Thursday, November 21राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर आपका स्वागत है... अभी सम्पर्क करें ९८२७३६०३६०

Tag: डॉ. अर्चना मिश्रा

छटपटाती स्त्री
कविता

छटपटाती स्त्री

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** स्त्री बन सोचा क्या-क्या ना करूँगी उन सभी दक़ियानूसी सोच को दरकिनार करूँगी। बंद अन्धेरें कमरों में आहें मैं ना भरूँगी । लूटी हुई अस्मत का बोझ यूँ अकेले ना सहूँगी। रोज़ अपने स्वाभिमान को तिलांजलि दें, तुम्हें खुश मैं ना करूँगी। हर जगह त्याग की मूर्ति मैं ना बनूँगी। अश्लील बातें और बेवजह के तानों को कानो में ना पड़ने दूँगी। कहीं झुरमुट के किनारे फटें गले चीथड़ों में मैं ना मिलूँगी। विभत्स नंगा नाच जो हो रहा समाज में, मैं इसका हिस्सा ना बनूँगी। बचपन से यही सोचती आई पर हक़ीक़त कुछ और ही नज़र आयी। यूहीं ज़बरदस्ती धकेला गया मुझे भी इस मूक बधिर समाज में। जैसे मेरे अंदर प्राण ना होकर कोई सामान हो । कुत्सित विचारों और कुत्सित सोच का ही परिणाम हूँ। हाँ इसीलिए मैं परेशान हूँ मेरे अंदर भी जलता हुआ एक श्मशान है, रोज़ ह...
मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ
कविता

मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ जहाँ सिर्फ़ आरोप और आरोप सिर्फ़ और सिर्फ़ इल्ज़ाम स्त्री मन क्या चाहता है कोई परवाह नहीं कोई इतना भी बुरा कैसे हो सकता है कोई पास फटके ही ना सिर्फ़ और सिर्फ़ आरोप दिमाग़ जैसे फट के कई टुकड़ों में विभाजित हो गया क्या क्या उम्मीद उस से सब बेकार जैसे वो सिर्फ़ एक सड़ी हुई बीमार लाश सिर्फ़ बदबूदार इतनी सड़न की जहाँ जायें सब जगह बीमारी फैला आयें वो इतनी बेबस है आज सबके हाथ में ज़ुबान रूपी पत्थर कैसे-कैसे कहाँ-कहाँ फेकें सबने खून के रिश्तें भी बेकार किसी को नहीं वो स्वीकार ऐसे में कहाँ वो जाएँ कहाँ अपना सिर छुपाये सबके लिए अब वो बेकार नहीं किसी को वो स्वीकार कोई तो, कहीं नहीं किसी का नामोनिशान जिसे वो हो एक प्रतिशत भी स्वीकार मरी हुई लाश सी पड़ी है, बदबू ही बदबू, कटे फटे अंग जमा हुआ...
काश ये भी गुलाबी हो जाएँ
कविता

काश ये भी गुलाबी हो जाएँ

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** सिर्फ़ मेरे जिस्म को रंगीन करना चाहते हों, होली जी भर मेरे संग खेलना चाहते हो, क्या कोई ऐसी भी क़वायद हैं भला जिसमें मेरी रूह भी रंग जाये। मेरी स्वाँसों में फिर से जान आ जायें, सिर्फ़ मिठास मुँह तक ही ना रहें मेरी रूह में भी चासनी घुल जायें। मन के आँगन में वर्षों से ये जो काले सायें घेरें हैं, काश ये भी गुलाबी हों जायें। मेरा रोम रोम भीग जायें, सभी राग द्वेष काश मिट जायें तुम भी वैसे ही समर्पित हो पाओं जैसा मैं चाहती हूँ, सिर्फ़ बदलने की चेष्टा लेके ना आना, कुछ तुम भी बदल कर आना, मेरें अन्तर्मन को झंकृत कर जाना, बड़ी सुनसान हैं ये गलियाँ मेरी कुछ मधुर तान सुना जाना, काश की तुम ऐसा कर पाओं, जो कर पाना तभी आना, फिर जी भर खेलूँगी में भी होली, अपने सपनों की होली, मेरा रोम रोम पुलकित होगा श्री राधा जी जैसा रास अपना भी होग...
महामानव
आलेख

