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Tag: श्रीमती विभा पांडेय

अधूरे होकर भी पूरे
कविता

अधूरे होकर भी पूरे

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** वे साथ रहें पूरक बन कर पर एक दूजे के पास नहीं। जीवन का अर्थ समेट चलते हैं साथ भी फिर भी साथ नहीं। वे साथ रहे पूरक बनकर ... चिंगारी भी है, समर्पण भी है एक दूजे को अर्पण भी, वो समांतर पथ पर चलते हैं बनकर एक-दूजे का दर्पण भी संकल्प लिए, श्रद्धानत हो, अर्धांग भी हैं और अंतर भी। वे साथ रहे पूरक बनकर ... जैसे हो किनारा और नदी जैसे हो चंदा और धरती जैसे हो खुशबू और पवन जैसे अंबर और तारांगण। चलते संग-संग शुभ यात्रा पर कहीं मिलन नहीं फिर भी संगम। वे साथ रहे पूरक बनकर ... एक दृष्टि में देखो एक ही हैं। एक दृष्टि से देखो अलग कहीं। जो अलग किया अस्तित्व नहीं फिर तो जीवन का अर्थ नहीं। सागर में विलीन होकर ही है सही मिलन का सुख और सार सही। वे साथ रहे पूरक बनकर ... परिचय :- श्रीमती विभा पांडेय शिक्...
माँ
कविता

माँ

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** सबने कहा माँ कि तू चली गई है, कभी ना लौटने के लिए। इस जहांँ से दूर उस दीनबंधु के पास तू चली गई है । पर मैं कैसे मान लूँ ? तू ही बता माँ इन बातों पर विश्वास मैं कैसे करूँ? जबकि मुझे पता है कि तू यहीं है। सामने जो तुमने पौधे लगाए थे, जो कभी तेरी ममता पाकर मुस्कुराए थे, वे अब लहलहा रहे हैं। जैसे तेरा स्नेहिल स्पर्श उन्हें आज भी मिल रहा है। फिर कैसे मान लूँ कि तू चली गई है? तेरे आँचल में जो स्नेह, दुलार और संस्कार मैंने भर-भर के पाए थे, मुझसे होते हुए वे बच्चों तक पहुंँच रहे हैं । तेरी दी हुई उन्हीं सीखों को अपनाकर वे पुष्पित, पल्लवित हो रहे हैं। ये सत्य दिख रहा हर पल मुझे। फिर कैसे स्वीकार लूँ कि तू चली गई है? मायके की हर एक दीवार को छूने से तेरे मृदुल स्पर्श का अहसास होता है। और वहा...
सर्दी की वो खिलखिलाती धूप
कविता

सर्दी की वो खिलखिलाती धूप

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** निश्चिंत रहो कि बहुत जल्दी ही बहती ये सर्द हवाएँ अपना रुख बदलेंगी। और सूनी-सूनी ये फिज़ाएँ फिर रंगों को ओढ़ लेंगी। क्योंकि समय सदा एक -सा नहीं रहता, बदलता ही है। और समय के गर्द से ढँके आइनों में बीते पलों का चित्र उभरता ही हैं। जिनमें कुछ चित्र दुख देते हैं पर कुछ ऐसे सुकून देते हैं जैसे, सर्दी में खिलने वाली धूप । जिनके आते ही ये सर्द हवाएँ हो जाती हैं मन के अनुरूप। तो बस इंतजार करो उस निहाल करने वाली सर्दी की धूप का। जिसकी गरमाई जीवन को सुख से भर देती है। और कानों में हौले से कहती है कि आखिर ये सर्द हवाएँ कब तक बहेंगी। विस्मृति के दलदल में एक दिन ये भी तो ढहेंगी। परिचय :- श्रीमती विभा पांडेय शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी एवं अंग्रेजी), एम.एड. जन्म : २३ सितम्बर १९६८, वाराणसी निवासी : पुणे, (म...
देश की माटी चंदन-सी
कविता

