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Tag: प्रमोद गुप्त

षडयंत्र आतुर हैं
गीतिका

षडयंत्र आतुर हैं

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** जन संख्या की, जब यहाँ भरमार है ये महंगाई का मुद्दा तो सदाबहार है। जब चाहो विरोध कर सकते हो तुम कोई मौसम या फिर कोई सरकार है । दिखीं नहीं तुमको निन्यानवें अच्छाइयां मेरी ही एक गलती पर बस टकरार है। देश निगलना चाहते हैं, वह नास्ते में कहते हैं हमको भी तो इससे प्यार है । षडयंत्र आतुर हैं, आस्तित्व मिटाने को ये अपनी संस्कृति भी, बहुत लाचार है । अहिंसा के जाल की तासीर तो देखो इसे हम समझ बैठे कि शीतल बयार है । सबके सुख की, क्यों करें हम कामना जब दरिन्दों के, हर हाथ में तलवार है। तुम जो हमको, घाव देते जा रहे हो चुकायेंगे, ये तेरा हम पर जो उधार है । जब संघर्ष करना ही पड़ेगा, देर क्यों या फिर बता की मिटने को तैयार है । परिचय :- प्रमोद गुप्त निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) प...
राह अपनी बनाकर
गीतिका

राह अपनी बनाकर

प्रमोद गुप्त जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** सपन, हृदय में ज्यों-ज्यों पनपते गए- उधर रपटन न थी, पर फिसलते गए। अपनों को समझते हैं, अपना ही हम- परन्तु उनको सदां, हम तो खलते गए। यूँ सैकड़ों झाड़ियाँ, रोड़े आते हैं बहुत- हम राह अपनी बनाकर, निकलते गए। टांग खींचने वालों का, लगा मेला यहां- मंजिल पायी उन्होंने जो बस चढ़ते गए। यूँ मानवता- अहिंसा के पुजारी है हम- किन्तु नागों के फन, हम कुचलते गए। एक शातिर, थोड़ा मीठा बोले तो क्या- उसकी बातों से, क्यों हम पिघलते गए। निर्धारित नहीं लक्ष्य, ना दिशा ज्ञात है- हम एक नशेड़ी के जैसे ही चलते गए। संस्कृति- धर्म का कुछ, पता ना किया- हम यूँ बहकते-बहकते ही ढलते गए। स्वार्थ का झुनझुना, जब बजा सामने- तो हम पागल बने, और उछलते गए। कार-कोठी तक पहुँचे, वह किस तरह- राह जानी ही नहीं, केवल जलते गए। संघर्षों के बिना,...