महामानव

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** शान्तमय वातावरण भी कितना भयावह लगने लगता है, जब किसी के पास बोलने को कुछ भी ना बचे, सोचने समझने की शक्ति जैसे जड़ हो जायें, क्या ऐसा भी जीवन में कुछ घटित हो सकता हैं, निःशब्दता वास्तव में इतना भयावह माहौल क्यूँ बना देती हैं, की बस उठो और ज़ाओ कहीं बाहर। पूरे दिन के कोलाहल के बाद कुछ घंटों का मौन खलने लगता हैं, ना ख़ुशी ख़ुशी ही रहती हैं, ना ग़म ग़मगीन ही करता हैं, सिर्फ़ टकटकी लगा के एक शून्य हुए को शून्य होकर निर्बाधता से देखे जाना कहाँ तक सही हैं। दूसरे के अंतर्मन की पीड़ा का अनुमान चंद लम्हे उसके साथ बैठकर नहीं लगाया जा सकता, जब तक आप स्वयं उसी पीड़ा से ना गुजरे हों। पीड़ा के भी रूप अनेकानेक हैं, मैं ये कह ही नहीं सकती की किसको कितना अधिक सहना पड़ा होगा, ना ही कोई बराबरी हैं किसी के दर्द की, बस एक आर्तनाद हैं ज़ो निरंतर प्रवाहमान हैं, स...
स्वागत गान
गीत

स्वागत गान

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** ये साल, ये पल फिर बीतने वाला हैं नववर्ष नव आग़ाज़ करने वाला हैं क़ही मुक्कमल मुलाक़ातें होगी, तो कहीं ढेरों बातें होंगी, कहीं तन्हाई की बस्ती भी होगी, कहीं ग्रहों की चाल भी बदलेगी, देश दुनिया में अलग ही धूम होगी, नए रिश्तें भी बनेगे तो कई अपने भी छूटेंगे, इन सब से दूर कुछ विरक्त लोगों के लिए सिर्फ़ कैलेंडर ही बदलेगा, ये साल कुछ ख़ास होगा जिसका था इंतज़ार वही काम होगा कुछ रंग भरूँगी अपनी कल्पनाओं में ज़्यादा कुछ उड़ान लम्बी होगी, मानसिक शांति मनोकूल होंगी, हृदय की पीड़ा शायद लम्बी होंगी सोच को नया मुक़ाम मिलेगा अपनी भी बुलंदियों में एक नाम होगा नववर्ष सिर्फ़ मेरे लिए मात्र कैलेंडर बदलना नहीं अपने भीतर अनंत जिजीविषा भरकर एक हुंकार भरूँगी मरी हुई आत्मा को फिर से जीवित करूँगी, नूतन नववर्ष का अभिनंदन कर...
करवाचौथ का चाँद
स्तुति

करवाचौथ का चाँद

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** यूँ तो तुम रोज़ मेरी मुँडेर पर आकर दस्तक देते हो रोज़ तुमसे ढेरों बातें भी होती हैं। पर आज की बात कुछ ख़ास है आज मेरा भी रंग तुम्हारे जैसा दमका है तुम्हारी शुभ्रता में खो जाने को जी चाहता है आज तुम्हारा इंतज़ार कुछ ख़ास है आज तुम मेरे प्रियतम सखा नहीं हो आज तुम चंद्र देव हो जिनसे मैं ढेरों, दुआएँ और आशीर्वाद चाहती हूं, अपने जीवन में आ रही सारी परेशानियों का जवाब चाहती हूँ जोड़ा मेरा अमर रहे, ऐसा आशीर्वचन बेहिसाब चाहती हूँ तुम्हारी शीतलता में खुद भी शीतल होना चाहती हूँ आज पिय के संग तुम्हारा दीदार करूँगी हाथ जोड़, पुष्प अर्पित कर आज तुम्हें प्रसन करूँगी। जन्मो जन्मांतर रहे पिय का साथ ऐसा वचन चाहती हूँ रूप रंग दमके, फूलवारी रहे सलामत मेरी चेहरे पर ना आने पाए धूमिलता ऐसा प्रतिदिन चाहती हूँ। ये जो करवाचौथ...
स्वर्ण मृग आज भी सत्य
आलेख

