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Tag: श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी

धेनु हूँ मैं
कविता

धेनु हूँ मैं

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** माता हूँ मैं क्या माँ भी हूँ क्या हूँ पूजनीय, वंदनीय भी मैं या हूँ मनुष्य का साधन मात्र? जिसे साधते आए तुम, अपनी आस्था और धर्मों से कहते हैं भक्ति श्रद्धा का आधार हूँ मैं फिर भी सड़ती, कटती हूँ मैं, चित्कार कभी जो सुन पाओ राहों में तिल तिल मरती हूँ मैं होता नित्य प्रहार मुझ पर, घर-घर ने दुत्कारा मुझको मेरे बच्चे भूखे मरते पर मैं सबका उपकार करूँ रहे निरोगी काया जन की, नित घाव की पीड़ा सहती हूँ माँ बुढ़ी हो भारी लगती, निज स्वार्थवश ही प्यारी लगती जो ना हो आसरा श्रद्धा का माता से भी प्रेम नहीं पूजा जप-तप, और दान यज्ञ का भी कोई मोल नहीं है प्रश्न मेरे अन्तर्मन का क्या ऋण मेरा चुकाओगे??? नित-नित सहती इस पीड़ा को क्या तुम हर पाओगे???? तब उठो-उठो हे जन मानस माता को अगर बचाना है मानव सब कुछ भू...
युद्ध और जीव
कविता

युद्ध और जीव

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** दिन माह बरस बीत रहे, युद्ध की विभीषिका अभी शेष है हवाओं की सरसराहट, क्रंदन सी प्रतीत हो रही है पर्वतों के शिखर चीख-चीख कर आतंक की गवाही दे रहे हैं पक्षियों की चहचहाहट रुदन में बदल रही है इन जीवों की कराह से धरती भी सिसक रही है युद्द ने जीवो के हृदय को छला है जीव जंतुओं का रक्त सुखी पत्तियों सा पड़ा है प्रकृति उसी क्षण बुढ़ी लगने लगी है मानो उसके रंग पिघलने लगे हैं घरों के उजड़ने का क्रम थमा नहीं है अभी ना ही आंसुओ का सैलाब रुका है युद्ध मासूम जीवों को निगल रहा है शनैः शनैः कोई रास्ता शेष नहीं दिख रहा जीवन का हे मनुष्य!! मासूम जीवों को दम तोड़ते-छटपटाते पीड़ा को क्या तिरस्कृत कर दिया है तुमने? क्या इनकी मौत पर शोक मनाने को इन्सानियत जिंदा नहीं रही? क्या अपराध है इन असहाय अबोध सहचर...
पुरुष
कविता

पुरुष

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** विधाता ने रचा मुझे स्त्री के स्वाभिमान ने संवरा माँ की ममता भी है है पिता का गौरव भी पूरे संसार की सख्ती भी है मुझमें खुद के ज़ज्बात भी छुपा लेता हूँ रो मैं नहीं सकता, हर कुछ सह भी नहीं सकता ऊपर से शिला हूँ मैं, पर भीतर से हूँ मोम मैं हूँ एक "पुरुष".... परिवार, समाज, देश का जिम्मेदार हूँ हर पल हर समय के लिए मददगार हूँ सबके सपनों का आधार हूँ किन्तु खुद के सपने बुनने का गुनाहगार भी हूँ क्युकी मैं हूँ एक "पुरुष"... पाँव थकते हैं तो क्या, थकान होती भी है तो क्या पत्नी की उम्मीद हूँ, बच्चों का हूँ भाग्यविधाता कर्म करता चल रहा हूँ, सबकी सुखद मुस्कान के लिए कर्मशील, धर्म-परायण, हर पल ध्यानी हूँ मैं हूँ एक "पुरुष "!... बहुत अधिक कुछ नहीं लिखा मेरे बारे में पर इस सृष्टि की रचना का रचनाकार...
एक श्वान की आत्मकथा “जीवित हूँ जीना चाहता हूँ”
कविता

एक श्वान की आत्मकथा “जीवित हूँ जीना चाहता हूँ”

