Thursday, November 21राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर आपका स्वागत है... अभी सम्पर्क करें ९८२७३६०३६०

Tag: विजय गुप्ता

अल्प जरूरतें सागर सी
कविता

अल्प जरूरतें सागर सी

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** अल्प जरूरतें सागर सी, इतनी भी आसान नहीं राई को परबत सा मान, भ्रम का समाधान नहीं। बच्चों को खेल-खेल में, चंदा ख्वाहिश होती है चाँद सितारे पाने में, काया-कल्प ही होती है जटिल राह के राही को, समझो तुम नादान नही अल्प जरूरतें सागर सी, इतनी भी आसान नहीं राई को परबत सा मान, भ्रम का समाधान नहीं। भाव शब्द भंडार से, जीवन शैली अति सरल है कब कहाँ कैसे क्या, परख होती नहीं गरल है आनेवाली हर विपदा, खुद की है मेहमान नहीं अल्प जरूरतें सागर सी, इतनी भी आसान नहीं राई को परबत सा मान, भ्रम का समाधान नहीं। गणित सदा है सूत्रधार, समीकरण तो बराबर हो जीव भौतिकी रसायन, कुछ भी नहीं सरासर हो परिवार समाजलाभ तो, पुरुष से है परिधान नहीं अल्प जरूरतें सागर सी, इतनी भी आसान नहीं राई को परबत सा मान, भ्रम का समाधान नहीं। परिवर्तन नाम प्रकृति है, मानव भी ये ख्याल रखे य...
चिड़िया-बतियाँ-दुनिया
कविता

चिड़िया-बतियाँ-दुनिया

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** चिड़िया बैठ से उस डाल की स्पंदन सहज झलक जाए। बतियाँ पैठ से उस काल की फड़कन आहट खटक जाए। 'अटल' काव्य ये संदेश कहे, फर्क नहीं कोई कहाँ खड़ा है रथ-पथ तीर-प्राचीर अथवा जहां खड़ा होना पड़ा है धरातल की पहचान से धूल फलक पे छा जाए। बतियाँ पैठ से उस काल की फड़कन आहट खटक जाए चिड़िया बैठ से उस डाल की स्पंदन सहज झलक जाए। काव्य-कला जीवन शैली 'अटल' संपदा दुनिया की धन आसन भी स्थाई नहीं ठाकुर ब्राम्हण बनिया की मन फकीरी ही भारी है कुबेर संपदा रुला जाए बतियाँ पैठ से उस काल की फड़कन आहट खटक जाए चिड़िया बैठ से उस डाल की स्पंदन सहज झलक जाए। मन मैदान की हार जीत 'अटल' सुगम पहेली है मन 'विजय' नहीं सुलभ मन सम्मान सहेली है चार दिनों के मेले में विचित्र करतब दिख जाए बतियाँ पैठ से उस काल की फड़कन आहट खटक जाए चिड़िया बैठ से उस डाल की स्पन्दन सहज झलक जाए। व्यवहार ...
बेफ़िक्री का नायक
कविता

बेफ़िक्री का नायक

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** जाने किस दौर में ये जग प्रवेश कर गया मानो बुराई अंत हेतु अति निवेश कर गया। होली तो आस्था मित्रता की परिचायक रही होली-पर्व तो बेफिक्री का नायक बन गया। घुसपैठ, साजिशें नित्य सुना रही चाप है शातिर 'वाज़े' के नगाड़े की मूक थाप है चुनावी-हिंसा मानव रंगों से बना नाप है उमड़ती भीड़ से कोरोना बम फट गया गुबारमय गुलाल उड़ाना चाहत बन गया जाने किस दौर में ये जग प्रवेश कर गया होली-पर्व तो बेफिक्री का नायक बन गया। चुनावी दम दिखाने नेता सत्ता हाजिर हैं बनावट मिलावट रंग से हो जाते जाहिर हैं हृदय परिवर्तन ढकोसला रंगों में माहिर हैं घूमना आना जाना दिवा स्वप्न सा बन गया सम्मान का तिलक गुलाल सवाल बन गया जाने किस दौर में ये जग प्रवेश कर गया होली-पर्व तो बेफिक्री का नायक बन गया। बसंत पतझड़ उपरांत होली त्योहार प्रसंग है पतन का पर्याय रूप तीज त्योहार उमंग गिरग...
जान जरूरी-जहान भी जरूरी
कविता

जान जरूरी-जहान भी जरूरी

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** मानव रूप में जनमे युग के विशाल योग से कर्मों कीआहुति मरने कोरोना अकाल रोग से दिल दौलत दुनिया का तालमेल जरूरी है ये जान बड़ी जरूरी, सुन्दर जहान जरूरी है। धरा पर संवादी मौसम हमें आगाज़ कराता कई ढंगों से जीवन-यापन आभास कराता आन जरूरी है, दिल का अरमान जरूरी है ये जान बड़ी जरूरी, सुंदर जहान जरूरी है। अनजाने स्वभाववश, कभी मार्ग दिखलाता किसी मोड़ पे संयोगवश घटना याद दिलाता दान जरूरी है, सेवा अवदान बहुत जरुरी है ये जान बड़ी जरूरी, सुंदर जहान जरूरी है। कर्म भाग्य चाल से शीर्ष स्थान मिल जाता राष्ट्रप्रेम हितैषी जग में महामानव कहलाता उसका मान जरूरी है यथा सम्मान जरूरी है ये जान बड़ी जरूरी, सुंदर जहान जरूरी है। साहित्यकार इस जगत में, कई रंगों को झेले सूरज चांद गगन धरा, राष्ट्रीय कलम से खेले राष्ट्रगान जरूरी है, उसका गुणगान जरूरी है। ये जान बड़ी जरूरी, सुं...
फुलवारियां
कविता

फुलवारियां

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** निज बगिया में छटा बिखेरती फुलवारियां बहुत सहेजी घर उपवन की वो क्यारियां। कोर कोर में रची-बसी थी किलकारियां होश जोश दौड़ में देखी सबकी यारियां। अफवाह बाजार में पनपा करती भ्रांतियां निर्भय पथ-संचालन की नई-नई अनुभूतियां एकाकी विवश जन की साहसपूर्ण चुनौतियां दुर्गम दुर्लभ पथ की बड़ी अजीब बेचैनियां। बड़े बड़े आयोजन में आसमयिक दुश्वारियां काम रुका, ना धाम हटा, रहती हैं तैयारियां। देखी समझी राहत ताकत की कई मजबूरियां विस्मृत हो सहयोगी बनने, हो जाती हैं दूरियां कर्मवान को आभास दिलाती हैं नाकामियां ईश्वर क्षमा करें उन्हें, जिनकी नाफरमानियां। साथ चार जनों से भी रह जाती हैं खामियां पर अकेले दायित्व वहन की गहन हैरानियाँ। सामान्य रिवाजों में दिखती रहें नजदीकियां कोई समझ ना पाए रिश्तों की बारीकियां। बालपन से चौथेपन वाली सब जिम्मेदारियां खेल यही जीवन क...
मतलब की नदी
कविता

मतलब की नदी

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** नकारात्मक कविता का पक्षधर नहीं व्यवहारिक जीवन अनुभव बड़ा महती है क्योंकि तारीफों के पुल के नीचे से तो मतलब की नदी ही बहती है। हर आँगन लोग पलते पनपते हैं कितने रिश्ते समाज परिवार में गढ़ते हैं उपलब्धियों पर तारीफों में कहे लफ्ज़ निश्चित ही सुंदर भविष्य रचते हैं। पर वाकिफ होंगे जनाब आप भी निश्फिकरी मय बोली रद्दी रहती है क्योंकि तारीफों के पुल के नीचे से तो बस मतलब की नदी ही बहती है। लोक प्रदर्शन कार्य भी अति जरूरी होते दिनचर्या के उचित वक़्त में सम्पादित होते उन्हें पालने स्थल पर जब जाते हैं उत्सर्ग भाव का एहसास कर जाते हैं जन्म लेता तब एक व्यक्तित्व यहां पर अपनत्व से भरी राह खुदी बनती है क्योंकि तारीफों के पुल के नीचे से तो बस मतलब की नदी ही बहती है। राजनीति गलियारों को समझ चुके मोटी चर्बी बेशर्मी बोली से कान पके पक्ष-विपक्ष का जोर खत...
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
कविता

पीढ़ी-दर-पीढ़ी

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** दो पैरों की गाड़ी चलती जा रही है अवनि अम्बरतल सब देख रही है। कोरोना प्रकोप तांडव झेल रही है कुरुक्षेत्र के कृष्ण पांडव टेर रही है। जुनून था कभी जज़्बा बदल रही है नासमझी की राहें बलवा कर रही है। प्रदर्शन धरनों की बौछार सह रही है आस-विश्वास की व्यथा कह रही है। अपनों और सपनों को यूं तौल रही है कटु प्रवचन से जिंदगी जो खौल रही है नाटक पे नाटक के वो पट खोल रही है ममता-समता हर युग अनमोल रही है शिक्षा-संस्कार किस तरह संभाल रही है परिवर्तन अब परंपरा को खंगाल रही है। पुरखे धनपति चाहे पीढ़ी कंगाल रही है नव पारंगत पीढ़ी अब गुरु-घंटाल रही है। मेहनत मन्नत खिदमत की फ़िज़ा रही है किस्मत ताकत आदत की रज़ा रही है नेता नव-भारत के मंसूबे सजा रही है जनता ढपली से अपना राग बजा रही है हौसलों से अब फासलों को नाप रही है गुजरी यादें अपने हाथों से ताप रही है चालें ...
वक़्त के वक्तव्य
कविता

वक़्त के वक्तव्य

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** वक़्त पर वक्तव्य होता, कृतत्व से ही पार होगा कल के इंतज़ार में बंधु, जीवन दुश्वार ही होगा। "काल करे सो आज कर, आज करे सो अब पल में परलय होएगी, बहुरि करैगो कब" कबीर की साखी से, कर्मों में सुधार ही होगा कल के इंतज़ार में बंधु, जीवन दुश्वार ही होगा। आज का भी काज है, कुछ कल का भी होगा टालने की आदत से, आखिर किसका भला होगा भला खुद का ना करो तो, कई गुना भार होगा। कल के इंतज़ार में बंधु, जीवन दुश्वार ही होगा। हर कार्य समय पर होना, माना संभव ना होगा अनायास विवशता चक्रों से, सबका परिचय होगा नैतिक शिक्षा अभाव से, मानव जार-जार होगा कल के इंतज़ार में बंधु, जीवन दुश्वार ही होगा। शान बनती पूर्णता से, टालने का भी नशा होता स्वबिम्ब ही गुम जाए, ऐसा धुंधला शीशा होता क्षमा दया का पात्र बने, जीवन तार -तार होगा कल के इंतज़ार में बंधु, जीवन दुश्वार ही होगा। कर्...
जलन कायदा
कविता

जलन कायदा

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** जलन से कैसे हो सकता फायदा भाई जलन का भी कोई कायदा। नमन नही बन सके कोई भुलावा जतन करने में कैसा रहे छलावा वहन करता मनुष्य ही काम का काम ही पहिया बने उस नाम का जलन से कैसे हो सकता फायदा भाई जलन का भी कोई कायदा। अकड़बाजी बन गई क्यूँ दस्तूर है बहस से भी रहता आखिर दूर है वजह नहीं फिर भी बनता बावला रिश्तों में क्यों लाए सतत फासला जलन से कैसे हो सकता फायदा भाई जलन का भी कोई कायदा। खलल स्वभाव विकास की रोक है पहलगामी तो अंतर्मन की खोज है चहल से ही बढ़ता जाए जब दायरा निश्चय मानुष बन सकता है आसरा जलन से कैसे हो सकता फायदा भाई जलन का भी कोई कायदा। जलन करने की कोई तो सीमा हो दहन भाव कभी कभी तो धीमा हो शब्द ज्ञान बनाते जब शायर शायरा चकरा जाते हैं देख देखकर माजरा जलन से कैसे हो सकता फायदा भाई जलन का भी कोई कायदा। सहन करता इंसान ही जीवट बने मिलन...
मजबूर शव-यात्रा
दोहा

मजबूर शव-यात्रा

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** कलयुग को कोसा बहुत, संकट में हर बार। सीमा पार युद्ध संग, कोविड की भी मार ।। महामारी ग्रहण में, बहुत विरोधी तंज। कलयुग की इस दशा पे, घोर त्रासदी रंज।। द्वापर काल कृष्ण से, मिला खूब संदेश। छल कपट से लूट भाव, होगा हर परिवेश।। घरों घर रावण बैठे, लाते कितने राम। कोविड छाए हर गली, नहीं शेष अब धाम।। विरोध सहमत फेर में, सतत बढ़े प्रभाव । महामारी फंद कहे, खेलो अपने दांव।। परे हुए माया मोह, अब जीवन की चाल। हाल बिगाड़े बुरी तरह, सपने सब विकराल ।। धन-बल के तमाशबीन, जड़ बुद्धि के अधीन। सुरक्षा साधन भूलकर, हो गए अति मलीन।। बिंदास जीने वाले, बुरी तरह लाचार। कोविड डर आतंक से, भूले निज आधार।। अंतिम पथ प्रस्थान में, मात्र जरूरी चार। शव-यात्रा भी मजबूर, सूनी बिन परिवार।। परिचय :- विजय कुमार गुप्ता जन्म : १२ मई १९५६ निवासी : दुर्ग छत्तीसगढ़ उद्योगपति :१९७...
ढिलाई बनी बुराई
कविता

ढिलाई बनी बुराई

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** बचपन की ढिलाई ने जीवन राह बताई सबको ही सिखलाई,कितनों ने अपनाई। समयचाल ने कर्म ज्ञान महिमा समझाई बेफिक्री लापरवाही ने निज सूरत दर्शाई परिणाम साक्षी खुद की कुशल चतुराई बचपन की ढिलाई ने जीवन राह बताई सबको ही सिखलाई कितनों ने अपनाई। समझदार को इशारा या चपत चिपकाई मानव चले यथेष्ट अथवा हार गई खुदाई भ्रमित परिवार चुकाता जिसकी भरपाई बचपन की ढिलाई ने जीवन राह बताई सबको ही सिखलाई कितनों ने अपनाई। बिन पैरों चलकर सच बन जाए वरदाई सच सुन पाने का साहस सत्व सुखदाई बुराई रूपी रावण का अंत करे अच्छाई बचपन की ढिलाई ने जीवन राह बताई सबको ही सिखलाई कितनों ने अपनाई। श्रेष्ठ मार्ग में निरंतर मिलती है कठिनाई प्रभु 'राम-कृष्ण' जीवन झलक प्रभुताई दर द्वार के दामन दहके दारुण हरजाई बचपन की ढिलाई ने जीवन राह बताई सबको ही सिखलाई कितनों ने अपनाई। कहा सुना 'समरथ क...
खौफ साए में
कविता

खौफ साए में

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** खौफ साए में जिंदगी पल रही लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही। श्रम योग ने कभी रखी शिलाएं अब घेर रही हैं विभिन्न बलाएं टीस देने लगी जो शेष आशाएं खीझ जन्य चाल तो खल रही भीत से सभी दिशाएं हिल रही खौफ साए में जिंदगी पल रही। लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही।। याद आते मेहनतों के वो मंजर हल चलाए जहां भूमि थी बंजर सफल पीढ़ी कमान थामे सुंदर दीन बन कृतत्व कला गुम रही सीख समय की साहस भर रही खौफ साए में जिंदगी पल रही लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही।। कार्यशाला पाठशाला संस्कार हर सूरत प्रावधानों का विचार सामर्थ्य अनुसार होता विस्तार हीन सा जीवन चाह भटक रही बीन बजाती जिंदगी सटक रही खौफ साए में जिंदगी पल रही लक्ष्य विहीन मंजिल चल रही।। कर्मक्रान्ति ने कई रंग दिखाए दिनचर्या सीमित परिधि आए निराश मन को अब मौन भाए सीप मोती से शिकायतें कर रही रीझकर कलम इबारतें रच रही खौफ साए में...
सिक्के के पहलू
कविता

सिक्के के पहलू

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** सिक्के के दो पहलू जैसे, निर्णय में होते दो जवाब। अच्छा या कम अच्छा, एक हो सकता बहुत खराब। अलौकिक दुनिया में कभी, भाग्य एक सा नहीं होता। देखा नहीं दुख अभी तलक, कोई उम्मीद रोशनी खोता। दुख दरिया का पड़ाव, कब बन जाता सैलाब। सिक्के के दो पहलू जैसे, निर्णय में होते दो जवाब। अच्छा या कम अच्छा, एक हो सकता बहुत खराब। किनारे नज़र ना आये कभी, जुगनू भी नहीं होता। कुछ आशाओं की मंशा में, रात रात नहीं सोता। हाथ खींचते नज़र चुराते, काम ना आये कभी शराब। सिक्के के दो पहलू जैसे, निर्णय में होते दो जवाब। अच्छा या कम अच्छा, एक हो सकता बहुत खराब। वक़्त पलटकर रख देता, निश्चय फिर पलटे जरूर। कर्मरथी के राही को, दायित्व बोध बने सुरूर। जब सीखे संस्कार घरों से, जीवन जीते ज्यों नवाब। सिक्के के दो पहलू जैसे, निर्णय में होते दो जवाब। अच्छा या कम अच्छा, एक हो ...
भारत थाम लिया
कविता

भारत थाम लिया

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** चक्रवात तूफान, कोरोना कहर, और बदमिजाजों की भाषा देखकर सृजित हुई कविता। जज़्बों ने एहसासों से लड़ना सीख लिया देश ने भी तूफानों से लड़ना सीख लिया। कभी बेगाने अपनों से ज्यादा अच्छे होते फिर चलित कथन है अपने तो अपने होते बेगानों का निःस्वार्थ समर्पण देख लिया जज़्बों ने एहसासों से लड़ना सीख लिया। शानो शौकत चकमक गाथा शाहों की सहयोगी योद्धा व्यथा है उन बाहों की मजदूर कृषक गरीब आहों को परख लिया जज़्बों ने एहसासों से लड़ना सीख लिया। धरातल सागर चोटी पर सेवा की बरसातें नियम तोड़ते जाहिलों की कुत्सित सौगातें कड़े कानून से अब बहुतों ने सबक लिया जज़्बों ने एहसासों से लड़ना सीख लिया। जन्म मृत्यु वाली माटी का यही अफसाना कुछ तो ऐसा हो भविष्य याद में रह जाना माटी पे छाया प्रकोप विध्वंस जान लिया जज़्बों ने एहसासों से लड़ना सीख लिया। घर रहकर जीवन आनंद बहुत अनोखा था व...
पंडाल बनाम अवध महल के राम
छंद

पंडाल बनाम अवध महल के राम

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ********************                        (ताटंक छंद) रामायण महाभारत कथा कलयुग को सौगाते हैं दिखे हरेकयुग खोटे चरित्र, कुटिलचाल अपनाते हैं रावण गुणवान अहंकारी, जिससे धरा थर्राए थी भाई विभीषण जपते राम, गाली खरा सुनाए थी बहन शूर्पणखा चालाकी, लंका मरा बनाये थी भाईबहन की साजिशों से, कलयुग में मिट जाते हैं रामायण महाभारत कथा कलयुग को सौगातें हैं दासी मंथरा कुटिलता से, रामतिलक रुकवाती है कैकेयी प्रभावित होकर, हक दशरथ से पाती है समक्ष भरत के आते ही जो, मंगलथाल सजाती है दशरथ वचनपालन खुशी से, वनगमन रामजाते हैं रामायण महाभारत कथा, कलयुग को सौगातें हैं संतानमोह और कुटिलभाव, तात पर हैं जरा भारी दुर्योधन की धमकियां सुनते, सदा सहमाडरा जारी मामा शकुनि भी लेवे शपथ, दूषित परंपरा सारी पितापुत्रों मामाभांजों की, अनेक घर की बातें हैं रामायण महाभारत कथा, कलयुग को सौगातें हैं ...
राम जन्म भूमि
छंद, धनाक्षरी

राम जन्म भूमि

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** ढूंढे सारे थे विकल्प, अवधि भी नहीं अल्प पांच सदी काल बीते, शुभ दिन आने को। जोर शोर थम गया, वाक्य युद्ध थक गया प्रमाण पे रुक गया, भव्यता ही पाने को। राम जन्म भूमि युद्ध, राम नहीँ जरा क्रुद्ध देर है अंधेर नहीं, सत्य समझाने को। बहुत था अवरोध, राम काज में विरोध व्यर्थ हुई अपील भी, राम राज आने को। राम का चरित्र गान, रामायण पूर्ण ज्ञान एक चौपाई बहुत, मानव सजाने को। रघु रीति प्रण राम, मर्यादित सदा काम मर्म धर्म आठों याम, कर्म अपनाने को। हनुमान गढ़ी द्वार, सुरक्षा संकल्प भार पूजन विशेष यहां, भूमि के प्रवेश को। कैसे हो खुशी बखान, साक्षी अवध महान भारत नहीं दुनिया, राम पुण्य भूमि को। है जन्म अब सफल, कार सेवा थी अटल एकत्र है माटी जल, निर्माण कराने को। राम युग शान अब, धर्मियों का दान खूब रजत ईंट आधार, भव्य दरबार को। परिचय :- विजय कुमार गुप्ता जन...
क्या बताऊं
कविता

क्या बताऊं

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** कलम करती सृजन कृपा दृष्टि मां से पाऊं दुष्कर हालातों में, क्या समझूं क्या बताऊं। मन पिंजरा विचित्र, चाहे कुछ भी भरना है जो मन के अंदर, काश बने वो झरना सोचो तुम खुद ही, क्या रखूं,क्या बहाऊं विपरीत समय में, कुछ तो दिमाग लगाऊं दुष्कर हालातों में क्या, समझूं क्या बताऊं। मोबाइल नितांत जरूरी, बन गया जो आत्मा राहों के दुरुपयोग में, बहुतों का हुआ खात्मा बिन मोबाइल के अब, देखो कितना बौराउं नए विचार की पैठ, मॉडल नया मंगाउँ दुष्कर हालातों में, क्या समझूं क्या बताऊं। नया युग चल रहा, साथ रहे सद्व्यवहार खाली रहकर व्यस्त, अब कैसे जीवन पार सुने नहीं समझे नहीं, कैसे खुद को जगाऊं आत्मनिर्भर बनने, कितना बोध कराऊँ दुष्कर हालातों में क्या, समझूं क्या बताऊं। बिना अक्ल व मेहनत, काम हो आराम का ज्ञान और मौका जहां, स्थान नहीं काम का श्रेष्ठ यदि मिलता हो, खु...
“मैथिली” पथ प्रदर्शक
कविता

“मैथिली” पथ प्रदर्शक

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** दशा दिशा समाज सुधार जगत की बहुधा टूटी बिखरी है हर बार भूतल को ही स्वर्ग सदृश्य बनाने 'मैथिली' स्वप्न भूल चुके हैं यार मत भूलो इस देश समाज का तब तलक ना होगा पूर्ण उद्धार जलन स्वार्थ विवादों का पूर्ण अंत जड़ सहित मिटाना अबकी बार। दायित्वों का कैसा उपभोग किया अधिकारों का मनमाना उपयोग किया सामाजिक पद और रिश्तों को कटुता कलंक के पन्नों का रोग दिया पदों की गरिमा का हासिल क्या था जो पाया वो भी डूबा मझधार जलन स्वार्थ विवादों का पूर्ण अंत जड़ सहित मिटाना अबकी बार। सप्तम स्वर में स्व महिमा गुणगान लेकिन नेतृत्व क्षमता का अधकचरा ज्ञान लकीर घटाने की ओछी फितरत ने दिखलाई समाज को झूठी शान खोए संस्कारों को अब गली-गली पुनः रोपण कर खूब बढ़ाएं पैदावार जलन स्वार्थ विवादों का पूर्ण अंत जड़ सहित मिटाना अबकी बार। रौशन चिराग सम प्रतिभाशाली बच्चा समाज आधार औ...
रायता
कविता

रायता

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** कार्यगति का नहीं ठिकाना, बातें ज्यादा कर जाते हैं रायता आजकल खाते कम, ज्यादा ही फैलाते हैं। अभिमान दिलों में ज्यादा है, विरोध भाव समाया है समूह संगठन शक्ति को ही, गर्त में पहुंचाया है अकूत धन दौलत बल से, होशियारी जताते हैं रायता आजकल खाते कम, ज्यादा ही फैलाते हैं। आत्म प्रशंसा आदत से, खुद को खुश रखवाना है थोड़ी बदनामी भी सहकर, नाम बड़ा चलवाना है नुकसानी की हो क्या चिंता, तुच्छ कर्म दिखलाते हैं रायता आजकल खाते कम, ज्यादा ही फैलाते हैं बॉलीवुड क्या राजनीति में, रिश्ते गहन ही देखे हैं राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय डॉन, संपर्कों से लपेटे हैं कथा मीडिया कितना गाये, रोज बदलती बातें हैं रायता आजकल खाते कम, ज्यादा ही फैलाते हैं। एक डांटे तो दूजा सुनता, नीचापन दिख जाता है भारी सभाओं के नाटक में, कॉलर ऊंची करता है साथी को कलंक परोसकर, निज शोभा पा जाते हैं...
बारिश के आंसू
कविता

बारिश के आंसू

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** अपने दिल में जो पीड़ा सहते हैं, किसी को भनक नहीं लगने देते, वे बधाई के पात्र हैं क्योंकि बारिश में आंसू छिप जाते हैं, केवल हंसी दिखती है। मैंने इसी चिंतन को काव्य रूप दिया है। अंतर्मन की पीड़ा वालो संघर्ष बल की बधाई बारिश में आंसू छिपे, देती बस हंसी दिखाई। कष्ट छिपाकर जीनेवालों की कमी नहीं बचपन की बातें ठीक तरह से याद नहीँ चाह नहीं किसी खिलौने की जो दिखा कहीं पानी में कागज नाव चलाना भाव सही विवशता में जादू सी लिप्त धैर्य दवाई एक चॉकलेट ही माखन मिश्री और मलाई बारिश में आंसू छिपे, देती बस हंसी दिखाई अंतर्मन की पीड़ा वालो, संघर्ष बल की बधाई। बालपन की जिद तो खुद कृष्ण भी करते सुलभ सहज विचित्र कार्य शौक से करते परीक्षा में अव्वल बच्चे जब स्वयं ही बनते छात्रवृत्ति पाने की खुशियों को साझा करते उन बच्चों की कभी दिखती नहीं पढ़ाई जिद्दी स्वभाववश हो जात...