सुरेश चन्द्र जोशी
विनोद नगर दिल्ली
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सामान्य जीवन यापन करना मूल सिद्धांतों, को बनाए रखते हुए अपने लक्ष्य पर स्थिर रहना, कर्म मार्ग में कभी प्रमाद न करना, पारंपरिक शिक्षा को महत्व देना, वेद, आयुर्वेद व ज्योतिष, कर्मकांड, पर अपनी प्रबल ज्ञान शक्ति से आस्था बनाए रखते हुए, पुत्रों को सुशिक्षित करना, इन सभी जीवन जीवन चर्या को जीने वाले व्यक्ति थे पंडित जीवानंद जोशी वैद्य। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र के जनपद चंपावत के दुर्गम क्षेत्र में “दुन्या” गांव में अठारह सितंबर उन्नीस सौ इकत्तीस प्रातः नौ बजकर सत्तावन मिनट पर जन्मे पंडित श्री जीवानंद जोशी “वैद्य” जी का जीवन संघर्ष की एक ज्ञानवर्धक पुस्तक के रूप में है।
चार भाई-बहनों में सबसे वरिष्ठ पंडित वैद्य जी की आयु जब बारह वर्ष की थी, तो उनकी माता श्री की मृत्यु हो गई थी जब मां की मृत्यु हुई थी उस समय सबसे छोटा बालक मात्र ढाई वर्ष का था, जो श्री “वैद्य” जी का अनुज था। छोटा भाई, जब रात में मां के दूध के लिए परेशान करता तो रोते हुए बालक (भाई) को शांत करने के लिए अपने ओष्ठ पिलाया करते थे। इस तरह दो बहनों व एक भाई का उन्होंने लालन पालन किया। अठारह वर्ष की अवस्था में गृहस्थ आश्रम में प्रवेश किया तो पत्नी का दक्षिण हस्त यानी दायां हाथ शक्तिहीन बहुत कमजोर था। उस समय संबंधों का आधार जाति गोत्र आदि ही हुआ करते थे देखने बातचीत करने आदि का कोई प्रचलन नहीं होता था, आपसी विश्वास ही संबंधों का आधार होता था। कुछ दिनों पश्चात जब परिवार में दूसरे विवाह की तैयारी की गई तो पंडित “वैद्य “जी ने स्पष्ट रूप से मना करते हुए कहा कि मैं राजा बनूंगा तो इसी के साथ और जोगी भी बनूंगा तो इसी के साथ, मुझे कोई दूसरा विवाह नहीं करना परिवार का अत्यधिक विरोध करने पर पंडित श्री जीवानंद जी कुछ दिनों के लिए घर से ही भाग गए थे, इस तरह उन्होंने अपने जीवन का पहला सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत स्थापित किया ।
सत्ताइस वर्ष की आयु पूर्ण होने से एक माह पूर्व प्रथम पुत्र के पिता बने थे पंडित वैद्य। और चौंतीसवें वर्ष व चालीसवें वर्ष में भी एक-एक और पुत्रों के पिता बनते हुए कुल तीन पुत्रों के पिता के रूप में इस संकल्प के लिए विख्यात हुए की पुत्रों को सुशिक्षित करके सुयोग्य नागरिक बनाना ही उनका जीवन लक्ष्य है। और एक पुत्र को शास्त्री बनाना प्रथम लक्ष्य बनाते हुए, बड़े पुत्र को अपने यजमान के पुत्र के साथ प्राथमिक शिक्षा के पश्चात ही उसे हरिद्वार भेज दिया, और स्वयं पांडित्य कर्म के साथ-साथ आयुर्वेदिक उपचार कार्यों में संलग्न हो गए।
पंडित वैद्य जी अपने कार्यों में अर्थ लाभ को कभी भी महत्व नहीं दिया करते थे, कार्य की श्रेष्ठ संपन्नता को ही अपना लाभ मानते थे। उनके एक यजमान बताते हैं कि उनके घर में पिताजी का श्राद्ध था लेकिन घर में चावल का एक दाना भी नहीं था तो हम पिंडदान कैसे कर सकते थे। हमने मात्र उपवास रखते हुए पितरों की प्रार्थना करने का निर्णय किया था, तब उस दिन हमारे पुरोहित पंडित श्री वैद्य जी आए, तो हमने उन्हें भी स्थिति से अवगत करा कर क्षमा मांगी कि हम श्राद्ध नहीं कर सकते। तो वैद्य जी ने अपने झोले से चावल की पोटली निकाली, और कहा कि चावल पकाओ हम लोग श्राद्ध अवश्य करेंगे, फिर उन्हीं चावलों का हमने भात बना कर परिवार के साथ श्राद्ध कर्म करके भोजन भी किया।
