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मजदूर और शहर
कविता

मजदूर और शहर

दीपाली शुक्ला कसारडीह दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** शहर तू क्या उसे भूला पाएगा? जो सहमा सा है शहर तू आँचल में छिप जाएगा, खून पसीना सींच भी वह ममता न पाएगा, उॅगली पकड़ चलाया जिसने तू उसे भूला जाएगा, मकान तो छोड़ ही दे वह चारदीवारी न पाएगा, वह जानता नहीं क्या मिला उसे यहाॅं, न जानता है वहाॅं क्या मिल पाएगा, जिस तरह जानता है हर डगर को वह यहाॅ, उसके इस सफर को क्या कोई समझ पाएगा, कभी खुद को न तुझसे मिला पाएगा, दिल में फिर भी न तूझसे गिला पाएगा, अपना न सका तू अलविदा भी न कह पाएगा, क्यों तेरे खातिर वह मिट्टी वतन की छोड़ आएगा, बापू ! पूछना मत अब, कब तक लौट आएगा, यह जवान बाजूओं के दम से, सैलाब न रोक पाएगा, बापू बेटा चला है तेरा भी, और मेरा भी, दुआए पहुॅची उस तक, तो एक तो लौट ही जाएगा, सपने जिससे सहेजे थे, वह ताले तोड़ लाएगा, हर चीज उस पेटी की हकीकत ही बेच खाएगा, उसकी बाती बिना तू आँगन...
वह यादें
कविता

वह यादें

दीपाली शुक्ला कसारडीह दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** वह यादें....... ठहरी हुई है रफ़्तार आज सामने वाली सड़क में, पर वह तो मुझे उन गहराइयों से मिलने बुलाती है, वह यादें समंदर से बनी है या समन्दर यादों से पता नहीं, उथल पुथल तो इसलिए मची है कि वह जरिया किसे बनाती है कभी तहरीर की नाव मुझे मंज़िलों तक पहुंचाती है, तो कभी तस्वीरों की उड़ान सीधे वहां छोड़ जाती है, कभी पतंगों के धागे के साथ चढ़ जाती हूँ, तो कभी आंसुओं की धार में ही दूर बह जाती हूँ, कभी धुल भरी साईकल स्कूल छोड़ने जाती है, कभी मिटटी की खुश्बू कागज के नाव बनाती है, कभी वो गुड़िया उन गर्मियों में ले जाती है, तो कभी गर्मियाँ उन खिलौनों की बात बताती है, कभी पुरानी किताब के अन्दर से दुनिया पाती हूँ, कभी उसके भीतर सालों बिताकर घंटों में लौट आती हूँ, कभी उन यादों को मुझ जैसा पाती हूँ, तो कभी उसका जादुई ताज पहन कायनात से खो जाती हूँ...