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Tag: अर्चना लवानिया

हमारी हिंदी
कविता

हमारी हिंदी

अर्चना लवानिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** हिंदी है हमारी राष्ट्रभाषा पर दुख भरी है इसकी गाथा। हिंदी भाषी अक्सर समझ जाते अनपढ़, विदेशी भाषा बोलने वाले दिखाते अकड़। हिंदी दिवस महज एक पर्व। हिंदी बोले और लिखा तो आ वे शर्म। अपनी मातृभाषा का युवा करते तिरस्कार, गैर भाषा के सीखे सारे अचार विचार। आओ कुछ यूं करें कि हिंदी का बड़े मान, यह वेद ऋचाओं की वाणी मुनियों का है ज्ञान। रस छंद अलंकारों का इसमें है भंडार, अंतर मन के सारे भावों का है यह अनुपम आधार। सहज सरल सुंदर मीठी सी मां की ये है लोरी, बचपन यौवन इसके आंचल में पलते हैं सारे हमजोली। हिंदी हमारे अस्तित्व का मजबूत है धागा, हिंदी हमारी सिरमौर और गौरव की है गाथा। हिंदी बिन हम प्राण ही और भाव शून्य से, येहमारी सो,च कल्पना, उत्साह और जीवन की परिभाषा। शपथ लेते हैं रहेंगे सदा इसके रक्षक, बोलचाल और कामकाज...
वो लड़की
लघुकथा

वो लड़की

अर्चना लवानिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** थोड़ा ध्यान पढ़ाई पर भी दिया करो हर थोड़ी देर मैं कक्षा के बाहर जाने का बहाना बनाती रहती हो। पढ़ना लिखना कब सीखोगी? कभी-कभी गुस्से में और ना जाने क्या-क्या कह जाती। शायद उसे पढ़ाई में बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं थी इसलिए वह कभी मेरी स्नेह पात्र नहीं रही। पर उसे तो जैसे मेरी किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था। उस दिन मुझे सुबह से ही सिर दर्द और बुखार सा महसूस हो रहा था कक्षा में भी अनमने ढंग से कुछ पढ़ाई कराई फिर ज्यादा तबीयत खराब होने लगी तो सर टेबल पर टिका दिया। बच्चे चिंतित होने लगे क्या हुआ मैम ..क्या हुआ.....? कर-कर के फिर अपनी बात और अपने काम में लग गए। भोजन अवकाश में मैं अपने ऑफिस में आकर बैठ गई तो फिर वही लड़की आई मैंने थोड़ा चिढ़कर कहा अब क्या है? खाना खा लो और हम लोगों को भी यहां चैन से बैठने दो। उसने थोड़ा सकुचा...
नीलान्चल
कविता

नीलान्चल

अर्चना लवानिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** बारिश की बूंदों से धूलकर मटमेले बादलों की कैद से मुक्त होकर गगन भी नीलांबर बन मुस्कुराया है। सुदूर पर्वत की चोटियां लगती है नीलमणि सी, फैला रही नीलिमा चारों ओर। ओढ़ लिये है पेड़ों ने भी नीले दुशाले धरती की हरीतिमा और नभ की नीलिमा रच रही जादू रंगों का अवर्णित संयोजन। नीलांग पवन उड़ रही ओढ़ नील वसन तट बंधो तक भरे हुए यह नीलक्ष सरोवर नीली आंखों से तकते हैं चहूँ ओर। खिल उठे हैं सपनों से अनगिनत निलांबुज प्रेम पराग बिखेरते नीलोत्पल। नीलांजन भरे नेत्र वसुधा लगती नीलांजना, शनै-शनै फैलता नीलाभ बिखरता यह नींल रंग का जादू नील कृष्ण सा चित्त को हर्षाता हो। मानौ समेट रहा हो अपने बाहुपाश में वसुधा को अपने नील रंग में रंग कर।। परिचय :- अर्चना लवानिया निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रम...
सिंदूरी बंधन
कविता

