वो जमाना
सुधीर श्रीवास्तव
बड़गाँव, गोण्डा, (उत्तर प्रदेश)
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छंद मुक्त कविता
आज जब अपने
पिताजी की
उस जमाने की
बातें याद आती हैं,
तो सिर शर्म से
झुक जाता है।
माँ बाप और
अपने बड़ों से
आँख मिलाने में ही
डर लगता था,
उनकी किसी
बात को
नकारने की बात
सोचना भी
सपना लगता था।
घर में भी
अपने बड़ों के
बराबर बैठना सिर्फ़
सोचना भर था,
अपने लिए कुछ
कहना भी
कहाँ हो पाता था।
बस चुपके से धीरे से
अपनी बात दादी,
बड़ी माँ या माँ से
कहकर भी
खिसकना पड़ता था।
रिश्तों के अनुरूप ही
सबका सम्मान था,
परंतु हर किसी के लिए
हर किसी के मन
खुद से ज्यादा प्यार था।
उस समय दूश्वारियां भी
आज से बहुत ज्यादा थीं,
परंतु प्यार, लगाव,
सबकी चिंता
हर किसी के ही मन में
हजार गुना ज्यादा थीं।
आज भी मुझे
इसका अहसास है
क्योंकि मैंने भी ऐसा ही
काफी कुछ देखा है,
अपने बाप को
बड़े ...