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पड़ाव

राकेश कुमार तगाला
पानीपत (हरियाणा)

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सरला बुआ आ रही है। बच्चों ने सारा घर सिर पर उठा रखा था। बच्चें हमेशा बुआ का इंतजार भगवान की तरह करते थे। करें भी क्यों ना? बुआ जब भी आती, बच्चों के लिए बहुत सा सामान लेकर आती। खिलौने, कपड़े, किताबें-कापी, पेंसिलें और कलर बॉक्स के डिब्बे। बुआ को हमारे घर की स्थिति का पूरा ज्ञान था।
पापा मजदूरी करते थे। वह बड़े दब्बू-किस्म के इंसान थे। अगर उन्हें कोई थोड़ा सा भी झिड़क देता तो घर बैठ जाते थे काम छोड़कर। घर की कमजोर स्थिति भी उनसे छिपी ना थी। पूरा परिवार दया का पात्र था। पर पापा का दब्बूपन किसी से छुपा नहीं था। वह ढीले थे, काम इतना धीरे करते थे कि कोई भी मालिक उनसे खुश नहीं था। माँ उनके बिल्कुल विपरीत थी चुस्त-दुरुस्त। वह घर-घर जाकर सिलाई के कपड़े ले आती थी। बढ़िया सिलाई करती थी। नए-नए डिजाइन बनाती थी। आस पड़ोस के लोग उनके द्वारा सिले कपड़े खूब पसंद करते थे। अच्छे स्वभाव के कारण, माँ को मजदूरी भी समय पर मिल जाया करती थी। घर जैसे-तैसे चल रहा था। माँ पापा से बहस करने से कतराती थी। वह चुप रहना पसंद करती थी। पापा इसी चुप्पी का फायदा उठाकर घर पर पड़े रहते थे। कोई भी उनसे कुछ पूछने की हिम्मत नहीं करता था।
सरला बुआ से पापा कुछ डरते थे। या यूँ, कहे शर्म करते थे। जितने दिन वह हमारे घर पर रहती थी। पापा कहीं ना कहीं मजदूरी करते रहते थे। असल में वह सरला बुआ का सामना नहीं करना चाहते थे। यह बात बुआ भी अच्छी तरह जानती थी कि उनका भाई एक नंबर का दब्बू है। वह तो उन्हें नाम के स्थान पर दब्बू ही पुकारती थी। मैंने एक दिन पापा से पूछ लिया था कि बुआ आपको दब्बू क्यों बुलाती है? उन्होंने हँसते हुए कहा, क्योंकि वह मुझें बहुत प्यार करती हैं। मैं उनका प्यारा छोटा भाई जो हूँ।
दोपहर तक सरला बुआ घर पहुँच ही गई थी। पड़ोसी भी कहते नहीं थकते थे। सरला का मन मोम का तरह हैं। अपने भाई के बच्चों को जरा भी परेशान नहीं होने देती थी। समय-समय पर जरूरत की सभी चीजें पहुंचा देती है। बेचारे बच्चों के लिए, बेचारे ही तो है ये, बाप तो कुछ करता नहीं। सारा दिन खाट तोड़ता रहता है। इसे ही कोई काम नहीं मिलता सारी दुनिया में। पड़ोसियों की इस सोच को मैं भली-भांति जानती थी। पर मैं कर भी क्या सकती थी? मैं मन ही मन कह उठती थी कि पापा का दब्बू कभी खत्म होगा या नहीं। मैं मन मसोस कर रह जाती थी। घर आते ही हम भाई-बहनों ने सरला बुआ को घेर लिया। उनके पैर छुए, प्रणाम किया। वह बारी-बारी सभी के सिर पर हाथ रखती जाती। और दुआएं देती जाती।