सिंदूरी बंधन

अर्चना लवानिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** सिंदूर का यह सिंदूरी बंधन बांधे रहे तुम्हें मुझसे ... और मुझसे तुम्हें ।। चमको मेरे माथे पर बिंदिया की तरह महको मेरे तन मन में गुलाबों की तरह बिखरी हुई ये सांसे बांधे रहे तुम्हें मुझसे .... और मुझसे तुम्हें ।। बस जाओ मेरी आंखों में काजल बन कर बिखरो मेरी जुल्फों में फूलों की तरह संदली सी ये खुशबू बांधे रहे तुम्हें मुझसे और मुझसे तुम्हें ।। लिख दो मेरे आंचल पे कहानी अपनी भर दो मेरे दामन में सारी रवानी अपनी डूब जाऊं कि तेरे रंग के सिवा कोई रंग ना भाई मुझको रंगों का यह सतरंगी बंधन बांधे रहे तुम्हें मुझसे .... और मुझसे तुम्हें ll परिचय :- अर्चना लवानिया निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। ...
स्त्रियां
कविता

स्त्रियां

अर्चना लवानिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** स्त्रियां समाहित होती हैं घर के कोने कोने में अखबार की घड़ी से चाय की चुस्की में सलीके से बिली गोल रोटी और सोंधी-सोंधी खुशबू में आंगन में दाना चुगते चह-चहाते पंछियों के सुर में गमलो और बैलों में निकली नव कलियों में स्त्रियां समाहित है ... तुलसी चौबारे पर जलते दिए में सुघडता से चमकते घर और लीपे पुते आंगन में स्त्रियां समाहित होती है... अभावों को खूंटी टांग चेहरे की सहज मुस्कान में दुख दर्द की विभीषिका में सुख का आंचल बंन कर स्त्रियां समाहित होती हैं... पेपर की संभाली कतरन ओ पन्नों में पुरानी चीजों से फिर नई साज सवार का कौशल बनकर स्त्रियाँ समाहित है .... पेंसिल से लिखें नए नवेले कच्चे अक्षरों में जीवन सुख दुख का सहज गान और लोरी बनकर स्त्रियां समाहित है... संध्या दीपक आरती और घंटी ...
चांदनी
कविता

चांदनी

अर्चना लवानिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** आसमान में बादलों का डेरा और चांद का सफर गोरे काले छितरे से बादलों में चांद कभी छुपता कभी निकलता बच बच के भागा जा रहा है ना जाने कहां? मध्यम सी रात नीरवता छाई है चांदनी फिसल रही है छतों से मकानों से आकर पेड़ों पर अटक गई आहिस्ता-आहिस्ता पत्तियों से टपकने लगी चांदनी ... अब धीरे से गली में बिखरने लगी असीम शांति की अनुभूति ... मैं आंखों से बटोरने लगी अस्तित्व में समोने लगी चांदनी की शुभ्रता चांद फिर बादलों से उलझा अठखेलियां करने लगा चांदनी सिमटी फिर बरसने लगी पेड़ों के साए बढ़ने लगे अजब खुमारी छाने लगी लगा समय थम जाए बस ये चांद चलता रहे मैं चांदनी पीती रहूं इस निशब्दता को जीती रहूं ये हठी चांद चलता ही जा रहा है अब खिड़की पर ठिठक गया श्वेत धवल चंचल चंचल चांदनी कमरे में बरस पड़ी उनिदी आंखों...
तेरे झूठे मन से
कविता

तेरे झूठे मन से

अर्चना लवानिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** तुझसे तेरे झूठे मन से मैंने कर ली कुट्टी मैं नहीं बोलती। जब देखो तब मुझे सताए बात बात में रूठ जाए मुझसे हर एक राज छुपाए मैं मन का हर भेद खोलती, नहीं बोलती। गली मोहल्ले नाच नचाए आमराई में मुझे बुलाए कान्हा बनकर बंसी की हर ताल ताल पर मुझे नचाए कह दो इस गांव की राधा ऐसे वैसे नहीं डोलती, नहीं बोलती। खींचकर प्यार की लक्ष्मण रेखा वह अपने अधिकार जताए छू ले मेरी कंघी टिकुली आंखों से दर्पण दिखलाएं मेरी क्वारी नजरें शर्म से झुकती टटोलती, नहीं बोलती। कसमें वादों की नींव पर सपनों का इंद्रधनुषी महल बनाए रहेगा प्यार कयामत तक हर पल एहसास कराएं खुशी-खुशी मैं प्रीत के आंगन दिन दोपहरी रात डोलती, नहीं बोलती। उसकी कसमें टूट गई टूट गए कितने वादे लादे फिरते हैं फिर भी जर्जर आस को साधे मैं हूं उससे रू...