धरती आबा के वंशज
राजेन्द्र लाहिरी
पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
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जनाब कितने आये
और कितने गये,
पर हम आज भी
वहीं हैं जहां थे
भले ही न बन पाये
आपके जैसे नये,
बुरी नीयत रख
हमारी कितनों जमीनें
साल दर साल आप हड़पे
मगर आज भी हम मालिक हैं
अपने खिलखिलाते
हरे भरे जंगल के,
यहीं हम ढूंढ लेते हैं सारी खुशियां
और जरूरतें जन मंगल के,
हमें मिटाने की हर
कोशिशों के बाद भी
हम अडिग हैं जस के तस,
हमारी हस्ती मिटा सको
ये नहीं है आपके बस,
जब मिटा नहीं पाते,
हमें हमारी जगहों से
हटा नहीं पाते तो
हमें कहने लगते हो
उपद्रवी या नक्सली,
जिस मानसिकता
के मिल जाएंगे
आपके लोग हर
चौराहे हर गली,
लेकिन लगा देते हो
हम पर इल्जाम,
जग में करते हो हमें बदनाम,
जो परिचायक है
आपके क्रूर सामाजिक
व्यवस्था का,
लाभ उठाते रहते हो
अपने सामाजिक,
राजनीतिक अवस्था का,
मत भूलो हम वाकिफ़ हैं
जंगल ...