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** है अधिकार तुम पर मेरा भी मुझे दो स्वत्व धड़कन बन जीवित रहना चाहता हूँ तुम्हारे दिल में थोड़ा सा पनाह चाहता हूँ मन और आत्मा में तुम्हारे बसना चाहता हूँ मैं जीवित रहना चाहता हूँ!!!! सुख दुःख महसूस करता हूँ अकेलापन तुम्हारा बांटना चाहता हूँ अपने साथ रहने की अनुमति दो मुझे तुम्हारी घुटन, नाराजगी, शिकायतें मिटाना चाहता हूँ मैं जीवन जीना चाहता हूँ !! मैं भी पथिक हूँ उसी राह का संग संग तुम्हारे चलना चाहता हूँ वेदनाओं से सामना हो जब तुम्हारा, शीतल चाँदनी बनकर प्यार लुटाना चाहता हूँ अश्रु पूरित नेत्रों से मैं भी छुटकारा चाहता हूँ जीवन हूँ जीना चाहता हूँ!! बंधन से जकड़ा स्वप्न सा जीता हूं मैं ठिठुरन, अकड़न, सड़न, भूख से तरबतर रहता हूँ मैं घर में तुम्हारे थोड़ी सी पनाह चाहता हूँ स्वयं के...
आँखों की नमी
कविता

आँखों की नमी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** मैं आँखों के किनारों पर अटकी हुई नमी हूँ जो बाहर की दुनिया से अंजान हूं अन्दर सिमटना नहीं चाहती लेकिन भीतर के किनारों में कोई जगह अब बची नहीं खामोश हूँ कोई स्पन्दन नहीं मुझमे सारे रिश्ते नाते वहां जमा चुके हैं अपना डेरा आंसू इन रिश्तों की जकड़न से थरथरा रहे हैं दहलीज के दरवाजे बंद हो रहें हैं उस से जगह छोड़ने को कह रहे हैं बूँदों का अस्तित्व नमी में समा रहा है नयनों की नमी अब परिपूर्ण हो रही है.!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार) निवासी : लखनऊ (उत्तर प्रदेश) विशेष : साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने के शौक ने लेखन की प्रेरणा दी और विगत ६-७ वर्षों से अपनी रचना...
सुन्दर कहानी
कविता

सुन्दर कहानी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** बचपन की सुन्दर कहानी, एक राजा एक रानी और होते थे राजकुमार एवं राजकुमारी, कहानियाँ मासूम और प्यारी थी, उनका संदेश अर्थ पूर्ण होता था. निश्छल किरदार होते थे, कुछ ही बेकार होते थे, समय के साथ कहानियां बदली, उनके मायने बदले कहानी के कलाकार भी बदल गए ! अब तो है राग द्वेष की कहानी, अमीर गरीब की कहानी मरने मारने की कहानी, ऊंच नीच की कहानी इन कहानियों में गुम हो गई सच्चे जीवन की कहानी बाकी बची सिर्फ और सिर्फ स्वार्थ की कहानी!! हर एक की है अलग और अपनी कहानी, पर कौन सुने किसी और की कहानी सभी हैँ अपने में उलझे से और अभिमानी, किसी को किसी की परवाह कहाँ, इंसान को इंसान से प्यार कहाँ काश हम लौट पाते उन्हीं पुरानी कहानियो और किरदारों में जिनमें डूब कर जीवन संवार लेते कुछ पल ही सही वापस बचपन को...
प्राण
कविता

प्राण

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** जीवन की वास्तविकता है प्राण, पंछी सा उड़ जाएगा एक दिन यह प्राण जीवन की हंसने-रोने की ध्वनि ना सुन पाएगा सुख-दुख के संवाद कभी ना सह पाएगा, जब जीवन से मुक्त हो जाएगा यह प्राण ! पग-पग ये जीवन उलझी हुई किताब आदि अंत ना सुलझा पाया ये इंसान, समय के चक्षु में शुष्क नीर जैसा थम जाता है यह प्राण, उत्कृष्ट पाने की अभिलाषा, हर पल खुश रह कर जीने की ललक, असंतुष्ट इच्छाओं को पूर्ण करने की पराकाष्ठा, समझते समझाते क्षण भंगुर सा सृष्टि में विलीन हो जाता है यह प्राण ! मोहपाश में ना बाँध सका इसे कोइ, स्वतंत्र विचरण करने को व्याकुल, कोलाहल की ध्वनि से दूर, शांत वन में लुप्त होने को आतुर है यह प्राण ! नित नए जीवन का ग्रंथ बनाते, आशा को विश्वास का संगीत सुनाते, धीरज धर परमात्मा का संदेश सुनाते, जीवन का अखंड सत्य...
“आत्मकथा” एक जीव की
कविता

