चुनावी दीवाने
प्रमोद गुप्त
जहांगीराबाद (उत्तर प्रदेश)
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देखा जिसको, वो चुनावी दीवाने लगे,
वे छोड़ धन्धा, गालों को बजाने लगे।
देश-दुनिया का जिनको पता ही नहीं
परिणाम, हार-जीत का, सुनाने लगे।
घोषणाएं क्या रिश्वत का ऑफर नहीं
एक हम हैं, लार अपनी टपकाने लगे।
व्यवस्था में ये दल भी विवश हैं सभी
झुन-झुने, अपने-अपने, दिखाने लगे।
हम देश-राष्ट्र का, अन्तर भूले सभी
दादा के संग संस्कृति भी जलाने लगे।
सत्य को पुस्तकों में किया है दफन
झूँठ को ही, कुतर्कों से सजाने लगे।
जैसे पशु, मैं धरा पर, विचरता रहा,
छोड़ डंडा, मुझको ग्वाले मनाने लगे।
परिचय :- प्रमोद गुप्त
निवासी : जहांगीराबाद, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश)
प्रकाशन : नवम्बर १९८७ में प्रथम बार हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेठ मासिक पत्रिका-"कादम्बिनी" में चार कविताएं- संक्षिप्त परिचय सहित प्रकाशित हुईं, उसके बाद -व...