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Tag: शरद सिंह “शरद”

दीप जलायें
कविता

दीप जलायें

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** दीप जलाने का दिन आया, घर घर दीप जले ऐसा। दीप मालिका सजे सभी की, प्यार हिलोरें ले ऐसा। आओ ऐसा दीप जलायें, तम मिटे हमारे तन मन का, दीपशिखा की हर बाती से, जगमग हो मन हम सब का। राग द्वेष का कलुषित साया, छाये नहीं किसी जन में, ऐसा दीप जले मन प्रांगण, आलोक भरे हर जीवन में। तिमिर अमावस का छट जाये। दीपों की ऐसी ज्योति जले, बैर भाव को त्याग सभी के मन में करुणा का भाव पले। मन मंदिर रोशन हो जाये, आओ एक दीप जलायें हम, राह सुगम हो जीवन की, इक दूजे के हो जायें हम। परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप ...
गले मिल जाये
कविता

गले मिल जाये

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** उत्तुग श्रंग पर बैठ अपने परो को तोलती, उड़ चली गगन मे वह, मस्त मगन डोलती, न जाने कब तक उडे़गी, वह गगन के वक्ष पर काल कवलित बन गिरे, कब गगन से अवनि पर। कब बढे़गा हाथ उसका कब धूल मे मिल जायेगे कौन जाने कब यहाँ से, रुख्सत हम हो जायेगे आज 'मै' मै बनूँ क्यो, क्यो न हम हो जाये सब, कुछ समय की जिन्दगानी, क्यो एक न हो जाये सब, क्यो मजहब मे रमते रहे क्यो धर्म को कोसे सदा, चार दिन की जिन्दगी है सबको जाना इक जगह। यह भी मेरा वह भी मेरा और किसी को क्यो गने, सोच न हो संकीर्ण इतनी भूमि दो गज ही मिले। तू जले या दफन हो जाना तुझे उस लोक ही, अपने कर्मों का ब्योरा, देना है एक साथ ही, फिर क्यो मन मलिन रखे, क्यों ईष्र्या द्वैश रखे दिल मे, झगडे़ भी हो क्रोधित भी हो, पर गले मिल जाये एक पल मे गले मिल जाये ...... परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह...
आखिर क्यों…
लघुकथा

आखिर क्यों…

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** उड़ चली दूर बहुत दूर सपनो के झूले मे, बैठी सूरज की किरनो पर सैर करती, मंद हवा के झोको सी बहती, तितली सी मडराती, ऑखो मे हजारो बसे सपनो को साकार करती, किसी के कोमल स्पर्श को महसूस करती, अपने हर सबाल का सकारात्मक उत्तर पाती, अपने नसीब पर इतराती लहराती बलखाती चलती चली गई, चलती चली गई वह मोहक अहसास एक चुम्बक सा कदमो को जबरन खीचता चला गया, बढ़ते गये कदम। कि अचानक कदम ठिठक गये टकरा गये किसी पत्थर से ..... कहां? कहां है वह स्वप्न संसार? मै तो वही की वही थी, टूटी बिखरी हताश, ओह! तो यह स्वप्न था? पर क्यो? मैने अपने हाथो की लकीरों को ध्यान से देखा वह बदली नहीं थी, फिर यह स्वप्न कैसा?.. फिर? फिर भ्रम, भ्रम था यह सब? ओह रब! क्यो तोड़ता है इतना, क्यो देता है इतनी चुभन? क्या इतना तोड़कर भी तेरा मन नही भरता? या मुझ जैसा कोई और नही मिलता जो बार-बार बहारो का...
राधा की लालसा
कविता