देश की माटी चंदन-सी

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** गर वतन की बात है तो हम सदा तैयार हैं । देश की माटी है चंदन, उससे हमको प्यार हैं। दिल की बातें हम कहें क्या, क्यों बताएँ, क्यों ये है? हमको अपनी इस धरा से प्यार बेशुमार है। चाहे जितना सोच लो, तुम तौल कर बातें करो, पर वतन की बात आए तो न पल जाया करो। है यही कर्तव्य कि अपने वतन को दुलार दें। कर्ज़ है मिट्टी का हमपर, उस पर ये जाँ निसार है। आज हम जो चैन से बैठे हैं, बातें कर रहे और दूजों पर बड़े चुन-चुन के तंज कस रहे। ये न भूलो कि कई दीपक बुझे हैं राह में अपनी आज़ादी उन्हीं कुर्बानियों का सार है। ये है वीरों की धरा, सौभाग्य इसपर जन्में हम। छोड़ेंगे ना इसको जब तक है हमारे दम में दम। देश अपना, भूमि अपनी, इसकी हम संतान हैं, इसकी रक्षा में निछावर तन, मन, धन और प्राण है। परिचय :- श्रीमती विभा पांडेय शिक्...
फूल कहीं भी खिलें, महकते ही हैं।
कविता

फूल कहीं भी खिलें, महकते ही हैं।

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** हज़ार पाबंदियों में रख लो, चाहे बेड़ियों में जकड़ दो। खिलने के बाद रौंदने की चाह भी रख लो। मगर यह तो प्रकृति का नियम है, फूल कहीं भी खिलें, महकते ही हैं। सुबह की रोशनाई चुरा लो उनसे, शाम की हंँसी अँगड़ाइयाँ भी छुपा लो। रात की चांँदनी भी न बिखरने दो, लाख ताले लगा रख दो जलता दीप उसमें, पर दीप जले तो, उजाले होते ही हैं। जिंदगी कई इम्तहान लेती है। कभी हंँसाती है, तो कभी रुलाती है। कभी कई साथ देते, तो कई छोड़ते हैं, पर आदत है अपनी, सबको पुकारते हम आवाज़ लगाते ही है। इस राह में तुम साथ दो तो बहुत अच्छा। और गर चल दो, साथ ना दो, तो भी अच्छा। अकेले चलने की तो आदत है, हम रुकेंगे नहीं चाहे कैसा भी मौसम हो इन आँखों में जीत जाने के सपने हमेशा सजते ही हैं। परिचय :- श्रीमती विभा पांडेय शिक्षा : एम.ए. (हिन...
बारिश की बूँदें
कविता

बारिश की बूँदें

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** अक्सर कोई न कोई कहानी लेकर बरसती हैं। कभी आँखों में आँसू बन कभी भावनाओं के तूफान ले कभी तिरस्कार पाकर कभी क्रोध की अधिकता से आँखों से घुमड़-घुमड़ बरसती हैं। बारिश की ये बूँदें जब भी बरसती हैं कई जख़्म हरे कर जाती हैं। और कई बार आँखों के कोरों को भीगा कर आँसूओं का सैलाब लेकर पुराने मन के मैल को भी धो जाती हैं। बारिश की बूंदें हमेशा कोई न कोई कहानी लेकर ही बरसती हैं। परिचय :- श्रीमती विभा पांडेय शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी एवं अंग्रेजी), एम.एड. जन्म : २३ सितम्बर १९६८, वाराणसी निवासी : पुणे, (महाराष्ट्र) विशेष : डी.ए.वी. में अध्यापन के साथ साथ साहित्यिक रचनाधर्मिता में संलग्न हैं । घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। ...
क्षणिक आवेश
कविता

क्षणिक आवेश

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** क्षणिक आवेश था वह, मगर उस आवेश के कारण वर्षों से बनाए रिश्ते टूट गए। शब्द बाण से आहत हो संबंधों के पंछी घायल हो गए। शायद बचें, शायद न भी बच पाएँ। क्यों लोग आ जाते हैं क्षणिक आवेश के चक्कर में। क्यों बोलते हैं ऐसे शब्द चुन-चुन कर जो छेद डाले मन। क्या अहंकार रिश्तों से अधिक ऊपर होता है? शायद होता है। तभी तो उनके तरकस में इतने जहरीले तीर होते हैं। और बखूबी वे उन्हें चुन-चुन कर चलाते हैं। शायद रिश्तों को स्वाभाविक मृत्यु देना उन्हें गँवारा नहीं, वे उसे भी सड़ते-रिसते तड़प-तड़प कर मरते देखना चाहते हैं। तभी तो चुन-चुन कर आवेश में आकर मारक शब्द बाण चलाते हैं। परिचय :- श्रीमती विभा पांडेय शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी एवं अंग्रेजी), एम.एड. जन्म : २३ सितम्बर १९६८, वाराणसी निवासी : पुणे, (महाराष्ट्र) ...
अनंत प्यास जरूरी है।
कविता

