बहन की डायरी
दीपक्रांति पांडेय
(रीवा मध्य प्रदेश)
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कैसे हो भैया ! मैं तुम्हारी छोटी सी, मोटी सी और शरारती बहन क्रांति, पहचानते हो ना मुझे? मैं वही क्रांति हूं जो आज से १४ वर्ष पूर्व तुम से लड़ती, झगड़ाती थी, तुम्हारे मजबूत कंधों में झूलती थी। आह! कितना मनोरम दृश्य था वह एक कंधे में मैं, दूसरे कंधे में कुंदन और तुम बीच में लोहे के मजबूत झूले की तरह तुम! हम दोनों को गोल मटोल घूमाते थे।
क्यों भैया तुम्हें थकान नहीं लगती थी....???
वह बचपन के समस्त आनंद तुम्हारे जाते ही खत्म हो गए, जीवन जैसे निरीह हो गया, घर अब घर नहीं लगता, वहां रहने की इच्छा नहीं पड़ती, घर सिर्फ एक रैन बसेरा हो गया है जहां सब कुछ पल के लिए आते हैं और चले जाते हैं। पता है अब घर में पिता जी, शुभम और कुंदन के अलावा कोई नहीं रहता। वह तीनों भी मजबूरी में रहते हैं उनका भी मन नहीं लगता होगा, लगे भी कैसे वहाँ अब मन लगने ल...