पुरोहित जी की विदाई के समय जब मैंने कहा कि वैद्य जी आपकी दक्षिणा कैसे दूं? तो उन्होंने उन्होंने जो हृदयस्पर्शी उत्तर दिया उसे मैं कभी भी नहीं भूलता हूं :- उन्होंने कहा कि भले-बुरे वक्त में मुझे याद कर लेना यही मेरी दक्षिणा है। यह सुनकर मैं बहुत प्रेरित हुआ, इस प्रकार के प्रेरणादायक उत्तर से प्रभावित वह यजमान, जब तक जीवित रहे तब तक पण्डित जीवानंद जोशी “वैद्य “जी के पुत्र जब भी गांव में जाते, उन के दर्शन करने आते थे कि मेरे आदर्श-पुरुष महान-पुरोहित वैद्य जी के पुत्रों के दर्शन करने आया हूं मैं। ऐसे दृष्टांतों के प्रतीक रुप आदर्श जीवन था पंडित जीवानंद जोशी वैद्य जी का। संपूर्ण जीवन परोपकार करते हुए वह भी बिना किसी लालच के ही समाज के लिए श्रेष्ठ साधना के रूप में अपना जीवन आदर्शो के साथ व्यतीत करते हुए कभी किसी सांसारिक सुख की कामना नहीं किया करते थे। कभी अपने खानपान और पहनावे पर ध्यान न देते हुए अपने सुंदर प्रेरणादायक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए स्वयं को समर्पित किया करते थे।
ज्योतिष पर दक्षता :- एक बार अपने प्रथम पुत्र के पश्चात हुए द्वितीय पुत्र की मालिश करती हुई, अपने ही पत्नी को बताया कि जिस पुत्र से इतना स्नेह कर रही हो वह ६ वर्ष की आयु में तुझे धोखा देकर दुनिया से चला जाएगा और ठीक छठे वर्ष में उस पुत्र की मृत्यु हो गई थी। उसके पश्चात अन्य भविष्यवाणियों के अलावा स्वयं के लिए भी भविष्यवाणी की थी कि मैं बावनवें वर्ष में मृत्यु को प्राप्त हो जाऊंगा, यदि अकस्मात बच गया तो मेरी उम्र बयासी वर्ष होगी। दुखद बात है कि बावनवें वर्ष में उनका यानी पंडित श्रीजीवानंद जोशी “वैद्य” जी संसार से चले गए थे इस प्रकार ज्योतिष में उनकी दक्षता थी।
दूसरा विषय आयुर्वेद था उस पर भी वे परम दक्ष व विख्यात थे। प्रसूति रोग का आयुर्वेदिक दवाइयों से समूल नाश कर महिलाओं को जीवन दान देने का सुअवसर परमात्मा ने पंडित वैद्य जी को दिया था।
संगीत में भी उत्कृष्ट दक्षता:- पंडित जी आनंद जी को संगीत में भी माता सरस्वती का अतीव श्रेष्ठ आशीर्वाद प्राप्त था राघव को रागों को भक्ति पर गायन करने में बहुत निपुण थे वेदांती राग गाते गाते तीन रात तीन दिन तक निरंतर बैठे रहने का इतिहास उन्होंने रचा था। हारमोनियम, ढोलकी, आदि वाद्य यंत्रों को बजाने में भी दक्षता हासिल अर्जित की थी पंडित वैद्य जी ने। इस प्रकार सभी शिक्षा व कलाओं के धनी थे पंडित जीवानंद जोशी वैद्य।
सत्यं सत्यं मुनेर्वाक्यं,
नादत्तमुपतिष्ठति।
अम्बुभिः पूरिता पृथ्वी
चातकस्य मरुस्थली॥
ऋषीमुनियों का यह वाक्य सच में सत्य ही है कि, जो दिया नही है वह मिलता नही है। यह धरा जल से पूर्ण है लेकिन, चातक के लिये तो वह निर्जल रण के समान ही है।….