“आत्मकथा” एक जीव की

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** बोलना चाहता हूँ, समझाना चाहता हूं, रोकना चाहता हूँ, मत करो क्रूर आघात और इतनी घृणा महसूस करता हूँ दर्द, घुटन, और अकेलेपन की तड़प तिल-तिल दम तोड़ते, नित प्रतिदिन होता तिरस्कार, पढ़ पाए जो कोई तो इन आँखों में, बिना शब्दों के दर्द बयां होते हैं अहंकार, द्वेष, घृणा से परे एक सुन्दर दुनिया है मेरी मत रौंदो मेरे अस्तित्व को, बहुत कुछ अनकहे ही सीखा जाता हूँ इन्सानियत को जाति, रूप, रंग में मत करो बंटवारा मेरा प्यार से गले लगा कर तो देखो, जान दे दूंगा तुम्हारे प्यार की कीमत चुका कर सृष्टि की अनमोल रचना हैं हम, कैसे हो सकते हैं नफ़रत के काबिल, नहीं समझ पाता "रोटी" की कीमत, नहीं जानता दुनियादारी और व्यापार ईश्वर ने इंसान बनाया, जीवों से प्रकृति को संवारा अद्भुत चित्रकारी कर ईन जीवों पर, अप्रतिम ...
दो जून की रोटी
कविता

दो जून की रोटी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** दो जून की रोटी, थोड़ा खुश थोड़ा सहमी, थोड़ा पसीने से लथफत, कभी अम्मा के हाथों में गोल घूमती नरम स्वाद वाली रोटी कभी पिता के पसीने में मोतियों सी चमकती रोटी! कभी बिटिया की चांद जैसी मुस्कराहट वाली रोटी.! ना जाने किन-किन पथरीले रास्तों से गुज़रती-जूझती, कभी राजनीति के दल-दल में फंसती हुई रोटी! धर्म कर्म, चाटुकारिता की भेंट चढ़ती रोटी, "वक़्त" और " दौलत" के बीच फंसती सिसकती हुई रोटी, रिश्तों में दूरियों का एहसास, करवाती रोटी कहीं फेंकी-मसली, चीखती चिल्लाती रोटी, कहीं किसी "जीव" की क्षुधा शांत करती रोटी, बहुत लंबी और असीमित है मेरी कहानी, क्योंकि, "मैं हूँ दो जून की रोटी" .... परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा...
प्रेम
कविता

प्रेम

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** क्या है परिभाषा पवित्र प्रेम की?? स्नेह, लगाव, भावना, एक सुखद अहसास?? यहीं समाप्त नहीं हो सकती "परिभाषा "प्रेम की! प्रेम शाश्वत है, कल था, आज है, कल भी रहेगा!! शुभ का आरंभ, निरंतरता का बहाव है प्रेम, सूकून है, लगन है, मुक्ति है प्रेम! ईश्वर की अराधना, हवन कुंड का पवित्र धुआं है प्रेम, प्रकृति का कण-कण है प्रेम, जीवों के प्रति करुणा है प्रेम! शब्दों में ना वर्णित हो पाए वो उपासना है प्रेम, सृष्टि की रचना का आधार, जीवन की सार्थकता है प्रेम! एक मौन अभिव्यक्ति, ईश्वरlनुभूति है प्रेम! समर्पण, विश्वास, वचन बद्धता, अद्विती यता है प्रेम! प्रेम आदि-अनादि है, जगत में परमात्मा का प्रतिनिधि है प्रेम! सत्य है, शिव है, सुन्दरतम है "प्रेम" !!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री ...
माँ
कविता