राधा की लालसा

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** जीवन में तुम आओ न आओ, पर इस मन में समाये रहना। उठें घटाएं काली काली, झूम उठे हर डाली डाली, हर तरु की हर डाली पर, झूमें कोयलिया हो मतबाली, मन प्रांगण में छाओ न छाओ, इन अंखियन में कजरा बन रहना।। पपिहा की ध्वनि लागे सुहानी, पुलके तन मन सुधि बिसरानी, सखियन के संग बैठ बैठ के, उन्हें सुनाऊं कुछ कथा पुरानी, स्वाति बूंद बन बरसो न बरसो, पपिहा की प्यास बने तुम रहना।। जमें महफिलें नित ही दर पर, बजे शहनाई तन की वीणा पर, झूम झूम के नाचे राधा, सुन के बोल तेरी वंशी पर, महफ़िल में तुम आओ न आओ, मन वीणा में समाये रहना।। अक्षर अक्षर जोडूं पल पल, दिल करता गाऊं मैं हर पल, प्रीत डोर बना बना के, कविता रूप संबारूं हर पल, निकलें शब्द भले न मुख से, तन वीणा में स्वर भरते रहना।। छाई बदरिया आसमान में, टप टप बरसे घर आंगन में, कब बरसोगे बन के बदरा, हर पल आस रहे यह मन में...
काली घटाएं
कविता

काली घटाएं

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** घिरी है घटाऐ उमड़ घुमड़ बरसे गगन, भिगो गया आँचल मेरा भिगो गया तन मन, पहन चुकी बाना हरित हर तरु की डाली डाली हरित तृन की बिछी धरणी पर चादर मखमली, इन्द्र धनुषी आभा अम्बर मे छाई है। पी कहाँ पी कहाँ की रट पपिहा ने लगाई है चहक चहक उठती है गौरैया घोसलो में, चूँ चूँ चीं चीं की रट उसने लगाई है। देखो वह राम श्याम ,भोला हरि की टोली किलोले करते है कैसी कैसी अमराई मे, वन वन करे नृत्य मयूरा मयूरी संग झीगुर दादुर की धुन चहुँ ओर छाई है। नख से शिख तक भीग गयी हर गोरी, आज इस बदरा ने लालसा जगाई है, आओ श्याम हम तुम रास करे वृन्दावन मे, वृज की हर गोपी ने टेर लगाई है। परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थ...
बरसात की बूंदें
कविता

बरसात की बूंदें

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** छत की टीन पर पड़ती बरसात की बूंदें.. टप टप करती ज्यो गिरती हो जज्बात पर बूंदें... अमराई की छाव मे मिट्टी से खेलती यह बूंदें... अन्तर के धुए को मिटाती सहलाती यह बूंदें.. कहते है सब कुछ हंसीन बना देती ह यह बूंदें... फिर क्यो मेरे नयनो से खेलती है यह बूंदें... ऐ आसमा गिरती है क्या तेरी आंख से यह बूंदें... तेरे भी किसी दर्द को वयां करती है यह बूंदें .... परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अप...
विश्वास है हमको
कविता

विश्वास है हमको

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** विश्वास है हमको चल पडे़गी यह कलम भी, विश्वास है हमको, समझेगी हर बात वह भी, विश्वास है हमको, न रहेंगी अधूरी पंक्तियां हर शब्द मुकम्मल होगा विश्वास है हमको, अड़ जाती है कभी जिद पर, आखिर बच्चा है यह कलम भी, जल्द ही समझ जायेगी विश्वास है हमको, इसके सहारे चलते है हम, यह जानती समझती है कलम, झुकने न देगी मस्तक मेरा यह, विश्वास है हमको, छोड़ दे सारा जहाँ यह अपने पराये छोड़ दे, पर न छोडे़गी यह कलम, विश्वास है हमको .. . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भ...
रोशनी की किरन
कविता

रोशनी की किरन

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** दूर बहुत दूर एक रोशनी की किरन दृष्टि गोचर होती है, मन मयूर बिना कुछ विचार किए, थिरक उठता है पाॅव अनायास ही ता ता थैया की, ताल पर थिरक उठते हैं, मधुर शहनाई गूंज उठती है, दिल के सूने आॉगन मे, रोम-रोम पुलकित हो उठता है, अनजाने मिलन से, मन वीणा के हर तार से, स्वर लहरी फूट पड़ती है एक खूबसूरत स्वर्ग सा, अहसास होने लगता है, यूॅ अहसास होता है मानो, कदम-कदम पर खुशियों के, महकते फूलों की विशाल चादर बिछी है, मन चंचल हो दौड़ पड़ता है इधर-उधर, और अन्तस तल मे अनजानी सी मस्ती छा जाती है मानो कोई आवारा भॅवरा, गुंजार करे हर डाली पर..... परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड...
स्पर्श
कविता