पंडित श्री जीवानंद जोशी जी वैद्य के एक धनाढ्य ठाकुर यजमान की पत्नी का प्रसूत बिगड़ा और उसे दिल्ली के एम्स में भर्ती किया गया था। जिसे चिकित्सकों ने जवाब दे दिया कि ये अब नहीं बचेगी और इनकी सेवा करें जब तक जीवित हैं। तब ठाकुर साहब निराश होकर अपनी पत्नी को घर ले गए और इसके पश्चात एक दिन उन्होंने अपनी पत्नी को देखने के लिए पंडित वैद्य जी को बुलाया और उन्हें दिखाया। वे बताते हैं कि वैद्य जी ने नब्ज देखी और कहा कि ठाकुर तुम्हारी पत्नी को कुछ नहीं होगा। मैं करूंगा इसका उपचार और लगभग सात आठ महीने तक जंगल की जड़ी बूटियों के माध्यम से उपचार कर उन्हें पूर्ण रूप से स्वस्थ कर दिया। स्वस्थ होने के बाद एक माह पश्चात जब ठाकुर साहब नतमस्तक होकर वैद्य जी के पास आए उन्होंने कहा कि देश के सबसे बड़े अस्पताल ने तो मेरी पत्नी को जवाब दे दिया था। परंतु आपके सात आठ महीने के उपचार से मेरी गृहस्थी संभल गई और पत्नी अब पूर्णतया स्वस्थ है। आपने जड़ी बूटियां संग्रह की परिश्रम किया और बाहर से भी दवाइयां मंगाकर दी। परंतु अभी तक मुझसे कुछ नहीं लिया अब जब आपकी मरीज पूर्ण रूप से स्वस्थ होकर खेतों में भी पूर्ववत काम करने लगी है। तो कृपया अपना खर्चा व आठ माह की पूरी फीस बता दीजिए। ठाकुर साहब बताते हैं कि वैद्य जी ने कहा कि ठाकुर आपका परिवार बिखरने से बच गया यही प्रसन्नता का विषय है। जहां तक मेरी फीस व खर्चे की बात है, वह यह है कि भले बुरे वक्त में मुझे याद रखना, यही मेरी फीस है। यह बताते हुए ठाकुर साहब रो पड़ते हैं कि उसके बाद मेरी पत्नी पच्चीस वर्ष तक स्वस्थ रहकर जीवित रही, लेकिन वैद्य जी ने एक रुपया भी मुझसे नहीं लिया।
इस प्रकार उस समय के सभी लोगों की कोई न कोई अविस्मरणीय स्मृति उन लोगों के हृदय पटल पर है जिनका उपचार पंडित श्री जीवानंद जोशी वैद्य जी ने किया था। पांडित्य कर्म से अर्जित धन से, आयुर्वेदिक औषधि मंगा कर, उसमें स्वयं वन से जड़ी बूटियां लाकर, सम्मिश्रण करके पूर्णौषधी बनाकर मुफ्त में उपचार करने की धुन रहती थी।
स्वयं के लिए कभी भी एक जोड़ा कपड़ा एक साथ नहीं ले पाए थे पंडित श्री जीव आनंद जोशी वैद्य। एक बार अपने ही ग्रामीण भाई पंडित श्री दयाराम जोशी जी की पुत्री” लक्ष्मी “अत्यधिक बीमार हुई थी तब पंडित वैद्य जी अपने यजमानों के यहां अन्य किन्ही गांवों में गए थे । लक्ष्मी को सरकारी डॉक्टर को दिखाकर दवाई आदि लेकर आए , परंतु लक्ष्मी के स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ तो वह अपने बड़े भाई वैद्य जी की प्रतीक्षा करने लगे की भाई साहब आएंगे और उनके उपचार से लक्ष्मी ठीक हो जाएगी । क्योंकि तब बुलाने का कोई संचार माध्यम तो नहीं होता था, प्रतीक्षा ही कर सकते थे ।