खेली थी कभी होरी
बृजेश आनन्द राय
जौनपुर (उत्तर प्रदेश)
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तुम भी क्या याद रखोगी गोरी!
खेली थी कभी होरी ।
खेली खूब है होरी सखी री!
खेली खूब है होरी।।
बजने लगा जब मृदंग मजीर,
तुम घर में छुपी थी गोरी!
पर मनवा न माने,
प्रेम डोर खिचे ताने,
आयी विवश हुई तू चकोरी!
प्रिय से नजर मिलाते छुपाते
भागी थी गलियों में गोरी!
अंग अंग प्रस्वेद-प्रकम्पन,
लज्जा ने मारी पिचकारी
बन्द आंँख जब खोली तो देखी,
थी भीगी चुनरिया सारी...
खिसक गई तेरी सर से चुनरिया,
भीग गयी तेरी चोली।
खेली खूब है होरी सखी री,
खेली खूब है होरी।।
अंग-अंग में मस्ती छायी,
नशा था चितवन का
आंँखों से मारी पिचकारी,
रंग था यौवन का
भीगी पिया संग गोरी,
मले गालों से गालों पे रोरी
मन में प्रेम रस फूटा,
मुस्कुराई, दिया गारी
कैसे नखरे दिखाए,
कैसे करे सीनाजोरी
बोलो हे गोरी! बोलो हे गोरी!
बोलो हे गोरी!
खेली...