स्वर्ण मृग आज भी सत्य

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** स्वर्ण मृग वस्तुतः एक छलावा ही तो हैं, जो की आज भी प्रासंगिक हैं, वास्तविकता की आज कोई दरकार ही नहीं हैं, सब कुछ बाहरी आकर्षण ही हैं ओर आकर्षण भी ऐसा की इससे अछूता कोई रह ही नहीं सकता। सुबह से शाम तक कोई ना कोई किसी ना किसी को छल ही रहा हैं बातों में मिश्री घोल सुंदर सा लबादा ओढ़कर सिर्फ़ ठगा ही जा रहा हैं। यूँही ज़िंदगी कई बार बेवजह के इम्तिहान लेती हें। टूटे हुए शाख़, दरख़्त भी कई बार मिलकर एक मुकम्मल जहां बना लेते हें। ज़िंदगी की राहों में ऐसे मुक़ाम आना भी लाज़मी हें वरना अपनी रूह से मुलाक़ात ही कहाँ हो पाती हें। कई बार आदतन या कई बार मजबूरी से हमें अपना माँझी दिख नहीं पाता ओर नतीजन हम रास्ता भटक ही जाते हैं। यह भटकाव ज़रूरी नहीं कि हमें गर्त की ओर ही ले जाए कई बार इसके नतीजे क्रांतिकारी भी होते हैं। जैसे कि महात्मा बुद्ध को ही ले ...
हिंदी भाषा
कविता

हिंदी भाषा

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** हिंद देश के वासी हम चलो इसका मान बढ़ाएं हिंदी को सब लोग मिलकर क्यों ना जन-जन तक पहुंचाएं हो सर्व सुलभ हिंदी ऐसी साहित्य का ज्ञान बढ़ाएँ सब को हिंदी से प्रेम हो कुछ ऐसा करके दिखाएं दिन प्रतिदिन कुछ ना कुछ लोगों को जगाएँ हिंद के प्रति समर्पित कुछ कविताएँ, गीत, नाटक, सबको पढ़ाएँ। राष्ट्रकवि से लेकर सब कवियों की गाथा सुनाएँ । क्या रहा इतिहास इसका चलो सबको बताएँ॥ हो जयशंकर प्रसाद या प्रेमचंद, मीरा हो या रसखान हो हो कबीर चाहे, सूरदास जायसी हों या मैथिलीशरण गुप्त हो राष्ट्रवाद की भावना सबमें प्रबल रही सभी को प्रेम हिंदुस्तान से सभी की आन बान जुड़ी हिंदी से ही थी फिर से अब स्वर बुलंद होगा हिंदी का परचम घर-घर लहरेगा पढों-पढों पढ़ना ज़रूरी हैं लिखों-लिखों लिखना भी सबसे ज़्यादा ज़रूरी हैं ॥ यही नारे गूंजेंगे दिन रात ह...
अग्निपथ
कविता

अग्निपथ

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** आज का ज़वान हुआ हैं बड़ा ही लाचार। सभ्यताओं ओर सरकारों के बीच झूला झूल रहा। निज मनुष्यता का सीना चीर रहा। इस नर विभीषिका का कौन हें ज़िम्मेदार। चारों ओर हैं दहशत छाई जाने अब क्या होगा आगे भाई। दशा ओर दिशा का बोध कराना होगा। सबको संज्ञान में आना होगा॥ आज का युवक वर्तमान ओर भविष्य के बीच हुआ लाचार। राष्ट्र बोध कराना होग़ा, अपनों का महत्व समझाना होग़ा॥ दंगाईयों ओर उपद्रियों को सबक़ सिखाना होगा। सबका हो कल्याण कुछ ऐसा कर दिखाना होगा। ख़ुशहाली छाएँ चहुँ और, अपनत्व बढ़े पुरजौर, कुछ ऐसा बिगुल बजाना होगा, फिर से राष्ट्रवाद का गाना गाना होगा। भटके हुए क़ो सही रास्ता दिखाना होग़ा। परिचय :-  डॉ. अर्चना मिश्रा निवासी : दिल्ली प्रकाशित रचनाएँ : अमर उजाला काव्य व साहित्य कुंज में रचनाएँ प्रकाशित। आपका रुझान आरम्भ से ही ...
मेरे प्यारे पापा
कविता

