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अपने-पराये

नरपत परिहार ‘विद्रोही’
उसरवास (राजस्थान)

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  खुशीनगर में मोहन काका रहते थे। वे शारीरिक रूप से हष्ट-पुष्ट व कर्मठ व्यक्तित्व के धनी, सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले और खुशमिज़ाज व्यक्ति थे।
इसी गाँव में मनसुख बाबा का आश्रम था, बाबा हमेशा प्रसन्नचित्त रहते थे। बाबा के मुखमण्डल का तेज व मुस्कराहट को देख हर किसी व्यक्ति का चेहरा इस कदर खिल उठता मानो सूर्य-किरण पड़ते ही कमलिनी खिल उठती हैं। प्रसन्नता महत्वपूर्ण आध्यात्मिक सद्गुण माना जाता है। बाबा ने क्रोध व अहं पर विजय प्राप्त कर ली थी। उनमें लोगों को खुश करने की कला थीं गर गाँव में कोई भी व्यक्ति नाखुश मिल जाता तो वे उनके रहस्य जान कर उसके मुखमण्डल पर प्रसन्नता की लकीरें खींच देते।
बाबा की मान्यता थी कि, दरअसल भगवान मंदिर, मस्जिद व गिरजाघरों में न होकर दीन-दु:खियो व पीड़ितों के दर्द भरी आह के पीछे की मुस्कान में वास करते हैं। मनसुख बाबा निशदिन करमाला को छोड़ दीन-दु:खी व पीड़ितों के दु:ख दर्द में सहभागी बन उनके दर्द को हल्का कर उसमें मुस्कान लाने की माला फेरते थें। बाबा को इस मुस्कान में ही प्रभु के साक्षात् दर्शन होते थें।
मोहन काका भी मनसुख बाबा के आश्रम में आते-जाते थे और प्रभु के भजन कीर्तन करते। मोहन काका की सहधर्मिणी भी सुसंस्कारित व पतिव्रता नारी थी उनमें वे सारे गुण विद्यमान थे जो एक नारी में होने चाहिए। मोहन काका का परिवार खुशियों से सरोबार था उनकी अर्धाङ्गिनी भी पुजा पाठ, व्रत वगैरह किया करती थी, वह भगवान में गहन विश्वास रखती थीं। सब कुछ ठीक-ठाक था पर काका की शादी किए छ:-सात वर्ष हो गए पर उनके कोई सन्तान नही थीं शनैः शनैः नि:सन्तानता का दर्द काका के खुशियों की बगिया को उजाड़ने लगा।
एक दिन मोहन काका कहीं जा रहे थे सामने से पंडितजी आ रहे थे, पंडितजी ने जैसे ही सामने आते मोहन काका को देखा वो पीछे मुड़कर वापस घर चले गये ।पंडित जी के पीछे एक व्यक्ति आ रहा था।
मोहन काका ने उनसे पुछा कि, पंडित जी पीछे क्यों मुड़ गए ? तो उन्होंने बताया कि, “अपशकुन होने पर पंडित जी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाते हैं ।”
मोहन काका- अपशकुन! कहाए का अपशकुन ।
सहसा मोहन काका के चेहरे का रंग इस कदर उड़ गया मानो इन्द्रधनुष में से सबसे चमकिला रंग लुप्त हो गया हो ।इस घटना ने मोहन काका को भीतर तक झकझोर कर रख दिया ।अब उनका खुशमिज़ाज मुखमण्डल निराशा , उद्विग्नता से परिपूर्ण उदास चेहरे में बदल गया । मोहन काका कई दिनों तक घर से बाहर नहीं निकले ।नि:संतानता का दु:ख इन्हें दीमक की भांति कुतरने लगा । अब मोहन काका ने आश्रम में जाना भी बंद कर दिया ।इधर आश्रम से यूँ अचानक किसी खुशमिज़ाज चेहरे का कई दिनों तक गायब रहना सभी को खलने लगा। क्योंकि मोहन काका आश्रम में सबसे घुल-मिल गए थे। आखिर एक दिन मनसुख बाबा मोहन काका के घर गयें ।बाबा काका के मन की पीड़ा को जान बहुत दुःखी हुए ।मोहन काका इन दिनों बहुत थक गये थे, उनके हालत देख बाबा ने मन ही मन परम पिता परमेश्वर से काका के लिए एक सन्तान की कामना की ।इस तरह मनसुख बाबा को अपने दु:ख में सहभागी बनते देख मोहन काका गद्गद हो गए ।मोहन काका ने मन ही मन सोचा कि, इस संसार में कोई तो है अपना ।