माँ

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** "माँ" के लिए क्या लिखूं, आकाश सा व्याप्त वो शब्द, जिसे वेद व्यास भी परिभाषित ना कर पाए माँ सरस्वती भी कुछ समझा ना पाई! "माँ" के समक्ष हर सागर भी दरिया लगता है हर पर्वत हर गगन छोटा लगता है इंद्रधनुष के हर रंग समाए हैं इन नैनों में "माँ" है सृष्टि की जननी "माँ" से ही है ये जग जीवन, ब्रम्हांड समाया है "माँ " में हर पूजा प्रार्थना का आशीष है "माँ", खुद में ही सम्पूर्ण है जो, वो एक शब्द है "माँ" जन्नत है इनके चरणों में प्रकृति का रूप है "माँ" शक्ति का स्वरुप है "माँ" अखंड ज्योति की लौ है "माँ" क्यूँ हो एक दिन ही मातृ दिवस? नित क्यूँ ना करें हम "नमन" इन्हें? ईश्वर का प्रतिरूप है "माँ" नित शत-शत इनको नमन करें!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म ...
कौन हूं मैं…???
कविता

कौन हूं मैं…???

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** बरसों से एक जवाब की तलाश थी, सवाल खुद पर था, उत्तर भी खुद से देना था रात दिन हर पल, खुद से खुद में हलचल मचाता हुआ अचानक प्रश्न कौंधा "कौन हूं मैं" ???? किसी चेहरे की खुशी तो किसी की मुस्कान हूं, किसी के आंखो की नमी, किसी के जीवन में बरसात सी हूं ना जाने किसका सवेरा किसकी शाम हूं कभी किसी का सच, तो कभी पलकें झुकाए अनकही पहेली हूं कौन हूं? यदि हूं, तो अब तक चुप क्यूँ हूं?? हर पल चल रही हूँ हर पल ढल रही हूँ कभी उत्सव में लीन कहि वीरानी में सिमटी सवाल बेहिसाब हैं, सिलसिला चला जा रहा है हर पल कई रंग और बदलते हुए कई रूप हैं कही जीवन जीने में शामिल कभी मृत्यु से, थरथराती, डरी हूं क्या मौत से खत्म है जिन्दगी, क्या जान से ही जहान है ?? क्या जीवन सत्य है, या मृत्यु ही अटल सत्य है इन सवा...
चित्रकार
कविता

चित्रकार

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** अद्भुत से हर रंगों से, उसने खूब सजाया है, भर तूलिका में सुंदर रंग, प्रकृति को संवारा है हर गुण अवगुण को लेकर, यह संसार निखारा है। अलग-अलग हैं नाम और रूप, भिन्न-भिन्न परिभाषाएं, चौरासी लाख योनियों में जीवन को भटकाया है देह दृष्टि के कारण ही यह जीवन अनमोल बनाया है, मानव जीवन सबसे सुंदर यह अहसास कराया है। फिर भी हम नादानी में अपने नासमझी कर जाते हैं, अपनी करनी के ही कारण जीवन भर पछताते हैं, कर सेवा हर जीवों की परम आत्मा को पाना है, स्वर्ग यही है नर्क यही है, कर्मो से अपनाना है। एक निरंतर सबके अंदर बाकी सब मिट जाना है, रह सदैव प्रभु चरणों में यह "जीवन, "सुंदर चित्र" बनाना है। परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक...
पिताजी
कविता

पिताजी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** सूरज की पहली किरण उगने के पहले, पूजा की घंटियों से जगाते वो "पिताजी थे" सम्पूर्ण वातावरण राम, कृष्ण मय करते, वो "पिताजी थे" जीवों को बचाने में खुद को आहत करते वो "पिताजी थे" ऊंची उड़ान भरते, आंखों मे भविष्य के सपने लिए हमे ना गिरने की चिंता, ना गिर के टूटने का डर, क्योंकि, "पिताजी थे" सपनों को सच करने का हौसला, आसमान की ऊंचाइयों को निर्द्वंद छूने की ललक जगाते, "वो पिताजी थे" जिंदगी की राहें कभी विकट बनी, कभी ठोकर खाई, पांवों को सहलाते "वो पिताजी थे" स्तब्ध हुए, जड़ बन गया शरीर, टूट के बिखरे एक दिन, "वो पिताजी" ही थे कहां से लाते हम, वो हिम्मत वो हौसला उनको समेटने की ताकत? हम दिशा विहीन, किंकर्तव्य विमूढ़ कैसे समेट पाते, "वो पिताजी" ही थे संतान का वियोग, अपनों के ...
तिनका-तिनका जिंदगी…
कविता

