गौरैया की वाणी
श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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सोचती हूँ स्वयं के
अस्तित्वहीन होने के
पहले अपना परिचय
याद दिला दूँ
इसी बहाने मानव की
संवेदनहीनता का
परिचय दे दूँ
इस स्मृति दिवस पर
सबकी यादों को
ताजा कर सकूं
सबको बता सकूं,
कभी हर घर के मुंडेर
और झुरमुट में होता था
घोंसला हम
नन्ही परियो का
फुदकते-चहचहाहते
कभी इत आंगन
कभी उत आँगन
छोटा सा अपना जीवन
गुहार लगाती,
कराहती नष्ट
होती जा रही हैं
हम गौरैया
ज्ञान विज्ञान ने
ऐसा हाहाकार मचाया
सुख रहे नदी
गाँव और ताल
बसेरा होता था
हरी-भरी वृक्षों की डालियाँ,
छज्जा बनती थी टहनियां,
कभी किसी रोशनदान,
कभी किसी आँगन में
झूमा करती थी हम सब
अनवरत विकास ने
उजाड़ दिए वो
हरियाली वो घर आंगन,
कहां जाए दाना चुगने,
संग अपने सखी
सहेलियों के फुदकने,
हम सब तो हैं
पर्यावरण की सहेलियाँ
घरों की शुभ ल...