वो बंद कमरें
दुर्गादत्त पाण्डेय
वाराणसी
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(१)
जी हाँ! जेहन में आज भी
जीवित हैं, वो बंद कमरें
जहाँ दीवारों के कान,
इंसानों के कानों से ज्यादा
समर्थ हैं, सुनने में
वो ख़ामोश आवाज,
ह्रदय को विचलित
कर देने वाला
असहनीय शोर
इन यादों को आज भी
संजोये रखें हैं,
वो बंद कमरें
(२)
परिस्थितियों को अपने अनुकूल
मोड़ देने कि उम्मीद लिए,
आज भी वो लड़के खूब लड़ते हैं,
खुद से, इस समाज से अपने
वर्तमान से अपने वर्तमान के लिए
लेकिन इन हालातों को जब वो,
कुछ पल संभाल न पाते हैं
तो फिर इन लड़कों को,
संभालते हैं, वो बंद कमरें
(३)
दरअसल मैं एक बात स्पष्ट कर दूं
वो बंद कमरें, कोई साधारण कमरें नहीं हैं,
वो इस जीवन कि प्रयोगशाला हैं
जहाँ टूटने व बिखरने से लेकर
सम्भलने व संवरने तक के
अध्याय, इनमें समाहित हैं
(४)
मुझे संकोच नहीं हैं कहने में
वो बंद कमरें भी एक,
विश्वविद्यालय हैं...