तिनका-तिनका जिंदगी…

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** सिमटती रही मरुस्थल जैसी धारा पर मिट्टी के, रेत में लिपटे हुए इस शरीर में सारी खुशियां सारे दर्द मट मैले हो गए पर जिंदगी है तो जहां भी है मन रमता भी है उचटता भी तो है कभी सीलन सी हवाओं में, एक तिनका कहीं पकड़ आता, कभी गुम हो जाता किसी तूफान में तलाशती हूं, फिर भी अपनी सौगातों में कुछ बचे हुए अवशेष, लकीरें बन मिल जाते हैं सहेज लेती हूं इन टुकड़ों को नहीं देख सकती यूं ही व्यर्थ होते एक भी तिनका बेशकीमती हैं .... ये जिंदगी है तिनका-तिनका !! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार) निवासी : लखनऊ (उत्तर प्रदेश) विशेष : साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने के शौक ने लेखन की...
दीप जलाएं
कविता

दीप जलाएं

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** इस दीवाली दीप जलाएं चहुं दिशा प्रकाश फैलाएं तिमिर को नतमस्तक कर, उल्लास का दिया जलाएं, सृष्टि संग मिलकर, सद्भावना का गीत गाएं। सशक्त भावना निहित हो कामना विकास की, चमक उठे वसुंधरा, चमक उठे ये गगन। प्रसन्न जीव जन हों, लगे सुकर्म में सभी, शुद्ध चित्त का निर्माण हो, अथाह स्नेह परिपूर्ण हो, ना छल कपट बढ़े कहीं ना, लोभ भय का वास हो, निराश मन, हताश जन में प्रेम का प्रसार हो। जगत जहां निहाल हो ये सुखमई गीत गाएं, आई दीपावली खुशी मनाएं, हम सब मिलकर दीप जलाएं।। परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार) निवासी : लखनऊ (उत्तर प्रदेश) विशेष : साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने के शौक...
ये चांद भी
कविता

ये चांद भी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** ये चांद भी बहुत खूब है ना पर्दा ना घूँघट ना चेहरे की चिंता ना चमक की फिकर कभी करवा चौथ में चमकता, इठलाता कभी ईद में अपनी सुंदरता बिखेरता कभी खुले आसमान की गोद में गर्व से मुस्कुराता कभी ग्रहण में छुप जाता कभी बादलों से अठखेलियां करता सदियों से सुंदरता की परिभाषा बनता वो आज भी निर्मल है, उज्जवल है, मासूम सा है भूल से अगर कही धरती पर आया होता, ना जाने कितने विवादों में फंसता बहुत पहले ही टूट कर बिखर गया होता अदालतों के चक्कर लगा रहा होता वर्ण और जाति के चक्कर में फंस के रह जाता सामाजिक विकृतियों में उलझ कर, बूढ़ा, लाचार झुर्रियों भरा चेहरा बन गया होता शुक्र है वो जमीं पर नहीं है तभी तो सुरक्षित है कविताओं, कहानियों और दादी नानी की लोरियो में ईश्वर रूपी वरदान है इंसान पर "ये चां...
स्याही
कविता

स्याही

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** रंग है तेरा स्याह, पर अद्भुत है तेरी सुंदरता खुद को खुद से सजाती हुई कभी हंसती, कभी रुलाती कभी गुदगुदाती भी है।। हर पल हर काल की साक्षी बनी है तू वर्णित किया है दुनिया का इतिहास, दिया वेद पुराण, महाग्रंथो का ज्ञान।। राम रहीम गुरुनानक ईसा, हर रूप का परिचय कराती कालांतर से तुम।। वीरों की गाथा, रचनाकार की रचना को जीवित किया है, पन्नों पर तुमने।। लोरियां कहानियां, गीत-गजल, को सुंदरता से उकेरती सी, जीवन के नौ रूप नौ रंगों को कारीगरी से उभरती हो तुम।। हर पोथी हर ग्रंथ को दिया है अकल्पनीय रूप तुमने।। ना हो सके अनुभूति जिन भावनाओं की, उनसे भी साक्षात्कार करती हो तुम।। ना मिटा सके कोई अस्तित्व तेरा, "इतना सुंदर अविष्कार हो तुम"!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी प...
तुम हो अपरिभाषित
कविता, भजन

