डर फिर से लोक डाउन का
डाॅ. राज सेन
भीलवाड़ा (राजस्थान)
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कैसे सो जाऎं साहब
हम निश्चिंत होकर सुकून से
क्या बताऎं किस दौर से
गुजर रही हैं जिन्दगी हमारी
रोज तड़के इस आस में
पहुँच जाते हैं चौराहे पर
नुमाइश करते हैं
दिखते तन और अदृश्य मन की
पर कहाँ आता हम सबके
हिस्से में रोज काम
कल के लिए आस लगाकर
बैठजाते हैं दोपहर बाद
किसी छाँव तले
चाय शाय के लिए
हम में से कुछ जोखिमदार
अपनी गाढ़ी पूँजी से
एक थड़ी या फिर
थैला चलाते हैं
जानते है अभी परिस्थितियों के
प्रश्न सामने आ रहे हैं
और शायद हमें लगता है
अक्सर हम कम पढ़े लिखे
या अनपढों के सामने
हम कामगार मजदूरों के सामने
जिन्दगी कठिन प्रश्न ही
लाती हैं बिना किसी
सामयिक नियम का
पालन किये
और अक्सर रोजी रोटी
का प्रश्न तो छूट ही जाता है
बहुत कोशिश के बाद भी
हम इसका जवाब
लिख ही नहीं पाते
फिर भी पाठ्यक्रम से
बाहर के प्रश्न भी ले आती है
जिन्दगी जाने क्यों
और लोक डाउन ...