अनंत प्यास जरूरी है।

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** हर दिन के बाद रात आती है सही है, पर रात हमेशा टिकती नहीं, जाती है। फिर प्रभात के साथ गुनगुनाता हुआ सूर्य अपनी लालिमा बिखेरता जीवन के लय में मगन खुशी के गीत गाता है। रे मन अंत से निराश न हों क्योंकि हर अंत के बाद नया आरंभ होता है। टूटते है स्वप्न, चुभती है काँस। गले में अटक-सी जाती है हारने की फाँस। पर हार से हारना नहीं झुकना नहीं, रुकना भी नहीं। रे मन हार से निराश न हो क्योंकि हर हार नई जीत का संदेश लाती है। नए जीवन के प्रस्फुटन के लिए विध्वंस जरूरी है। विरह के स्वाद को चखे बिना प्रीत होती कहाँ पूरी है? तो विध्वंस से डर कैसा? रे मन प्यास से व्याकुल न हो क्योंकि संपूर्ण तृप्ति के लिए अनंत प्यास जरूरी है। परिचय :- श्रीमती विभा पांडेय शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी एवं अंग्रेजी), एम.एड...
धूल की कहानी
कविता

धूल की कहानी

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** मैं धूल हूँ, तिरस्कृत रहती हूँ। लोगों की आँखों में बड़ी चुभती हूँ। जहाँ पड़ी, झाड़ दी जाती हूँ। या मुँह पर मार दी जाती हूँ। मेरे रहने पर लोग पास नहीं फटकते। मुझसे भरे घर, सबकी आँखों में खटकते। ये मानव, अबोध शिशु से सारे कहाँ जानते मेरा महत्व। पेड़-पौधे, फल-फूल ओढ़ते-बिछाते उन पर प्यार लुटाते। पर जन्मदात्री को ही भूल जाते। वो देखो, मैं ही तो हूँ पैरों के नीचे पानी से लिपटी। ये मेरी ही संतानें हैं जो तुम्हें भी और तुम्हारे घर को भी सजाती हैं और तुम्हें जीवन देतीं हैं। और तुम विधाता के सबसे बुद्धिमान रचना मानव एक-दूसरे से ही लड़ते हो और मेरा तिरस्कार करते हो। पर मेरा तिरस्कार करने वालों देखो तो सही मैं कहाँ और तुम कहाँ ! मैं ईश के चरणों में भी हूँ और उनके शीश पर भी। वीरों के माथे प...
मेरे दो शब्द
कविता

मेरे दो शब्द

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** एक मंच, सबके विश्वास का प्रतीक एक मंच, जहांँ मिलती कुुछ सीख, अगर आपके अंदर खूबी है तो लिखो, हम आपकी रचना को सदा करेेंगे प्रकाशित। यह मंच टिका भरोसेे की बुनियाद पर, और रचता लीक से हटकर अपनी एक नई लीक। हिन्दी भाषा को आगे बढ़ाने के लिए पूर्ण समर्पित। सभी करते यहाँ कुछ न कुछ अर्जित। पूरे आदरभाव से बात करते सभी न आलोचना, न हीन भावना, न तिरस्कार अच्छी रचनाओं से यह मंच रहता शोभित। हर जगह, हर प्रांत से लोग जुड़ते हैं। अपनी रचनाएँ, नृत्य, संगीत भी प्रस्तुत करते हैं। हमेशा कुछ नई ही लेकर सोच कोई, अपने समूह संग पवन जी काम करते हैं। राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच सबके लिए काम करता इस मंच का है कार्यक्षेत्र असीमित। शुभकामनाएँ ये मेरी कि मंच बढ़ता रहे। मातृभाषा हिंदी की प्रगति के काम करता रहे। हमारी हिन्दी दिन दूनी, रात ...
धरती-अंबर पर बिखरा प्रेम रंग
कविता