तुम हो अपरिभाषित

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** कारागार में जन्म लिया, गोकुल का ललना बनकर, देवकी मां की गोद मिली, यशोदा मां का मिला दुलार, वासुदेव के तनय बने तुम, नंद के गोपाल कैसे लिखूं!! क्या लिखूं!! तुम तो हो अपरिभाषित, चाहे मैं जितना लिखूं ।। हे नंद के लाल ।। गोपियों के प्रिय बने, राधा के प्रियतम , रुक्मिणी के श्री हो, सत्यभामा के श्रीतम, राक्षसों का वध किया, संसार को निर्मल किया, हर जन जन को मोहित किया, अपना सबकुछ त्याग दिया, कैसे लिखूं !! कितना लिखूं!! तुम रहोगे अपरिभाषित चाहे मैं जितना लिखूं ।। हे नंद के लाल ।। आत्म तत्व के चिंतन तुम, परमेश्वर परमात्मा तुम स्थिर चित्त योगी तुम्हीं, परमार्थ का अर्थ तुम्हीं। नभ जल अग्नि वायु, बनकर प्राण तुम्हीं बन जाते हो, पंचतत्व में विलीन हो, अजर अमर कहलाते हो, क्या लिखूं, कितना लिखूं त...
प्रकृति की गोद
कविता

प्रकृति की गोद

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** फिर से उठ कर धारा को हरियाली से सराबोर करते हैं, आओ चलो प्रकृति की गोद में लौट चलते हैं । इन्हीं से सीखा है जीवन का सार मानव ने पर्वत से ऊंचाई, सागर से गहराई, चांद से शीतलता, सूरज से चमक वायु है प्राण, अग्नि तपाकर सोना बनाती है अग्नि धारा, जल, वायु, जीवन का रहस्य समझते हैं पेड़ों पौधों में भरी हैं खुशगवार जिंदगी को हवा से मिलकर मधुर संगीत सुनाती हैं झरनों नदियों की कल-कल से सुहाने स्वर उभरते हैं, आओ फिर से समंदर की मस्ती भरी लहरों पर चलते हैं बारिश की बूंदों से भी, ऊंचे उठकर धारा पर वापस आना भी सीखते हैं। कैसे कैद कर सकता है कोई प्रकृति की इन मजबूत दीवारों को !! हे मनुष्य मत करो प्रकृति पर प्रहार, मत ध्वस्त करो, ये पर्वत, ये धारा, ये जीव, इनका जीवन मत क्रूर बनो इतना कि हर जीवन सम...
खुशी
कविता

खुशी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** दिनों बाद दरवाजे पर दस्तक हुई किसी के आने की, देखा दरवाजे पर खुशी खड़ी है, एक कोना पकड़े हुए, पूछा बड़े दिन बाद आना हुआ, क्या शहर बदल दिया या कहीं दूर निकल गईं मुस्कुरा कर बोली, आती हूं पर शायद मकान का नंबर बदल गया बोला उस से बड़ी मगरूर रहती हो, कुछ तो सीखो अपनी बहन से, वो तो यूं ही चली आती है, परेशानी बनकर रहती भी है, रुकती भी है, साथ रहने का वादा भी करती है जवाब मिला, आती तो हूं मैं भी, रुकती हूं थोड़ा ठिठकती हूं, आहट पर कोई सुनता भी नही, दूर निकल जाती हूं, ये सोचते हुए, शायद तुम्हे मेरी जरूरत नहीं मैं तो रुकती हूं बच्चों की किलकारियों में उनके गीतों में, कभी रुकती हूं दोस्तों की मुस्कुराहटों में कभी बारिश की रिमझिम में, सरसराती ठंडी हवाओं में बांटती हूं खुद को छोटे-छोटे पलों और एहसा...
मेरी वसीयत
कविता

मेरी वसीयत

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** आज मैने मेरी वसीयत लिखी है मेरी वसीयत में कुछ डायरियां, कुछ कलम और मेरे जीवन भर के संस्कार लिखे हैं। वसीयत में मेरी इन्ही संस्कारों का बंटवारा किया है, मैंने प्यार, और खुशियों को जीवों में बांटा है। वसीयत का अर्थ एक है, भले ही पन्ने अनेक हैं, किसी में खुशी तो किसी में थोड़ा दर्द भी बांटा है। किसी पन्ने पर अपनेपन की परिभाषा तो किसी कागज पर मन की व्यथा मेरी वसीयत ही मेरी धरोहर है। इसे रिश्तों में ना बांट कर मासूम "जीवों" के नाम लिखी है, सुना है वसीयत के लिए लोग लड़ते झगड़ते हैं। मेरी वसीयत मासूम जीवों की तरह ही पाक साफ, और निर्मल है, ना झगड़े की जगह ना कुछ खोने का डर। मेरी वसीयत जीवों को जीव से प्यार के बंधन में बांधती है, परिभाषित करती है इस सत्य को कि खाली हाथ आए ...
समय है… गुजर जाएगा
कविता

