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फिर आगोश में तुमको मिलेगी

विवेक रंजन ‘विवेक’
रीवा (म.प्र.)

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धुआँ-धुआँ हर तरफ धुआँ,
किस ग़म ने यूँ तुम्हें छुआ।
अंधियारे में सिमट गये तुम,
नशे की सोहबत बना धुआँ।
मत डूबो स्याह समंदर में,
बस टूट गया दिल इसी बहाने।
प्रखर रश्मियाँ आ बैठी हैं,
शिविर तिमिर का दूर हटाने।
इस धुयें की गर्त को अब तो नकारो,
धूप फिर आगोश में तुमको मिलेगी।

भले ना पथ अनुकूल मिले,
पर आशा के तो फूल खिलें।
धूल धूसरित स्वेद लपेटे,
अब कितने भी शूल मिलें।
ये सफ़र ऐसा कि जिसमें,
खुद का चलना बड़ा जरूरी।
अपने पास ही तो जाना है,
खुद से ही कम करना दूरी।
तुम भी थोड़ा इसी पंथ की बाट निहारो,
धूप फिर आगोश में तुमको मिलेगी।

यह अनुभूति बड़ी अनूठी,
यूँ ही पास नहीं आयेगी।
पहले ये तुम्हें छकायेगी,
कदम-कदम अजमायेगी।
वीतराग करने को प्रेरित
अंतर्मन अनल जलायेगी।
फिर देगी वह अपनी प्रतीति,
और तुमको गले लगायेगी।
तुम मन से तो उसका नाम पुकारो,
धूप फिर आगोश में तुमको मिलेगी।

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परिचय : विवेक रंजन “विवेक”
जन्म –१६ मई १९६३ जबलपुर
शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र
लेखन – १९७९ से अनवरत…. दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास “गुलमोहर की छाँव” प्रकाशित हुआ है।
सम्प्रति – सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों से समबद्ध हैं।


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