धरती-अंबर पर बिखरा प्रेम रंग

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** आज रक्ताभ लाल अंबर को देख मन ने कुछ अलंकार ओढ़े। उस सुंदरता में डूब हृदय ने आराध्य से उसके कुछ अनुपम दृश्य जोड़े। धरती और आकाश लगते जैसे सिया-राम की अनुपम जोड़ी। रंगों का सजा ऐसा ताना-बाना जैसे प्रकृति ने प्रेम की चादर ओढ़ी। लाल रंग का वितान ताने रवि ने श्रेष्ठ मंडप सजाया। अपनी रश्मियों से सुरभित कर फूलों से रंगोली बनाया। नील गगन का अलौकिक सौंदर्य जैसे श्रीराम का रूप नयनाभिराम। श्याम रंग पर लाल वसन को निरख अपलक तकते सब, जैसे आ गए राम। इस रूप पर सम्मोहित होकर रवि ने मन भर किया नभश्रृंगार। अपने रश्मिकोश को लुटा-लुटा। राम के प्रतिरुप को दिखलाया प्यार। धरती जैसे माँ सीता की स्वच्छ, पवित्र, सात्विक, धवल मूर्ति हरसिंगार, टेसू, कमल, गुलाब, जासवंत के लाल जोड़े में खूब शोभती। लगता जैसे माँ सीता ही फिर धरा रूप में आईं हैं। श्री राम के अनुरूप...
मन में है विश्वास
कविता

मन में है विश्वास

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** किसी दिन, किसी क्षण, किसी पल तो ये कोरोना जाएगा ही। गम के बादलों को चीर कल विहँसता सूरज आएगा ही। अभी गहरा तिमिर है, पर रात का भी अंतिम प्रहर है। कल फिर नूतन प्रभा के संग, रवि मुस्कुराएगा ही। बड़ा मुश्किल ये पल है। मन में अब बचा न बल है। दृश्य विचलित कर रहे अब, ईश्वर ही एकमात्र संबल है। कब तक सहेगा वो अपने बच्चों के आँसू। जल्दी ही पिघलकर वो नेह बरसाएगा ही। किसी माँ के बच्चों को छीना किसी का ले लिया नगीना। बड़ा दरिंदा ये निकला कोरोना, मुश्किल किया सबका जीना। मगर एक आस जिंदा है, प्रभु पर सबका विश्वास जिंदा है। न घबराओ मेरे साथियों सबकी व्याकुलता देख अब वो चक्र चलाएगा ही। परिचय :- श्रीमती विभा पांडेय शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी एवं अंग्रेजी), एम.एड. जन्म : २३ सितम्बर १९६८, वाराणसी निवासी : पुणे, (महाराष्ट्र) विशेष : डी.ए.वी. मे...
आँसुओं की कहानी
कविता

आँसुओं की कहानी

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** अश्रु हमेशा कहते कहानी। कभी नई तो कभी पुरानी। अश्रु हमेशा कहते कहानी। खुशी के पल में भी आंँखों से ढुलक आते। दुख में भी पलकों का बाँध तोड़ बह जाते। हमेशा चुगली करते दुखों की। प्रेम की कहानियाँ भी सुनाते। नैनों में झिलमिलाते आँसुओं की है ये रीत पुरानी। अश्रु हमेशा कहते कहानी। कोई अपना हो या पराया, दर्द का समंदर हो या नन्हा-सा साया। आंँखों की ढकनों से छलक ही जाते। इनकी कथा जानी-पहचानी। अश्रु हमेशा कहते कहानी। इन्हें चाहो या तिरस्कार करो, इकरार करो या इंकार करो। कहाँ ये सुनते किसी की। जब भी भाव से भरे मन, बहने लगता आँखों से पानी। अश्रु हमेशा कहते कहानी। कभी नई तो कभी पुरानी, अश्रु हमेशा कहते कहानी। परिचय :- श्रीमती विभा पांडेय शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी एवं अंग्रेजी), एम.एड. जन्म : २३ सितम्बर १९६८, वाराणसी निवासी : पुणे, (महारा...
आओ मिलकर रंग सजाएँ
कविता