मेरे प्यारे पापा

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** एक अनंत अंतहीन यात्रा पर निकले छोड़ गए पूरा संसार। माँ की आँखे हे अश्रूपूरित, भैया करें गुहार। पापा तुम बिन पग कैसे रखूँ, जीवन नैय्या बहुत कठिन। स्मृतियों में हे चित्र अंकित, पर वास्तविकता में कहीं नहीं। पग-पग जिसने होसला बढ़ाया, दी हरदम ही सींख। आँखे मेरी हरदम भीगी, करती रहती एक ही मनुहार। जो होते तुम पापा, यूँ ना बिखरता माँ का संसार। कदम कदम मुझको ज़रूरत अब कौन करायेगा नैय्या पार। जीवन की राह बहुत कठिन इन संघर्षों में कौन थामेगा मेरा हाथ। करती रहती थी शैतानी, बात कभी भी ना मानी। अब बहुत याद आते हो पापा, अब किसको बोलूँ में पापा, लौट के आ जाओ ना पापा। पापा तुम हो गए छोड़ के अपना संसार, जीवन जैसे थम ही गया है, नहीं होता अब रक्त संचार। मन बहुत व्यथित है, करुणा करता बारमबार। पापा ही तो सब कुछ थे, पापा ही थे ...
समर्पण
कविता

समर्पण

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** थी कोमलांगी बन कर आइ प्रेम की अभिमूरत सींचा पूरे घर को बड़े प्रेम से मेने हृदयपटल पर वास तुम्हारा अब क्या मांगू रब से छूटा मायका, छूटे सपने तेरे साथ चले जब छोड़ कर हम अपने पग पग प्रीत निभाऊँ में प्रेम की अविरल धार बहाऊँ में निस्वार्थ भाव से साथ निभाऊ करूँ ना कामना कुछ भी संग में तेरे खुश हो जाऊँ संग में तेरे दुःख मनाऊँ भूल गई अपने को में तो जबसे तेरे रंग में रंगी पिया कदम कदम पर दी क़ुर्बानी बात तेरी हरदम मानी कितनो को नाराज़ किया साथ तेरा जब से किया निश्छल हे प्रेम मेरा आगे ही बढ़ती जाऊँगी प्रेम की अमृत वर्षा से घर अपना स्वर्ग बनाऊँगी पग-पग राह में तेरे पुष्प बिछाऊँ में काँटों से कँटीली भरे जहान में धंसती जाऊँ में भूल गई सपने अपने भूल गई खुद को ही में तुझको अपने में ही एकाकार किया प्रेम में बाती बन कर म...
पर्यावरण दिवस
आलेख

पर्यावरण दिवस

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** हम चारों तरफ से आवरण से घिरे रहते हैं उस प्राकृतिक तत्व को पर्यावरण कहा जाता है। यह प्राकृति तत्व ही जीवन की संभावना का निर्माण करता है। इसमें हवा, पानी, धरती, आकाश, प्रकाश, पेड़, पशु, पक्षी सभी सम्मिलित हो जाते हैं। पृथ्वी एक मात्र ऐसा ग्रह है जिस पर जीवन की संभावना है और इसी जीवन के अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए पर्यावरण अति आवश्यक हो जाता है। प्रत्येक वर्ष ५ जून को पूरा विश्व पर्यावरण दिवस मनाता है। यह पर्यावरण के संरक्षण हेतु एक अभियान है। पर्यावरण दिवस के अवसर पर पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाले तत्वों को रोकने का संकल्प लिया जाता है। पर्यावरण दिवस मनाने की शुरुआत इस उद्देश्य के साथ की गई थी कि वातावरण की स्थितियों पर इस दौरान ध्यान केंद्रित किया जा सकेगा और भविष्य में भी पृथ्वी पर सुरक्षित जीवन की सुनिश्चित किया जा सकेगा...