मनसुख बाबा ने मोहन काका को प्रभु पर विश्वास रखते हुए आश्वस्त किया कि, आपने अब तक बहुत ही अच्छे कर्म किये है और आगे भी आप इसी तरह कर्म करते रहो ।भगवान जरूर एक दिन आपकी इच्छा पूर्ण करेंगे ।उनके घर देर हैं पर अंधेर नहीं ।
मनसुख बाबा को किसी व्यक्ति का दु:खी रहना खटकता था, वे दु:खी व्यक्ति के सहभागी बन उसके दुःख हल्का करने में हरसंभव प्रयास करते थे। किसी पीड़ित व्यक्ति के दु:ख-दर्द को मिटाकर उसमें खुशियों की लहर लाने में ही अपनी सफल भक्ति मानते थे ।मनसुख बाबा के रहते खुशीनगर में कोई दु:खी नहीं रहता था, तभी तो गाँव का नाम खुशीनगर पड़ा था ।
अब मोहन काका फिर से दीन दु:खियो व पीड़ितों की सेवा में ही अपना समय व्यतीत करने लगे ।और खुशियों का मीठा प्रसाद बांटते फिरते ।
समय चक्र चलता रहा एक वर्ष बाद वो दिन भी आ गया जिसका मोहन काका को बेसब्री से इंतजार था सुने आंगन में किलकारियां सुन काका के खुशी के ठिकाने न रहें ।काका के चेहरे का रंग फिर से लौट आया था ।काका इस खुशी को मनसुख बाबा को भी बाँटना चाहते थे, वे आश्रम गये और सारी बात बाबा को बताई ।मोहन काका को प्रसन्नचित्त देख मनसुख बाबा इतने खुश हुए कि मानो इन्हें प्रभु के साक्षात् दर्शन हो गए हो ।
अब खुशीनगर में कोई दु:खी नहीं था चारो ओर खुशी का माहौल , गाँव में नन्हें-मुन्ने बच्चे , बूढ़े़े जब गोधुलि वेला में चहल-पहल करते,उनके खुशमिज़ाज चेहरे ऐसे प्रतीत होते थे मानो संध्या सुन्दरी नायक को देख मुस्कुरा रही हो ।
धीरे-धीरे बबलू बड़ा हो जाता है मोहन काका बबलू का बहुत ख्याल रखते थे रखते भी क्यों नहीं ? आखिर बेटे की भूख किसको नहीं होती हैं वही तो उनके बुढापे में सहारा बनेगा । और वैसे मोहन काका ने कई बरसों तक नि:सन्तानता का दु:ख झेला था तो उन्हें सन्तान न होने का क्या अहसास होता है वह उन्हें अच्छी तरह पता था। मोहन काका ने बबलू को उनके पुर्वजन्म की सारी कहानी बता दी थी, बबलू भी मनसुख बाबा पर बेहद विश्वास करने लगा । वह भी प्रतिदिन बाबा के आश्रम में आता था और भजन कीर्तन में भाग लेता था
बबलू कहीं इधर-उधर चला जाता तो जब तक वह घर नहीं लौटता था तब तक मोहन काका व उनकी पत्नी खाना भी नहीं खाते थे।परिवार में इकलौता बेटा हर किसी माता-पिता के लिए बहुत प्यारा होता है वो भी जब शादी के वर्षों बाद कई कष्ट झेलने के बाद गर पुत्र प्राप्ति हो तो वह ओर भी अधिक प्यारा हो जाता हैं ।बबलू उनकी माँ-बाप के लिए आँखों का तारा था ।
बीस की अवस्था में बबलू की शादी कर दी जाती हैं ।बबलू को एक खूबसूरत पत्नी मिलती हैं, शायद ऐसी सुन्दर औरत पूरे गाँव में कोई नहीं थीं ।बबलू पत्नी की सुन्दरता पर कायल था ।बबलू पत्नी की मोह माया में फंसता जा रहा था, वह आश्रम भी कभी जाता और कभी नहीं भी जाता ।
वह अपनी पत्नी से बेइंतिहा मोहब्बत करता था ।बबलू अपने माता-पिता से भी अधिक अपनी पत्नी पर यकीन करता था ।नयी नवेली दुल्हन को सामुहिक परिवार में रहना नागवार लगता था।एक दिन उन्होंने परिवार से अलग होने की बात बबलू के समक्ष रखी ।बबलू को थोड़ा बुरा लगा ।उन्होंने सोचा आखिर माता-पिता के बुढापे की लाठी, मैं ही तो हूँ ।फिर इनकी देखभाल कौन करेगा? बेसहारा बबलू क्या करता। त्रयाहठ है जो, आखिर बबलू को मोहन काका से अलग होने ही पड़ा । मोहन काका को उनके बुढापे में सहारे की लकड़ी टूटती देख बहुत दु:ख हुआ।
