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कटाक्ष, व्यथा और संकेत
कविता

कटाक्ष, व्यथा और संकेत

नारायण दोगाया राहड़कोट-खरगोन, (मध्य प्रदेश) ******************** देखो-देखो विकल मानव को प्राणवायु को तरसे जी, और विकट हो गई घटाएं अंबर दुख का बरसे जी... देव समझ बैठा खुद को ये विलासी मानव समुदाय, कुछ क्षण में ही देख लिया अपना स्तर है निरुपाय, स्वार्थ पूर्ति को प्रकृति में रेखाएं खींचे तुमने ही, अब क्या खट्टे क्या मीठे जो बोए, सीचे तुमने ही, हे! भारत के धीर वीर ना भटको लोभी माया में, परोपकार का भाव लिए बस चलो ईश्वर की छाया में, जो तुमने भाई¹ मारे है उन्हें बचालो अब एक बार, तर जाओगे जीवन से मां² रास्ता देख रही उस पार दुःख पीड़ा के दिन बीतेंगे सुखद समय भी आयेगा पतझड़ का मौसम निश्चित ही बरसती ऋतुएं लायेगा.... दो चार दिनों में फिर से आयेगा एक अभिराम, जब तक केवल नाम जपो जय घनश्याम, जय घनश्याम ।। {¹भाई~ प्राकृतिक संसाधनों के लिए} {²मां~ प्रकृति के लिए...