लेकिन स्थिति कुछ दुखदाई हुई जब लक्ष्मी अंतिम सांस ले रही थी तब पंडित वैद्य जी घर पहुंचे तो बिना उपचार शुरू हुए ही लक्ष्मी ने प्राण त्याग दिए। तब दोनों भाई गले लग कर फूट-फूटकर रोने लगे । एक को ना बुला पाने का दुख था , तो दूसरे को उपचार न कर पाने का दुख। और इस दुख से बाहर निकलने में दोनों को तीन साल लगे। तीन साल बाद पंडित श्री दयाराम जी के घर जब पुनः पुत्री का जन्म हुआ, तब जाकर दोनों भाइयों का मन शांत हुआ, कि उसी लक्ष्मी का पुनर्जन्म हुआ है। इस प्रकार के कई सुख-दुख के उदाहरण पंडित जीवानंद जोशी वैद्य जी के जीवन के अविस्मरणीय हैं।
ज्योतिष एवं कर्मकांड के प्रकांड- विद्वान पंडित जीवानंद जोशी वैद्य जी कभी भी कर्मकांड करवाते समय पुस्तक का सहारा नहीं लिया करते थे ।
शादी विवाह ,उपनयन,नामकरण, आदि जितने भी कर्मकांडीय कर्म करते थे उनके सारे मंत्र आदि उन्हें कंठस्थ थे,और बड़े सहज एवं अत्यंत प्रशंसनीय ढंग से अपने कर्म का निर्वहन किया करते थे । ज्योतिष विषय की दक्षता के बारे में हम बात कर चुके हैं । संगीत की पकड़ और उसमें उनकी अभिरुचि भी वंदनीय है ।उनके द्वारा प्रशिक्षित कई लोग अभी भी उन्हें परम सम्मान के साथ याद करते हुए उनको उनके प्रति नतमस्तक होते हैं । सादा जीवन उच्च विचार, आदर्श विचार ,अपने विचारों के प्रति सजगता पूर्वक कर्म निष्ठा का पालन करते हुए उन्होंने किसी भी कार्य के बीच में कोई बाधा स्वीकार नहीं की, नाही मृत्यु पर्यंत अपने किसी सिद्धांत का परित्याग किया । हां जीवन सुख, सांसारिक रूप में नहीं मिले इसमें कोई संदेह नहीं । परंतु इस सुख के न मिलने की शिकायत कभी किसी से नहीं की , सदैव शिव एवं शक्ति की आराधना में संलग्न रहते हुए अपने कर्तव्य की ओर ही ध्यानाकर्षण का किया । शिक्षा के सैद्धांतिक नियमों का पालन करते हुए सदैव शिक्षार्थी के रूप में ही स्वयं को प्रस्तुत करते हुए समाज के लिए एक उदाहरण पुरुष बने । आज भी लोग वैद्य जी के नाम से उन्हें बहुत सम्मान देते हैं और उनके आदर्शों के प्रति सभी क्षेत्रवासी नतमस्तक होते हैं । तथा उनके पुत्रों की सफलताओं को उनके ही तब का प्रतिफल मानते हैं।
दृढप्रतिज्ञो भीष्म पितामह सदृशो,
कर्मसिद्धान्तोऽनुपालक:।
युग-पुरुषो श्री जीवानंद जोशी”वैद्यं” ,
भूयोभूय:प्रणमाम्यहम्।।
भीष्म पितामह के सदृश कर्म के लिए दृढ-प्रतिज्ञा करने वाले तथा सदैव कर्मसिद्धांत का अनुपालन करने वाले युग-पुरुष पण्डित श्री जीवानंद जोशी वैद्य जी को मैं बार-बार प्रणाम करता हूं।
शिक्षा : आचार्य, बीएड टीजीटी (संस्कृत) दिल्ली प्रशासन
निवासी : विनोद नगर दिल्ली)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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