स्पर्श

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** जब तेरे हाथो का स्पर्श मिला... नयना बिन सावन बरस गये... बरसा मेह झमाझम पर... लव पानी को तरस गये.... सन्ध्या के आबारा मौसम मे... पल पल यह नयना लरज गये.... कितनी पीडा है इस जीवन मे.... पल भर चैना को तरस गये.... सावन बरसा जब, मयूरा नाच उठा वन मे.... मन मयूरा के थिरके कदम, फिर ठिठक गये... परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपन...
क्रूर नियति
कविता

क्रूर नियति

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** विहंस उठी नव किसलय अन्तर्मन के मरुस्थल में, रोम रोम पुलकित हो झूमा स्वप्न सजे अन्तस्तल में चमक उठी चन्द्र चांदनी, वरण कर रही प्रियतम का, झीगुर की झंकार से सहसा, मिटा ताप ज्यूं अन्स्तल का। रुनझुन रुनझुन मन ललचाया बज उठी पयलिया पांवों की। विहंस उठा हर तार हृदय का, बजी रागिनी अरमानों की। सहसा आये इक पवन झोंके ने बिखरा दिए इन दृगों के सपने। फिर बनी यह साथी तन्हाई, फिर क्रूर नियति न शरमाई। परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां,...
अनसुलझे प्रश्न पर समीक्षा : अरुण कुमार जैन
साहित्य

अनसुलझे प्रश्न पर समीक्षा : अरुण कुमार जैन

अरुण कुमार जैन वरिष्ठ एवं प्रसिद्ध साहित्यकार की लेखनी द्वारा की गयी 'अनसुलझे प्रश्न' लेखिका शरद सिंह पर समीक्षा कृति : अनसुलझे प्रश्न लेखिका : सुश्री शरद सिंह प्रकाशक : प्रतिष्ठा फिल्म एन्ड मीडिया , लखनऊ पृष्ठ : ९६ पेपर बैक संस्करण प्रथम संस्करण २०१९ "अनसुलझे प्रश्न" सुश्री शरद सिंह का उपन्यास व कुछ लोक कथाओं का संकलन है। ९६ पृष्ठों की इस कृति मे भावना, संवेदना, आशा, निराशा, हताशा विश्वास, मैत्री, निश्छल प्रेम, उमंग व सुन्दर भाषाभिब्यक्ति का संसार समाया है। कृति की मुख्य रचना अनसुलझे प्रश्न है। यह एक ऐसी नारी की कहानी है जो सक्षम होते हुए भीकदम कदम पर ठोकरे खाती है व अन्त मे मृत्यु का वरण कर लेती है। कृति दुखान्त है। इसमे झाकती पीडा़ बेबसी, संकोच बहुत कुछ ब्यक्त करता है। विद्यालय जाती छोटी बेटी, किशोर अवस्था का प्रेम, मार्मिक संवेदनाऐ फिर यथार्थ के धरातल पर विपन्नता के कारण बेमेल विवाह स...
वेदना
कविता

वेदना

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** टूटे अरमानो का जबाब कौन देगा? जो बिखरचुका उस दिल के, टुकडो का हिसाब कोन देगा? ख्वाबो के हसीन नजारो के, बिखरने का हिसाब कौन देगा? पल पल जो अश्क बहाये.. उन अश्को कााहिसाब कोन देगा? जो भूल गयी गिनते गिनते रातो को... उन तारो का हिसाब कौन देगा? चाद भी रोया था जब मेरे साथ साथ उस कृन्दन का जबाब कौन देगा? होठोपे कभी जो आ न सकी.. उन मुस्कानो का जबाब कौन देगा? कौन देगा कौन देगा? कौन देगा कौन देगा? . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहा...
ऑनलाइन मदर्स डे
लघुकथा