समय है… गुजर जाएगा

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** मुश्किल वक्त है, गुजर जाएगा फिर से नया सबेरा जगमगाएगा। संयम, धीरज, मानवता की अहमियत समझ हे "मन" विकट, विषम, परिस्थितियां है बहुत ना घबरा "तू",खुद पर भरोसा रख बढ़ चल कर्म के रास्तों पर, आगे बढ़, हर मानवता को जुट कर दे हाथ, ना विचलित हो न डर धीरज की परिभाषा को सार्थक कर आंसू की एक बूंद भी हाहाकार मचा दे समंदर में हिम्मत हौसला हो साथ तो न टिक पाएगा कोई तूफान समंदर में अब से समझ ऐ नादान तू जीवनभर के लिए ना खुद को समय से बलवान समझ ना कर अब नादानियां, प्रकृति के विरुद्ध ना ही आंसू का कोई कण दे उन मासूम जीवों की आंखों में हर जीव के खून का हर कतरा, नासूर बना है आज पूरी दुनिया का, सुना था जिंदगियां बदलती हैं समय के साथ पर अब समझ आया बदलता हुआ समय भी जिंदगियां उजाड़ सकता है पल में अमन, चैन, सैयंम, धीरज ...
मेरे बटुए भर सपने
कविता

मेरे बटुए भर सपने

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** जीवन के कुछ पल मैं जीवन से ही चुराती गई उन्हें अपने बटुए में सहेजती रही ये सोच कर की कभी समय मिले तो उनको सुकून से खर्च करूंगी। बस यही सोच कर, समय और हालत के साथ आगे बढ़ती रही वक्त के साथ बटुए की सियान कमजोर पड़ती रही और मैं समय समय पर उन्हें यूं ही सिलती रही, फिसलते रहे मेरे सपने और समय समय की खुशियां मैं समाचार पत्र की तरह उन्हें सहेजती रही बरसों से सहेजे बटुए को मैने एक दिन जो खोला पूरी जगह तो सूनी और कोरी पड़ी थी वो समय के पल तो कहि थे ही नही जिनको मैं वर्षों से सहेजती आई थी कहां गई वो मेरी संपत्ति जो पाई पाई मैं जोड़ती रही थी? सोचते हुए आईने पर नजर पड़ी, सिर पर सफेद बालों की सफेदी चमक रही थी चेहरे पर इतनी सिलवटें? आईने ने खुद को पहचानने से इंकार कर दिया, पीछे घूम के देखा, कही...
सब ठीक है
कविता

सब ठीक है

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** सब ठीक है, सब अच्छा है थकी हुई हूं पर हारी नहीं हो अभी तक, "थकान" का अर्थ आज जा के समझ आया मीलों चले हैं, मगर थकान" अब जा के हुई है शायद जिंदगी की परिभाषा में ये नया शब्द उभर कर आया है कोई पूछे, थकान क्यूं है? कैसे परिभाषित करूं इस शब्द को!!! कभी कठोर शब्दों की बारिश भी तो थका देती है। बारिश की बूंदें जितना सुकून देती हैं, "थकान" की बूंदें उतनी ही विरक्ति भर देती हैं तपती धूप में कोसों चलता है ये जीवन दर बदर की भटकन को साथ लिए। मगर तब भी न जाने क्यूं "थकान" महसूस नही होती जिंदगी की परिभाषा भी अजीब उलझने पैदा करती है, कभी जन्नत तो कभी थका सा महसूस करती हैं कभी तमाशा बन जाती है तो कभी तमाशबीन की तरह दूर खड़े हो कर खिलखिलाती है उम्र, हालात, समय, बदल जाते हैं, अच्छाइयां इंसान की कमजोरी बन ज...