पापा भी उनके पांवों को हाथ लगाते थे। वह उन्हें भी आशीर्वाद देती थी। पापा और बुआ में उम्र का अधिक फर्क नहीं था। पर बुआ उनसे काफी बड़ी लगती थी। बुआ की शादी जल्दी हो गई थी। उनके बच्चे भी हमसे उम्र में काफी बड़े थे। सभी विदेशो में पढ़ते थे। बुआ के पास उनका छोटा बेटा रहता था। वह बड़ा नटखट और शरारती था। बुआ उसे कम ही साथ लाती थी। वह जब भी घर आता सारा घर सिर पर उठा लेता था। ऐसी-ऐसी शरारते करता था, हमारा जीना-हराम कर देता था।
माँ तो हार मान कर बैठ जाती थी। मेरे साथ तो वह कमाल की हरकतें करता था। कभी कहता विमला दीदी, अब हम डांस करते हैं। ना करती तो बुआ ही कह देती कर लो डांस, नहीं तो यह सारा घर सिर पर उठा लेगा। पर बुआ मुझें तो डांस आता ही नहीं है। अरे यह बड़ा माइकल जैक्सन है। थोड़े लटके झटके दिखा दे, खुश हो जाएंगा और शांत बैठा रहेगा, ना चाहते हुए भी मैं मान जाती थी। पर वह एक मेरी कमर में हाथ डाल लेता और एक हाथ कंधे पर रखकर कपल डांस करने लग जाता था। मुझें बहुत शर्म आती थी। पर वह गंभीर मुद्रा में लगा रहता था। बीच में कह भी देता था, दीदी शर्म मत करो। वरना आपको डांस नहीं आएगा। मुझसे किस तरह की शर्म। मैं तो आपका सबसे प्यारा भाई हूँ ना। इतना सुनाते ही मैं भी डांस करने में जुट जाती थी, कपल डांस।
बुआ जी का सहयोग ही था। जो मैं कॉलेज तक पहुंच गई थी। वरना मम्मी-पापा तो कतई नहीं चाहते थे कि मैं कॉलेज में जाऊं। हमेशा अपनी गरीबी का रोना रोते रहते थे। कहाँ से आएगी तुम्हारी फीस, किताबें और रोज-रोज नए कपड़े? कॉलेज में पढ़ना तो बड़े घर की लड़कियों का शौक होता है। हमें तो बस उन्हें देख कर ही खुश हो लेना चाहिए। मैं भी मन मार कर रह गई थी। पर जब बुआ जी को पता चला कि मैं पढ़ना चाहती हूँ। तो वह खुद मेरे साथ कॉलेज गई। सारे साल की फीस एक बार में ही जमा करवा दी। कई नई पोशाके एक साथ खरीद दी थी। बस एक ही सलाह दी थी विमला जमकर पढ़ना। यह सीखने का दौर है। कॉलेज का जीवन, सबसे बेहतर हिस्सा होता है हमारे जीवन का, इसे भरपूर जियो।
बुआ की सोच बिल्कुल अलग थी। वह मेरे पापा-मम्मी की तरह संकुचित सोच नहीं रखती थी। उन्होंने घर पर आकर ऐलान कर दिया था कि विमला जब तक पढ़ना चाहे उसे पढ़ने दे। बाकी सब कुछ मुझ पर छोड़ दो। मम्मी- पापा तो अंदर ही अंदर कुढ़ रहे थे। पर बुआ के आगे बोलने की उनकी हिम्मत नहीं थी। मैं साल दर साल आगे बढ़ती जा रही थी। कालेज भी पूरा हो गया था। आगे भी पढ़ना चाहती थी। पर मैं बुआ पर और बोझ नहीं डालना चाहती थी। जब बुआ को इस बात का एहसास हुआ तो वह बहुत नाराज हुई थी। वह मुझसे कोई वास्ता नहीं रखना चाहती थी। मुझें ही झुकना पड़ा। बुआ जी ने मुझें अपने पास बिठाया और दुलार किया। तुम मुझें पराया क्यों समझ रही हो? क्या मैंने कभी तुम पर अहसान जताया है? कहो चुप क्यों हो?
