तृष्णा
निर्मल कुमार पीरिया
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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खिलना चाहता हूँ मैं भी,
पर गमलो में उगे पौधों,
की तरह की नही,
ख्वाहिश है जंगलों-सी फैलने की,
ना कोई ओर ना छोर कोई,
शांत योगी से, फुसफुसाते हवा सँग,
उगना चाहता हूँ, बरगद की तरह,
सुनता पंछियों की कलरव, झांकते
नीड़ से पांखी, देते सुकू पथिक को,
जो भर दे साँसे जहाँ में...
चहचहाना चाहता हूँ,
चिड़ियों की मानिद, जी भर,
उड़ना चाहता हूँ, परिंदों के सँग,
पींगें भरता, जमी ओ आसमा के,
मिलन-रेखा तक...
महकना चाहता हूं,
फूल बहार की तरह नही,
स्वच्छंद बेलो की तरह
टेसू, कचनार ओ अमराइयों की तरह...
बहना चाहता हूँ,
पर नदी की नही,
सागर ओ झरनों के मानिद,
चट्टानों को चीरती, बन्धनों को तोड़ती
उन्मुक्त, बेखौफ लहरों की तरह,
थाह लेना चाहता हूँ,
अंनत मन की गहराईयों तक...
बरसना चाहता हूँ,
पर बदली सा नही
सावन की झड़ी सा,
तपती धरा पर, बंजर जमी पर,
सूखे अधरों पे, ...