आओ मिलकर रंग सजाएँ

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** तुमसे, मुझसे,उससे, इससे माँग कर थोड़ा साथ तो लाएँ। आओ मिलकर रंग सजाएँ। लाल, गुलाबी, चटक रंग को हर सूने मन पर बरसाएँ। आओ मिलकर रंग सजाएँ। बीमारी ने पकड़ रखा है, पंजों में अपने जकड़ रखा है। दूर हुए जो घर आँगन से फिर से सबको साथ में लाएँ। आओ मिलकर रंग सजाएँ। दूर हुए बस तन ही तन से जुड़े हैं तार तो मन के मन से। क्या होता जो दो सालों से होली गुलाल की खेल न पाए। आओ मिलकर रंग सजाएँ। गीतों से कुछ रंग चुराकर होली के दिन मेल मिला कर आभासी माध्यम को अपनाकर क्यों न पुराना फगुआ गाएँ। आओ मिलकर रंग सजाएँ। जो न मिला फिर याद करें क्यों, बस सबसे फरियाद करें क्यों? सूने पड़ते चौबारों में फिर से रंगों को बिखराकर आस का क्यों ना दीप जलाएँ। आओ मिलकर रंग सजाएँ। परिचय :- श्रीमती विभा पांडेय शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी एवं अंग्रेजी), एम.एड. जन्म : २३ सितम...
क्या करोगे जानकर
कविता

क्या करोगे जानकर

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** क्या करोगे जानकर मेरे बारे में। समझ नहीं पाओगे। इसीलिए तुम अपनी सुनाओ। अपने जीत का कोई गीत गुनगुनाओ। मेरे हृदय के छाले देख घबराओ मत, वो तो अपनों ने दिए हैं, वो ही तो हार हैं मेरे गले का। नहीं , मत लगाओ मोल इस हार का तुम इतने बड़े सौदागर नहीं। नहीं समझ पाओगे इनकी कीमत क्योंकि अभी समय और रिश्तों की चक्की में, तुम पिसे नहीं , नफरतों के सील-बट्टों से तुम घिसे नहीं। ये रिश्ते ना, बड़े अजीब होते। दूर के ढोल जैसे सुहावने से प्रतीत होते हैं। पर जब उतरो इस सागर में, तब सच्चाई दिखती है। उसमें तैरती गंद को देख बड़ी तकलीफ़ होती है। मृगतृष्णा हैं सारे भ्रम के हैं बादल ये कारे। बस स्वार्थ तक ही सीमित, होते कई रिश्ते हमारे। इसीलिए मत पूछो मुझसे कुछ भी अंदर तक जला है दिल फूट पिघलेगा। सुनाओ अभी अपनी कहानी क्योंकि अभी कोरा है रिश्ता, यहीं से अभी समय...
वर्ष २०२०- कुछ खोया, कुछ पाया
कविता

वर्ष २०२०- कुछ खोया, कुछ पाया

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** वर्ष २०२०- कुछ खोया, कुछ पाया। कहते हैं बड़ा बुरा था ये साल। लोग घरों में बंद, आवाजाही पर, पार्टी पर, घूमने-घुमाने पर व्यर्थ के दिखावे में बर्बाद होती जिंदगानी पर रोक। यार ऐसे भी कोई जीता है? सच में बड़ा बुरा था ये साल। सच में बुरा तो था पर गरीबों के लिए, यतीमों के लिए उन रोज कमाकर खाने वालों के लिए। क्योंकि रोजगार बंद, रोजगार के साधन बंद। जिंदगी उनकी उलझकर रह गई थी। लेकिन सच पूछिए तो यही वह साल भी था जब परिंदे जी भर कर बिना डर आसमान में उड़े। न धुआं, न शोर। पशु भी आदमी नामक प्राणी से कुछ समय के लिए मुक्ति पाए। प्रकृति ने नई दुल्हन-सा श्रृंगार किया। नदियां नहाई, स्वच्छ हुई। पेड़-पौधे जैसे नवजीवन पाए, धरा ने फिर अपना धवल रूप धरा। मनुष्य भी मनुष्य के करीब आया, न जाने कितने हाथों ने दूसरों के घर आशा का दीप जलाया। घर गुलज़ार हुए, ...
मां और सर्दी का मौसम
कविता