ऑनलाइन मदर्स डे

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** तीन दिन से ठीक जो को मां खड़ी नहीं हो पा रही थी आज वह जल्दी-जल्दी खाना बनाने में लगी थी। आज काफी लंबे समय के बाद उसका बेटा जो आ रहा था, अब इतने समय के बाद जब आ रहा है तो वह बिस्तर पर कैसे लेटी रहती बेटा क्या सोचेगा माॅ को बेटे की कोई चिंता नहीं है.... अपनी ही तबीयत लेकर बैठी है, यही ना....नहीं वह कैसे लेटी रह सकती है उसके लिए खाना बनाना है भूखा होगा, बड़बड़ाती हुई माॅ खाना बना रही थी, वह अपनी पूरी शक्ति अंदर एकत्रित कर के काम में लगी थी। दाल चावल सब्जी रायता सलाद सब तैयार हो गया आटा भी गूंध लिया बस अब रोटी बनानी है... जब आयेगा गरम गरम रोटी बना देंगे वह खुद से ही बात कर रही थी। वह बेटे की प्रतीक्षा करने लगी कभी बाहर आती कभी अंदर जाती वह अंदर जा रही थी कि पड़ोस की राधा पूछ बैठी अब कैसी तबीयत है बुखार कम हुआ? नहीं कम तो नहीं हुआ है हो जाएगा...
जिन्दगी के पन्ने
कविता

जिन्दगी के पन्ने

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** तन्हा बैठी देख रही थी, अन्तस्तल की पुस्तक को, हर पन्ना उल्टा पल्टा, मन की तसल्ली करने को, कुछ पन्नों मे सूनापन था, कुछ मे छाई रंगीनी थी, पर कुछ पन्ने सूने क्यों हैं?, क्या इनकी कोई कहानी है?, क्या इनको मिला न कोई रंग? वह रंग, जो रहता इनके संग, इनमे भी बन जाती कोई तस्वीर सुहानी क्यों न बनी, क्यों सूने हैं यह, पूछा मैने उन पन्नों से, मूक रहे वह पन्ने, बोल न सके वह कुछ मुॅह से, आगे के पन्नों पर बढी़ उत्सुकता वश पर यह क्या? आगे तो हर पन्ना सूना है, एक दो चार दस हर पन्ना तो सूना है, पल्टा हर पन्ना यही सोचकर, शायद कुछ होगा आगे के पन्ने पर, हाॅ आगे कुछ था, कुछ बजी थी शहनाईयाॅ, थिरके थे कदम मिली थी बधाईयाँ, फिर छा गया अन्धकार, आया तूफान करता हा हा कार, उड़ गये उन पन्नों के सारे रंग, फिर थी सूनी जिन्दगी की किताब, जैसे किसी मतवाली वाला के, टूट चुक...
शब्द खामोश हो रहे हैं
कविता

शब्द खामोश हो रहे हैं

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** न जाने क्यों शब्द खामोश हो रहे हैं, शब्द मन्थन चल रहा है, मन मस्तिष्क मे पल पल, कुछ नया रचना चाहता है यह दिल। पर लेखिनी तक आते आते, शब्द मूक हो रहे हैं, न जाने क्यों यह शब्द, खामोश हो रहे है। मच रही है खलबली क्यों मस्तिष्क मे निरन्तर, शब्दों की तकरार चल रही हैं, अन्दर ही अन्दर, अन्तर्द्वद से ग्रसित भटकते जैसे, यह शब्द हो रहे हैं। न जाने क्यों यह शब्द, खामोश हो रहे हैं। . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि ...
अंधेरे में जो मुस्करा दे
कविता

अंधेरे में जो मुस्करा दे

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** घनश्याम कहते हैं अंधेरे में जो मुस्करा दे, उसे दीप कहते हैं, मोती है जिसके अंतर में, उसे सीप कहते हैं, दिल में उठी तरंग को, उमंग कहते हैं, करदे जो अपने जैसा, उसे रंग कहते हैं, चले जो निरंतर उसे, अविराम कहते हैं, बस जाये जो धड़कन में, उसे घनश्याम कहते हैं। . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख...
मां की मासूम यादें
कविता