नहीं-नहीं बुआ जी, मेरा वह मतलब नहीं था। फिर क्या मतलब था तुम्हारा? जल्दी कहो, मैं चुप हो गई। तुम जितना चाहो पढ़ो। मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ, और रहूंगी। मैंने यूनिवर्सिटी की शिक्षा भी पूरी कर ली। अगला पड़ाव था, बढ़िया सरकारी नौकरी पाने का। मैं अपनी मेहनत को लेकर बड़ी खुश थी। लगता था अब मंजिल दूर नहीं है। बस कुछ कदम और चलना है। मंजिल तक पहुंचने के लिए। पर मुझें प्रतियोगी परीक्षाओं में लगातार असफलता ही मिल रही थी। मेरा विश्वास टूट रहा था। मैं निराशा में डूब चुकी थी। जब बुआ को पता चला, तो वह मुझसे मिलने के चल पड़ी।
रास्ते में उनकी तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई थी। वह बोल नहीं सकती थी। डॉक्टर भी उनकी हालत पर चिंता व्यक्त कर रहे थे। मैं डर गई थी, कि मेरा एक मात्र सहारा भी मुझसे छीन जाएगा। और वही हुआ जिसका डर मुझें सता रहा था। बुआ जी, संसार को अलविदा कह गई थी। मुझें विश्वास नहीं हो रहा था। पर सच तो यही था।
माँ, मेरी जिंदगी थम सी गई है। मेरी जिंदगी का अगला पड़ाव क्या होगा? कौन मुझें सहारा देगा? मेरे आँसू थम नहीं रहे थे। माँ ने मुझें बुआ जी द्वारा लिखी आखिरी चिट्ठी पकड़ा दी। बेटी यही चिट्ठी आई थी, कुछ दिन पहले जब तुम परीक्षा के सिलसिले में दिल्ली गई थी। चिट्ठी खोलने से पहले ही मेरी आँख नम हो गई थी। क्या लिखा होगा? काश वह मेरे पास होती। मैंने चिठ्ठी खोली।
मेरी प्यारी बेटी,
शुभ-आशीष।
मेरा तबीयत ठीक नहीं रहती है। तुमसे मिलने की बहुत इच्छा हो रही। मैं तुममें अपना ही अक्ष देखती हूँ। तुम मेरा ही प्रतिबिम्ब हो। ज्यों-ज्यों तुम सफलता की सीढ़ी चढ़ती हो, मुझें लगता है। मैं भी तुम्हारे साथ सफलता की सीढ़ियां चढ़ रही हूँ। जब भी दर्पण में अपना चेहरा देखती हूँ। तुम्हें ही पाती हूँ। मुझें लगता है मैं सरला नहीं, विमला हूँ। तुम्हें हार नहीं माननी है, असफलताओं से। असफलता के बाद ही सफलता का पड़ाव आता है। तुम्हें इस पड़ाव तक पहुंचना ही है। कठिन परिश्रम करो। मुझें पता है जीत तुम्हारी ही होगी।
तुम्हारी बुआ, तुम्हारा प्रतिबिम्ब।
सरला बुआ
चिठ्ठी के अन्तिम शब्दों पर मेरी नज़र ठहर गई। मेरी आँखें झरनें की तरह बह रही थी। बुआ मैं तुम्हारे लिए ही अपना पड़ाव ढूंढ़ लूंगी। विमला नए उत्साह के साथ जुट गई। अपना आखिरी पड़ाव ढूंढने के लिए। उसकी मेहनत रंग लाई। वह विश्वविद्यालय की प्रोफेसर बन गई। सभी उसे बधाई दे रहे थे। घर पर मम्मी-पापा फूले नहीं समा रहे थे। माँ कह रही थीं, उसने अपना पड़ाव पर लिया हैं।
विमला, आज पता नहीं ऐसा क्यों लग रहा है? तुम्हारा चेहरा बिल्कुल सरला से मेल खा रहा है। मैं मन ही मन कह रही थी। मैं सरला बुआ की ही प्रतिबिम्ब हूँ। अगर उनका प्रतिबिम्ब ना होती तो कैसे अपने जीवन का पड़ाव पाती? वह अब भी दर्पण के सामने खड़ी होकर खुद में सरला बुआ को तलाश रही थीं। और बुआ को अपने पड़ाव के लिए धन्यवाद दे रही थी।

परिचय : राकेश कुमार तगाला
निवासी :पानीपत (हरियाणा)
शिक्षा : बी ए ऑनर्स, एम ए (हिंदी, इतिहास)
साहित्यक उपलब्धि : कविता, लघुकथा, लेख, कहानी, क्षणिकाएँ, २०० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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