Friday, November 22राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर आपका स्वागत है... अभी सम्पर्क करें ९८२७३६०३६०

Tag: माधवी मिश्रा (वली)

कब से मदन रहा है सींच
कविता

कब से मदन रहा है सींच

माधवी मिश्रा (वली) लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** खिलते फूलों की खुशबू से महक रहा था मेरा मन चटक चाँदनी की किरणों से रश्मित था घर का आँगन जुही चमेली बेला गुढ़हल ओढ़े फूलों की चादर रात लजाती आई थी तू जग मग था सब अगर डगर चंदन की तब शोख महक ने कानो मे कुछ बोल दिया ज्यों भवरे की पंख ध्वनि ने बंशी का रस घोल दिया। कोमल कलियाँ फूल बन गयी थिरक रहीं सूरज के संग कमल कुमुदनी उठी उनींदी भूल गयीं रातो का रंग इंद्र धनुष की सतरंगी डोरी से जैसे बँधे हुए फूलो की अनगुथ वेड़ी ज्यों हो केशो मे सजे हुए आई थी मृदु विमल विभा सी रज्जु रथी तुम बन करके ज्यों हीरक तारावलियाँ उतरें भू पर छन कर के। सजा हुआ रति भवन सरीखा मंडप नभ के बीचों बीच फूलों सी नभ मन्जरियों को कब से मदन रहा है सींच। परिचय :- माधवी मिश्रा (वली) जन्म : ०२ मार्च पिता : चन्द्रशेखर मिश्रा पति ...
प्रेम
कविता

प्रेम

माधवी मिश्रा (वली) लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** प्रेम का एक कठिन इतिहास रचा रचना कारों ने आज मनुज के जीवन का इतिहास बन गया कल्पित प्रेम प्रकाश किया है भाषा का श्रिंगार और काव्यों का जटिल विकास समर्पित कर डाला माधूर्य कवि ने कविता मे चुप चाप प्रेम का दे जीवन्त प्रमाण प्रकृति की बृहद छटा का राग इसी मे हरि ने ले अवतार दिया जन जन को प्रीति पराग भूमि की मूर्त कल्पना कर दिया जब माता का सम्मान तभी से राष्ट्र प्रेम का आज अभी तक गूँज रहा स्वरगान कहीं पर देश कहीं पर प्रिया कहीं माता की स्नेह प्रतीति कहीं पर वेद कहीं कूरान सभी सद्गग्रंथो मे ये गीत प्रेम है वह अनंत सी भेट दिया विधिने है जिसे समान मृत्यु से अमर लोक के बीच बना डाला इसने सोपान प्रेम है सर्व व्यापी कर्तार यही है मूर्त रूप साकार यही पाषाण सदृश्य कठोर यही निर्झरिणी निर्मल रूप ...
मुट्ठी भर धूप
कविता

मुट्ठी भर धूप

माधवी मिश्रा (वली) लखनऊ ******************** किसने कहा तुमसे अपराध मेरे रगों मे बहता है मेरे खून का रंग सफेद है तुम्हारे आन्तरिक दुर्बलता को महिमा मंडित करती हैं ये संकीर्ण भावनाएं अपने स्वयं के कल्मशो से प्रेरित तुम चच्छुहीन चिंतन करने के अभ्यस्त हो अत:सोच भी नही सकते की मेरे भी खून का रंग लाल है मेरी भी अस्थियां तुम जैसी हैं फिर भी मैं तुम्हारी संवेदनाओं का अभिनंदन करता हूँ , जिसमे मेरे लिये अपावन ही सही स्थान तो है हमारे बीच विभाजक हैं अन्शुमाली की दस्यू किरणें जो तुम्हारे जन्म के साथ संचित हो जाती हैं तुम्हारे खातों मे किन्तु मेरे जन्म पर गुमनाम पिता की याद मे आँसू बहाती माँ, तड़प उठती है और मुझे पहचान नही देती गौरव से शीष उठाने का अधिकार नही देती धरती मुझे बिछौना देती है परन्तु संदेहों के शहर मे रोटी नही देती। दुनियाँ के कोलाहल मे 'मुट्ठी भर...
कोई कह दो की ये सब खत्म होगा
कविता

कोई कह दो की ये सब खत्म होगा

माधवी मिश्रा (वली) लखनऊ ******************** जिधर भी देखती हूँ रात्रि का पहरा जड़ा है पराजित हो तिमिर से भाष्कर जड़वत खडा है उजालो का कोई साथी यहाँ का तम हरेगा कोई कह दो की ये सब खत्म होगा समय के सामने रख कर करारी हार का शव अगर तू पूछता है क्यूँ हुआ इतना पराभव नहीं ये सच नही कह कर हमारा भ्रम हरेगा कोई कह दे की ये सब खत्म होगा कहाँ से आ गया भटका हुआ मनहूस साया जहाँ जो भी मिला इससे वही है मात खाया मिलेगा कौन जो अभिमान इसका कम करेगा कोई कह दो की ये सब खत्म होगा हमारी वत्सला धरती कभी क्या फिर हरी होगी विविध आभूषणो से युक्त मुक्ता की लड़ी होगी कौन फिर आ सकेगा जो की इसका क्रम बनेगा कोई कह दो की ये सब खत्म होगा। परिचय :- माधवी मिश्रा (वली) जन्म : ०२ मार्च पिता : चन्द्रशेखर मिश्रा पति : संजीव वली निवासी : लखनऊ शिक्षा : एम.ए, बीएड, एलएल बी, पीजी डी एलएल,...
व्यवस्था को फाँसी दो
कविता