मां की मासूम यादें

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** वह यादें वह रातें पुनः एक बार दोहरा दो उस गुजरे नजारे को पुनः एक बार दोहरा दो देख कर मुख मेरा जब लिया होगा चुम्बन मां ने देकर हौले से थपकी जब अंक में भरा होगा उसने रोयी थी में जब जब रोई तो वह भी होगी जब सोई नहीं जिद में, लोरियां गाई तो होंगी वह लम्हे वह मंजर पुनः एक बार दोहरा दो। मेरी टूटी हुई भाषा को संभाला तो होगा , पकड़ कर मेरी उंगली चलना सिखाया तो होगा, मेरी नादानियों पर पर्दा भी गिराया तो होगा, बहे होंगे जब आंसू आंचल में छुपाया तो होगा, उन खट्टी मीठी यादों को पुनः एक बार दोहरा दो। जिंदगी के अजब प्रश्न सुनकर, मन मलिन हुआ तो होगा, निकला ना होगा कोई हल, तो मन द्रवित हुआ तो होगा, उन रोते होठों को पुनः एक बार हंसा दो न जाने किस विवशता में, ठुकराया होगा उसने, ना जाने कैसे अपना दिल, पत्थर बनाया होगा उसने, पर बैठकर अकेले रातों को, अश्रु साग...
एक टुकड़ा डबल रोटी का
लघुकथा

एक टुकड़ा डबल रोटी का

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** उन मासूम सी आंखों में दर्द के कतरे स्पष्ट झलक रहे थे। हाथों की हथेलियों में नीली लाल लकीरों का जाल बना था। चाय के दुकान के मालिक के हाथ की लपलपाती छड़ी अभी भी उसकी हथेली चूमने को बेताब थी। किंतु लोगों के जमघट ने उसे रोक रखा था। उस मासूम की दस साल की तजुर्बेकार आंखों में एक संबाल तैर गया।क्या भूख से निढाल हुई बीमार कराहती मां के एक निवाले की खातिर, ग्राहक की प्लेट में बचा डबलरोटी का एक टुकड़ा उठाकर जेब में रख लेना जघन्य अपराध है....? शायद हां....। . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्...
अंतिम मंजिल
कविता

अंतिम मंजिल

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** कांटों भरी थी जीवन की राहें, चलना उन्हीं में सीखा था हमने। छलनी हुआ दामन जब हमारा, कर के जतन ,सिलना सीखा था हमने फूलों से कांटे मिले हैं सदा ही, नर्तन उन्हीं पर सीखा था हमने। जीवन की बगिया में पतझड़ रहा है, सूखे ही पत्ते बटोरे थे हमने। जब भी मिले थे दो पल सुकूं के, सोचा था भरलें दामन हम अपना। सुकूं में भी मिला न सुकूं जिंदगी का हर दर्द सबसे छुपाया था हमने। लाख जतन से रुक न सके जब , डबडबाई आंखों से बिखरे जो मोती , लगे न नजर जमाने की उनको, आंचल में भरकर सुखाया था हमने। चले राह में एक आशा को पकड़े, होगी कहीं तो हमारी भी दुनिया, मिल न सकीं कोई राहें सुगम सी, थे कांटों के पथ ,पग बढाये थे हमने जीवन की राहै तलाशी थी जब जब। साये बहुत से मिले राह में थे, जीवन का अंतिम पाया जहां था, अपना ही साया तलाशा था हमने। . परिचय :- बरेली के साधारण पर...
कसक
कविता

कसक

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** अन्जान डगर थी स्याह था अन्धेरा, यह कदम लड़खडा़ते बढ़ते चले गये। लगती रही ठोकरे पाव घायल हो गये, अन्जानी तलाश मे खोते चले गये। मृगमरीचिका के जैसे बजे ख्वाव अक्सर, बढ़े जो कदम तो खोते चले गये। सजी न कोई महफ़िल बजे न साथ कोई, बिन साथ के ही मदहोश होते चले गये। पग में बंधे न नूपुर ने गीत गुनगुनाया , अनजाने में पांव यूं ही थिरकते चले गये। मिलन की ललक थी अतृप्त सी तृषा थी, मिट न सकी तृषा, हम मिटते चले गये . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपन...
वादे भरोसे
कविता