मां और सर्दी का मौसम

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** मां और सर्दी का मौसम सर्दी का मौसम मां तुम्हारी बड़ी याद दिलाता है। बचपन की वादियों में ले जाकर, अक्सर घुमा लाता है। छुटपन में जब गठरी बन कर रजाई में तुम्हारे छिपकर हम सो जाते थे, तुम धीरे- से थोड़ा खिसककर, रजाई से हमें अच्छे से ढंककर, अपने थोड़ा बाहर होकर सोती और प्यार से हमें ढंकती थी, वो स्पर्श याद दिला जाता है। चाहे कितनी भी ठंड हो, अंगीठी की सुर्ख आंच पर, हमारे लिए रोज चाव से कुछ न कुछ बनाना और हमें खाते देख निहाल हो जाना, सच कहूं मां तुम्हारे प्यार से पगा वो स्वाद बार-बार याद दिला जाता है। गरम कपड़ों से पूरा लदे होने पर भी तुम्हारी आंखों की वो चिंता कहीं ठंडी न लग जाए। स्कूल निकलने के समय काफ़ी दूर तक हमें जाते देखते खड़े रहना और तुम्हारी आंखों का भर जाना, आज भी याद दिलाता है। ये कमबख्त सर्दी का मौसम तुम्हारे न होने की स...
बेटी: एक सुंदर अल्पना
कविता

बेटी: एक सुंदर अल्पना

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** मैं बेटी हूं, अपने पिता का मान हूं। हां, मैं बेटी हूं, अपनी मां का अभिमान हूं। क्यों समझते तुम बेटियों को कम? क्यों मनाते बेटियों के होने पर गम? क्या विश्वास नहीं तुम्हें खुद पर। या खा रहा तुम्हें पुरुष होने का अहम। मैं बेटी हूं, अपने भाई का गर्व हूं। हां, मैं बेटी हूं उच्च संस्कारों की पहचान हूं। मैं झुक जाती हूं जो स्नेह की वर्षा हो मुझ पर। मैं रुक जाती हूं अधिकार भरा आदेश सुनकर। मगर जो तोड़ना चाहो मुझे, तो बस कल्पना हूं। मैं बेटी हूं, नए भारत का नया अरमान हूं। हां , मैं बेटी हूं, अपने पिता का सम्मान हूं। जो दिखलाते सदा सर्वदा मेरी सीमाएं मुझको, तुम्हें क्या अपनी सत्ता के छिन जाने का भय है। जो अत्याचार का बिगुल बजाते, सुनाते मुझको कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने सामर्थ्य पर संशय है। नहीं आश्रिता मैं तुम्हारी, मैं तो स्वयंं पर अव...
शब्दों के पैमाने
कविता

शब्दों के पैमाने

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** यदि कुछ बनने को कहूं तो सागर बन सकते हो क्या? जैसे वह अमृत हो या गरल, खुद में पचाकर शांत रहता है। वैसा धीरज तुम भी दिखा सकते हो क्या? अगर नहीं, अगर नहीं तो बोलो मत, चुप बैठो। संविधान ने स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की दी है, शब्दों से घाव करने की नहीं। भाषा के गलत प्रयोग से तुम जो इतना ज़हर फैला रहे हो मानवता को जला रहे हो। जो संबंध ही नहीं बचे तो अकेले रह सकोगे क्या? अकेलेपन की व्यथा सह सकोगे क्या? ये भारत देश है जहाँ हर तरह के फूल खिलते, हर विचार के लोग मिलते। अपनी घृणा को त्याग, इस पावन मही पर स्नेहिल भाषा की गंगा फिर बहा सकते हो क्या? हिंन्दी जो देश की आन,बान शान है, हिन्दी प्रेमियों के गर्व की पहचान है। हिन्दी तो हिंद के जन जन की जान है, इसे बोलने में लेकिन कभी गलत संधान न हो। हिन्दी है प्यार, स्नेह की भाषा, इससे किसी का...