परन्तु उन्होंने सही वक्त पर अपने आपको संभाल लिया । आखिर पिता, पिता ही होता हैं मोहन काका अपनी सारी भावनाओं का दमन कर अपने पुत्र की प्रसन्नता की ही कामना करते थे। मोहन काका भगवान से यही प्रार्थना करते थे कि भले ही बबलू हमारे बुढापे का सहारा बने या नहीं बने परन्तु हे!प्रभु, मेरे बबलू को हमेशा प्रसन्न रखना ।
कई मर्तबा मनसुख बाबा ने मोहन काका को बबलू के बारे में पूछा पर मोहन काका ने अपने घर का पर्दा खोलना उचित नहीं समझा । एक दिन बबलू आश्रम में आया उस दिन न जाने क्यों बाबा ने बबलू को रात्रि में आश्रम में ही ठहरने का कह दिया । लेकिन बबलू कहता है कि, बाबा यदि मैं घर नहीं जाऊँगा तो मेरे बिना मेरी पत्नी खाना नहीं खाएगी ।वह मेरे बिना एक पल भी नहीं रह सकती ।
मनसुख बाबा बोले बेटा , ये तेरा भ्रम है ।बबलू यह बात मानने को कतई तैयार नहीं था।उनको थोड़ा घमंड भी होने लगा था बबलू यह मानने लगा कि, शायद मेरी पत्नी मेरे से जितना प्रेम करती हैं उतना दुनिया में कोई किसी से नहीं करता हैं । बबलू मोहन काका का प्यार दुलार भूल चुका था मनसुख बाबा ने कहा बेटा , मैं तेरे पत्नी का प्यार देखना चाहता हूँ ।मनसुख बाबा ने बबलू को श्वाँस रोकने की एक युक्ति बताई ।बबलू घर आया ।शाम का खाना खा कर बैठे ही थे कि, अचानक बबलू के पेट में दर्द होता हैं बबलू निचेष्ट गहरी नींद में सो गया ।बबलू की पत्नी उसे मरा हुआ जान जोर जोर से विलप्ति चित्कार करती हैं ‘अरे.. म्हारै घर ग्यां वळा रह्या’ ।आसपास के ग्रामीण भी इकट्ठे हो गये ।जब मोहन काका को ये समाचार मिला तो उनके तो पैरों तले की जमीन खिसक गयी ।मोहन काका के घर में मातम छा गया ।इतने में मनसुख बाबा भी वहां आ गए ।मोहन काका ने उनके पैर पकड़ लियें ।और रोते हुए बोले हे!गुरुदेव कैसे भी करके मेरे बबलू को जीवित कर दो । बबलू की पत्नी भी मनसुख बाबा के पैर पकड़ कर जोर जोर से विलाप करते हुए बबलू के प्राणों की भीख मांगने लगी ।बाबा ने कहा कि होनी को कोई नहीं टाल सकता है ।परन्तु एक उपाय हैं, अगर परिवार का कोई भी सदस्य प्राण के बदले प्राण दे, तो इसकी मृत आत्मा को वापस आ सकती हैं।चारों ओर सन्नाटा छा गया ।बबलू को जीवित करने के लिए अपने प्राण कौन देगा ? सबसे पहले उनकी पत्नी से पूछा तो उन्होंने कहा कि, मेरे मरने के बाद बबलू के जीवित होने का क्या औचित्य है ? फिर तो उनका जीवन सुखा मरुस्थल बन जाएगा और वह मेरे वियोग में जिते-जी मर जाएगा।मैं मेरा घर कही ओर बसा लुंगी पर प्राणों की आहुति नहीं दूंगी। बबलू की माँ को पूछा तो वह अपने पुत्र के लिए प्राण देने को तैयार हो गई। इतने में तो काका ने बाबा के पैर पकड़ लिए और कहा गुरुदेव! चाहे मेरे प्राण ले लो पर मेरे बबलू को जीवित कर दो । मुझे कुछ नहीं चाहिए बस मेरे बबलू को आप जीवित कर दो । ये दृश्य बबलू सुन रहा था ।बाबा ने कहा काका आपका बबलू जिन्दा है ।सभी स्तब्ध रह गये! बबलू उठ खड़ा होता है ।और मोहन काका के पैरों में पड़ कहा पिताजी मुझे क्षमा कर देना ।आज मुझे अहसास हुआ कि, आखिर अपने कौन होते हैं ? मोहन काका गद्गद हो गए। अपने पुत्र को गले लगा लिया ।

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परिचय :- नरपत परिहार ‘विद्रोही’
निवासी : उसरवास, तहसील खमनौर, राजसमन्द, राजस्थान


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