वादे भरोसे

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** हरित दूर्वा विछौना देख हुआ मन प्रफुल्ल जैसे, मनुहारी छवि देख तेरी प्रमुदित हुई बैसे ही। कोकिल ध्वनि सुन हर्षित हुआ जन जन जैसे, सुन मधुर वानी तेरी हर्षाई वैसे ही। दिल की बगिया में ज्यों, खिल उठे मधुमासी पुष्प, मुस्करा उठे अमराई में, मधुर आम्र बौर के मृदु गुच्छ। पल पल वहे वासन्ती वयार जैसे, दिल में उठी मन्द हिलोर बैसे ही। इतराये थे तरु नूतन पत्र धारण कर, वक्त ने कैसा यह रंग दिखाया है, सहसा गिरे तरु पत्र विलग हो, पतझड़ ने ऐसा कहकर मचाया है। मिलन को आतुर पपिहा चांद से जैसे, विरहिन मिलन को प्यासी हुई बैसे ही। कोकिल की कुहू-कुहू भंवरों की गुंजार हुई, आवारा बादल की रिमझिम फुहार हुई, विरह से आतुर विरहिन अकुलाए जैसे, तेरे मिलन को आतुर हुई बैसे ही। वादे भरोसे पल पल मिले सदा, मुस्कराए होंठ भी मेरे यदा कदा, सागर से उभरे ज्वार भाटा जैसे पल-पल उबलते अ...
स्वप्न
कविता

स्वप्न

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** जल उठे दो दीप सहसा, तम को मिटाने के लिए चल पड़ी आंधी भयावह, वह दीप बुझाने के लिए। क्या खता इस दीप की, बाध्य तो तुमने किया। बन्द कर रखा था इनको अरमां न कोई आने दिया। छेड़ कर मन तन्त्र मेरा तुमने सुनाया मृदु राग कोई। फिर तोड़ दी वीणा तुम्हीं ने बजने न दी ध्वनि कोई। छेड़ कर वंशी की ध्वनि को, जो गाये हर पल राग मिलन के, पर स्वप्न, स्वप्न ही बने रहे, बने न राग वह बन्धन के। . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हि...
हृदय प्रफुल्लित
कविता

हृदय प्रफुल्लित

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** मदहोशी का आलम ऐसा खिल गये पुष्प अन्तस्तल में, नृत्य करे यह मन मयूर कोयल की कून्क मरुस्थल में। पुष्पित हो महका हर कोना, झूम उठा मेरा तन मन, आज प्रफुल्लित रोम रोम होगा प्रियवर से मधुर मिलन। अब नहीं कलुष मन में कोई, हर पल मुस्कायें होंठ मगन, झूम झूम नाचें इत उत, बाजे पायल रुनझुन-रुनझुन। . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प...
मधुमास
कविता

मधुमास

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** गुनगुनाती धूप मुस्कराते पुष्प यह तेरा साथ, लिये हाथों में हाथ लो आ पहुंचा मधुमास ..... यह कोकिल उपहास और भ्रमर उल्लास लो आ पहुंचा मधुमास ..... यह नदियां की जल धार, चली करने सागर से प्यार जल कुक्कुट करें विहार। यूं रखकर नव नव रूप लो आ पहुंचा मधुमास ..... चले मन्द मस्त बयार सुरभित पुष्पों की बहार उन पर भंवरों की गुंजार नव किसलय का धर रूप लो आ पहुंचा मधुमास ..... खेतों में बिछा के पीली सेज, मानिनी चली सजा निज केश पा कृष्ण मिलन सन्देश, आतुर हो आ पहुंचा मधुमास ..... हरित मृदुल मखमली ग्रास बिछा अबनि में चहुंओर चुराकर गोरी का मन मोर लो आ पहुंचा मधुमास ..... . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ह...
अन्तर्मन
कविता

अन्तर्मन

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** अन्तर्मन की सूनी बगिया में, फूल खिले अरमानों के, झूम उठा मन हुआ वावरा फूटे स्त्रोत तरानों के। भेदी चादर घोर तिमिर की, चन्द्र किरण अब चमक उठी, शुष्क वाटिका में अब फ़िर से पुष्प वल्लरी बिहन्स उठी। सुप्त रहें खोये खोये, उन भंवरों की गुंजार उठी मनुहारी तितली की आभा, हर बगिया गुनगुना उठी। बहे बासन्ती ‌व्यार सुहानी मतवाली बन लहक-लहक, नीलगगन में इतराते वो पंछी प्यारे चहक-चहक, पुरवैया के झोंकों से उड़े चुनरिया गोरी की करें सहेली हंसी ठिठोली, नयी नवेली दुल्हन की ! प्रियतम संग गोरी मुस्काये, पल पल जाये वहक-वहक, झुक-झुक जाये लाज से नयना, आंचल जाये ढलक-ढलक। . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी ...