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Tag: रेणु अग्रवाल

ये औरतें भी न…
कविता

ये औरतें भी न…

रेणु अग्रवाल बरगढ़ (उड़ीसा) ******************** हर बार हैरान हो जाती हूँ मैं जब भी सोचती हूँ कि हार गईं ये ... लेकिन उठ खड़ी होती हैं एक नई शक्ति के साथ दो-दो हाथ करने रोज़मर्रा की तकलीफों से पता नहीं इतनी ताकत लाती कहाँ से हैं? ये औरतें भी न! कितनी आसानी से हर किसी के जीवन में अपनी जगह बना लेती हैं जैसे पानी हर बरतन जैसा ही हो जाता है एक जगह जन्म लेती हैं और फिर अपनी जड़ों समेत उखाड़कर एक नई ज़मीन पर लगा कर उगने के लिए छोड़ दी जाती हैं अजनबी लोगों के बीच इस तरह अपनी पहली रसोई बनाती हैं जैसे उसी रसोईघर में सदियों से पका रही हों छप्पन भोग ढूँढती हैं घर के हर सदस्य के जीवन में थोड़ी सी जगह अपने लिए कभी पुचकारी जाती हैं तो कभी फटकारी जाती हैं माँ बाप के नाम पर ताने भी खाती हैं कितनी भी हो प्रबुद्ध घर की मुरगी दाल बराबर अनपढ़ के नाम से ...
राम आते हैं
कविता

राम आते हैं

रेणु अग्रवाल बरगढ़ (उड़ीसा) ******************** युग-युग में आकर सदा अपना वचन निभाते हैं हर अहिल्या को तारने एक राम ही आते हैं। सदियों से हो सिलारूप असह्य वेदना भोग रही कब आएँगे वो तारनहार आतुर नैनों से जोग रही स्नेह स्पर्श देकर अपना उसकी व्यथा मिटाते हैं। हर अहिल्या....। पुरुष तत्व रहा दंभ भरा नारी को न स्वीकार पाया बदला था न बदलेगा कभी अहं विरासत उसने पाया अहं का मर्दन करते हैं वो पुरुषोत्तम राम कहलाते है हर अहिल्या को....। नारी पावन होकर भी देती रही अग्नि परीक्षा पुरुष प्रधान समाज ने कब जानी उसकी इच्छा हर सीता के आँचल में क्यों सदा काँटे आते हैं हर अहिल्या...। प्रेम आड़ में छलता जो स्त्री के कोमल मन को क्या पाएगा आत्मा को छूकर रह गया तन को प्रेम शक्ति की सत्ता की वो अनुभूति कराते हैं हर अहिल्या....। परिचय :-  रेणु अग्रवाल निवासी - बरगढ़ (उड़ीसा)...
कोई नहीं लिखता अब चिट्ठियां
कविता

कोई नहीं लिखता अब चिट्ठियां

रेणु अग्रवाल बरगढ़ (उड़ीसा) ******************** कोई नहीं लिखता अब किसी को चिट्ठियां अतीत का हिस्सा हुए खुतूत लाठी टेकती कॉपती बूढ़ी और जर्जर देह अब नहीं जाती डॉकखाने तक पोपले मुंह से पूछने- आया उसके बेटे का खत? अब नहीं लौटती उसकी टूटी और घिसा चुकी चप्पलें किसी खामोश निराशा की उबड़-खाबड़ पगडंडी से अब नहीं उलझता उसके लहंगे का कोई छोर किसी कांटेदार झाड़ी में नहीं टपकती उसकी आंखों से करूणा और ममत्व से लबरेज टप-टप आंसुओं की बूंदें गहरी निराशा में किसी बरगद किसी पीपल की धनेरी छॉह में बैठ ठंडी सांस भरते किसी को नहीं मिलती अब वे गुलाबी चिट्ठियां पाने के लिए जिन्हें अंगार-सी दहकती जमीन पर पांव नंगे दौड़-दौड़ जाते थे कि जिन्हें पढ़ने के लिए भी एकांत और चमेली का कोई झुरमुट जरूरी हुआ करता था जिनके पन्नें शिकवे-शिकायतों की दिलकश खुशबू से सराबोर होते जिन्हें रात को कंद...