प्रतिशोध
सुधा गोयल
बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश)
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"तुमने कुछ सुना अम्बालिका"- हर्ष मिश्रित उत्साह के आवेग से अम्बिका का स्वर कांप रहा था। आज अम्बिका अपनी किसी दासी का सहारा बिना लिए ही धीरे-धीरे चलती हुई चुपचाप अम्बालिका के प्रकोष्ठ में आ गयी। सुखद आश्चर्य हुआ अम्बालिका को। जरुर कोई खास बात है तभी अम्बिका दौड़ी चली आई है। इस वृद्धावस्था में भी यौवन सा उत्साह भरा हुआ है। जैसे कोई चिरसंचित अभिलाषा पूरी हो गई है।
"आओ दीदी बैठो। ऐसा क्या सुन लिया आपने कि खुशी समाई नहीं पड़ रही। मुझे ही बुला लिया होता। "अम्बिका को पीठिका पर आदर से बैठाते हुए उसने एक नजर अपने कक्ष पर डाली। फिर स्वंय ही द्वार की अर्गलाएं चढ़ा दीं।
"इन्हें यों ही रहने दें अम्बालिका। आज हमारी बात किसी को सुनने की फुर्सत नहीं है। सब शोक मना रहे हैं।"
" हां,आज युद्ध का दसवां दिन है। यहां तो रोज ही शोक मनाये जाते हैं। इस ...