सागर की उत्ताल तरंगें
मीना भट्ट "सिद्धार्थ"
जबलपुर (मध्य प्रदेश)
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सागर की उत्ताल तरंगें
हतभागी हैं तट सारे।
निष्प्रभ व्यथित मनुज बौराता,
अनुगामी हैं अँधियारे।।
मनुज -रक्त से कूप भरे हैं,
लुप्त भोर का है तारा।
सम्मोहित हैं अरुण-रश्मियाँ,
चादर ओढ़े उजियारा।।
मधु गुंजन को उपवन तरसे,
सन्नाटे से सब हारे ।
मौन हुईं अब साँसें-धड़कन,
भंग शांति है मरघट की।
दहक रहा है सूर्य आज तो,
मृत्यु निकट है पनघट की।।
छाई धुंध अनाचारों की
खंडित हैं भोले तारे।
क्रूर काल ने डाका डाला,
पुष्प हीन होती डाली।
जीवन की क्षण भंगुरता में,
खोई ओंठों की लाली।।
पीड़ित है मानवता सारी,
मूक-बधिर भाई चारे।
बहुत दूर है मोती घर का,
छलती है ठगिनी माया।
आडंबर की तूती बोले,
भ्रम में मिट्टी की काया।।
संकट में है मैना घर की।
बने शिकारी रखवारे।
परिचय :- मीना भट्ट "सिद्धार्थ"
निवासी : जबलप...