व्यवस्था को फाँसी दो

माधवी मिश्रा (वली) लखनऊ ******************** अरे व्यवस्था को फाँसी दो नौनिहाल जो सींच रहे जिस पूंजी के लिये खोल माँ की तस्वीरें खीच रहे दौड़ रहे प्रभुता के पीछे अपनी, मर्यादा को भूल संस्कार आर्यों की धोकर चाट रहे पश्चिम की धूल उपभोक्ता संस्कृति नही थी अपने भारत की सन्तान इसको नंगा करके तुमने मिटा दिये अपनी पहचान आज अगर कानून बनाकर मृत्यु दण्ड तुम देते हो क्यों लगता है तुमको ऐसा समाधान कर लेते हो? नारी का सम्मान खरीदे भेज रहे आगे आगे मन की आखों से सोये दिखते बस जागे जागे अपनी सब पहचान छुपाते प्रतिकृति बन आधुनिक हैं पॉप सांग पर थिरक रहे हो कहते हो हम युनिक हैं। पूर्वज से मुख मोड़ चुके हो जग से नाता तोड़ चुके हो भाग दौड़ पैसो के खातिर बचपन सूना छोड़ चुके हो बालशुलभ मन को समझाए नैतिकता अब कौंन बताये आधी और अधूरी शिक्षा ये पागलपन और बढ़ाये। केवल बस सरकार बनाये नये खयालों की दीवार कहाँ-क...
जब निर्णय लेना मुस्किल हो
कविता

जब निर्णय लेना मुस्किल हो

माधवी मिश्रा (वली) लखनऊ ******************** जब जीवन के दोराहों पर, असमंजस के चौराहों पर कोई निर्णय लेना मुस्किल हो, और साथ मे अंधी मंजिल हो जब मन मस्तक मे द्वंद छिड़े, हृदय विवेक लड़े झगड़े फिर किसको कैसे समझाऊँ किस ओर कहां मैं झुक जाऊँ यह मूल समस्या जीवन की, अविराम रही उलझी उलझी पथ जाने कितने मोड़ मुड़े पर दिल दिमाग ये नही जुड़े सालीन विवेकी राहो मे काँटो के निर्मम तार के मिले हृदय गवाही दिया जिसे उसमे रखे औजार मिले ऐसी दुविधा ही बनी रही जब भी जितने भी कदम चले अब तक कोई ना हुआ अपना सबने मिलकर विस्वास छले।। परिचय :- माधवी मिश्रा (वली) जन्म : ०२ मार्च पिता : चन्द्रशेखर मिश्रा पति : संजीव वली निवासी : लखनऊ शिक्षा : एम.ए, बीएड, एलएल बी, पीजी डी एलएल, पीजीडीएच आर, एमबीए,। प्रकाशन : तीन पुस्तकें प्रकाशित अनेक साझा संकलन, काव्य, लेख, कहानी विधा पत्र पत्रिकाओं रेडियो दूरदर्शन पर-प्रकाशन, प्रसा...
पगली
लघुकथा

पगली

माधवी मिश्रा (वली) लखनऊ ******************** मैने उसे स्कूटर पर बैठाया और मुर्गीफार्म का पता पूछते परसुराम मन्दिर पहुच गयी। ये वही जगह थी जहाँ से मै उसे लेकर घर गयी थी। वापस लाते हुए उसकी मूक व्यथा का अनुमान लगाना एक भयावह कल्पना सी लगी वह नही जाना चाह्ती थी मेरा घर छोड़ किन्तु एक क्रूर निर्मम सामाजिक संरचना की अंग होने के कारण मुझे ये अपराध करना ही पडा। कुछ देर तक तो मुझे स्वयं पर ग्लानि की अनुभूति होती रही। सोचती रही की मै उसे ले ही क्यो गयी जब रख पाना कठिन था किन्तु ऐसा नहीं जब मैं अकेले इतने बड़े-बड़े निर्णय लेती हूँ तो ये निर्णय भी किसी के आदेश से थोड़े ही लेना था अतह ले गयी। एक गरीब दुखी भूखी प्यासी माँ के अंदर की चीत्कार ने मुझे हिला के रख दिया था। मैं सोचती गयी, सोचती गयी, पण्डित जी से मैने मन्दिर पर दुर्गा नवमी का हवन कराने के बाद किसी घरेलू नौकरानी दिलाए जाने की बात को कहा...