ही रुलाई आ जाती है....! क्या-क्या याद करूँ! दिल को टीस देने वाली ऐसी कितनी ही बातें हैं....! हाँ, पर यह सोच .... अधिक वक्त तक क़ायम नहीं रहती, विचारों को झटक देता हूँ मातृभूमि को वंदन क...
श्याम बाँसुरी
कविता

श्याम बाँसुरी

मंजू लोढ़ा परेल मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** मुझे बाँसुरी बहुत पसंद है, यह मेरे श्याम का मनपसंद वाद्य है, जब भी बाँसुरी सुनती हूँ ब्रजधाम पहुँच जाती हूँ, ऐसा लगता है श्रीकृष्ण कहीं आसपास है, कानों में उनकी बासुंरी की मीठी-मधुर तान सुनाई देने लगती है, श्याम सलोने से एक अदभूत मुलाकात हो जाती है। आँखो के समक्ष उनका दैदीप्यमान-सुंदर-सलोना मुखडा़ दिखाई देने लगता है, कंदब के पेड़ तले पीताम्बर धारे, मोर पंख सजाये, वैजयंती को गले से लगाये, होठों पर बाँसुरी साथ में श्री राधारानी, चारों तरफ गोप गोपियाँ, ज्यों ही बाँसुरी बजने लगती, उसकी तान में खोकर, सभी सुध बुध बिखराकर झुमने लगते हैं, यमुना का पानी हिलोंरे लेने लगता हैं, पशु-पक्षी भी नृत्य करने लगते हैं, फुल-हवाएं सारा संसार स्तंभित हो जाता हैं, यह दृश्य आंखों के समक्ष साकार देखकर, मन अंदर से प्रफुल्लित हो उठता है, एक अजीब से स्वर्गगिक आन...
देखते ही देखते
कविता

देखते ही देखते

मंजू लोढ़ा परेल मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** देखते ही देखते वर्ष २०२० बीत गया और २०२१ में हम प्रवेश कर गए। युं तो कई साल आते हैं, गुजर जाते है कुछ यादों में मीठी सी कसक बन बस जाते है कुछ खट्टी इमली का स्वाद छोड़ जाते हैं। पर २०२० एक अलग अनुभव लेकर आया। विश्व कोरोना से संक्रमित हुआ। दुनिया सिमट गयी, लोग घरों में कैद हो गये, हवाएं भी जहरीली हो गयी, सब कुछ जैसे थम गया, मशीनी जिंदगी में ठहराव आ गया। पर यह कोरोना जीवन को एक नया संदेश दे गया, आपसी रिश्तों को महका गया, बिखरे परिवार में नये रंग भर गया। रिश्तो को एक नई आभा, नया रंग दे गया। आवश्यकताओं को सीमित कर गया, जीवन को एक नये मायने दे गया। एक ही धरातल पर सबको खड़ा कर गया। ईश्वर में भक्ति जगा गया, जरूरतमंदो की सहायता करना सीखा गया। कुदरत हमको बहुत बड़ी सीख दे गई। प्रकृति से मत उलझो, पर्यावरण को मत नष्ट करो, ईश्वर की बनाई दुनि...