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Tag: डॉ. उपासना दीक्षित

काले साये
कविता

काले साये

डॉ. उपासना दीक्षित गाजियाबाद उ.प्र. ******************** क्यों बढ़ रहे, हमारी ओर यह काले-गोरे हाथ क्यों मिल रहा इन्हें अमानवीय सभ्यता का साथ यह नोंच लेना चाहते मानवता की कोमलता बच्चों की मुस्कराहटें स्त्रियों की सहजता.....। यह हाथ नहीं हैं यह है क्रूर छाया नष्ट करते आस्था मिटाते मनुज काया पाषाण हृदय, वहशी आंतक के यह पुतले युद्ध की विभीषिका को देख खूब हँसते फैल रही यह काले रंग की हानिकारक फंगस और न फैल सके इसलिए बढ़ानी होगी सीमाओं की चौकसी छोड़नी होगी, पैर फैला कर सोने की आदत पडो़सी के घर संगीनों की आहट खुद के घर पर भी देती अनचाही बुलावट रोकने होंगे, ड़राते पंजों के बढ़ते अहसास चौकन्ने होकर देखने होंगे विरोधियों के आघात हम युद्ध नहीं चाहते हम चाहते हैं शांति धैर्य की कसौटी पर होगी, हमारी घोषित क्रांति परिचय :- डॉ. उपासना दीक्षित जन्म ...
हृदयहीनता की कामना
कविता

हृदयहीनता की कामना

डॉ. उपासना दीक्षित गाजियाबाद उ.प्र. ******************** काश! मैं हृदयहीन हो जाऊँ । क्यों न मैं हृदयहीन हो जाऊँ ।। न हो मुझे किसी की निष्ठुरता का अहसास और न हो मुझे किसी की आत्मीयता का आभास किसी की मार्मिक तकलीफों में न हो शामिल मेरा चेहरा न देखूँ चिंता ग्रस्त माथे की लकीरों का डेरा न सुनूँ किसी की व्यथा का सफर न हो द्रवित देख टूटती बिजलियों का कहर मैं हर हलचल के प्रति उदासीन हो जाऊँ काश! मैं हृदयहीन हो जाऊँ । क्यों न मैं हृदयहीन हो जाऊँ ।। संवेदना से परे हो मुझमें कठोरता का डेरा मेरी प्रवृत्ति में बस जाए गिरगिट का चेहरा चुप रहूँ, न बोलूँ देख मानवता पर चोट जार-जार रोए कोई सोचूँ, होगी आंसुओं में खोट अनाचार की पराकाष्ठा पर मूंद लूँ अपनी आँखें प्रश्न न करूं चाहे घुट जाएं किसी की साँसें मैं अपने दायित्व के प्रति भावशून्य हो जाऊ...
बसंत
कविता

बसंत

डॉ. उपासना दीक्षित गाजियाबाद उ.प्र. ******************** समझो दुःखों का अंत पढो़ नव जीवन का मंत्र आ गया आनंद रुपी पवन छा गया श्रृंगार का सृजन जब बसंत छा जाये तुम आओ द्वार हमारे मैं दरवाजा खोलूँ हर बन्धन को छोडूँ तुम कुर्सी को खिसकाकर तकिये को तनिक टिकाकर बैठो हर चिंता छोड़े आलस को तन पर ओढ़े मैं भी सटकर यूँ बैठूँ गृहकाज की चिंता छोडूँ खिड़की को खोल सलीके लूँ मस्त पवन के झोंके हो चाय की प्याली रखी यादों की भाप उड़े यूं तुम याद करो तरुणाई हो मेरे साथ पुरवाई पीले फ़ूलों की आभा है प्यार तुम्हारा जागा तुम हौले से मुस्काओ बसंत के दूत बन जाओ न जागे तीव्र भावना हो केवल प्यारी भावना तुम समझो और मैं समझूँ कैसा है बसंत का आना तुम हम बनकर रह जाओ हम तुम बनकर रह जायें तुम मन का बसंत सम्भालो मैं तन का बसंत सम्भालूँ घर की दीवारें बोलें मन के दरवाजे खोंले अनुभव की सर्द हवाऐं बसंत के रंग नहायें त...
शिक्षक दिवस
कविता

शिक्षक दिवस

डॉ. उपासना दीक्षित गाजियाबाद उ.प्र. ******************** शिक्षा का कर्णधार, क्यों इतना लाचार, कलम की अस्मिता का, मूल्य हुआ निराधार, कलम के सिपाही, पर बेड़ियाँ हजार, असमानता की खाई में, गिर कर हुआ बेकार। आरक्षण की वैसाखी, और व्यक्तिगत संस्थाएँ, शिक्षक की गरिमा को, खूंँटी पर लटकाते, घिसो कलम और घिसो, रक्त बूँद शेष तन में, और घिसो और घिसो, मुँह न खोलो, होंठ सिलो, कम वेतन, कार्य करो, शिक्षा का सूत्रधार, रो रहा लगातार, कलम की अस्मिता का, मूल्य हुआ निराधार। विश्व गुरु का मन अस्वस्थ, पर पुस्तक पर दृष्टि पैनी, रोटी की आपाधापी, बातें 'प्रमुख 'की सहनी, राजनीतिक पदों पर, अनपढ़ों की भरमार, राष्ट्र का निर्माता बना, वित्तहीन बेरोजगार, सत्ता के मदान्धों ने किया, शिक्षा का बंटाधार, बंदरों की मंडली में कैसे, हो शिक्षक दिवस साकार। परिचय :- डॉ. उपासना दीक्षित जन्म - ३० दिसंबर १९७८ पिता - स्व. ...
पाखंड
कविता

पाखंड

डॉ. उपासना दीक्षित गाजियाबाद उ.प्र. ******************** सदियों से अपरिभाषित न कोई आकार न कोई प्रकार बेढंगे साँचों में पोषित और साकार अव्यक्त चीत्कारों में चहकता पाखंड कलुषता की भट्टी में दहकता पाखंड। व्यक्ति अनेकों खड़े चेहरों पर परत चढ़े कुटिल मुस्कानों की चमक लिए आगे बढ़े सादगी के चोले में छिपा हुआ पाखंड बात की सहजता का दंभ भरता पाखंड। काया की उन्मुक्तता भावों की गम्भीरता पाप का संसार और घृणित घोर कामना बहुरंगी माया का जाल बना पाखंड। जिधर देखो, उधर दिखे प्रेम का पाखंड सत्य का पाखंड संस्कारी पाखंड व्यभिचारी पाखंड ममता का पाखंड गुरूता का पाखंड आदर का पाखंड लज्जा का पाखंड मित्रता का पाखंड शब्दों की कमी भले पर बहुआयामी पाखंड कलियुगी माया में और चिरन्तन काया में फलता-फूलता और बढ़ता बहुमुखी पाखंड। परिचय :- डॉ. उपासना दीक्षित जन्म - ३० दिसंबर १९७८ पिता - स्व. ब्रजनन्दन लाल मिश्र...