माधवी तारे
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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जिनके हाथों में पालने की डोरी,
उसकी महिमा जगन्नाथ से भी भारी।।
मातृ दिवस का मर्म इन दो पंक्तियों में समाया है।अहिल्या सीरियल दूरदर्शन पर देखते-देखते मां से जुड़ी कई यादें दिमाग में पुनः ताजा हो गई हैं। कुछ बातें आपके साथ साझा करने का प्रयास कर रही हूं।
स्वानुभूति के समंदर में गोते लगाते हुए मेरी मां ने कुछ उसूलों के मोती पाए थे और उनको अपने मन मंदिर में सजाकर आज की दृष्टि से विशाल परिवार को सभ्य, सुसंस्कृत, संस्कारित, आध्यात्मिक संबल से पालने का निश्चय किया था।
बात पुराने जमाने की है अर्थात ३० के दशक से शूरू होती है….शादी के समय मेरी मां की उम्र ९-१० साल की और पिताश्री की उम्र १९-२० साल की थी। गांव के मुखिया की बेटी थीं वे। खेत-खलिहान, बाग-बगीचे भव्य बाड़े, नौकर-चाकर तथा भरे-पूरे परिवार से थीं हमारी मां। मुखिया जी के घर की शादी थी। पूरा गांव अपने-अपने तरीके से उसे संपन्न करने में हाथ बंटाने में व्यस्त था। बहुप्रतीक्षित वह दिन आ गया। बारातियों का स्वागत धूम-धड़ाके से हुआ था। दूल्हा सांवला-सा सुंदर नाक-नक्श वाला, चेहरे पर होशियारी का तेज वाला देखकर अपूर्वानंद अनुभूति हो रही थी सबको। विदाई की बेला में दुल्हन की नानी और दादी की आंखों में आंसू और चेहरे पर चिंता की लकीरें छुपाए न छुप रही थीं। बड़े बुजुर्गों ने समझाने का काम किया था।
साधारण स्थिति का है, इस बात से दुखी मत होना, पर लड़का बुद्धिमान है, पढ़ने की चाह रखने वाला है। अगर उसे जरूरत पड़ेगी, तो हम आर्थिक सहयोग देंगे और उसे कामयाब बनाएंगे, चिंता छोड़ो। बारात रवाना हो गई। गांव से लड़की छोटे शहर में आ गई। सासु मां और ससुर जी अत्यंत सुशील व शांत स्वभाव के थे। बाकी दूल्हे के बड़े भाई कुछ निठल्ले थे। आखिर दूल्हे को आगे पढ़ाई के लिए इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिला लेना पड़ा। छोटी-सी दुल्हन को कभी कुल गुरु के आश्रम में सेवा के लिए, तो कभी शहर के रिश्तेदारों के यहां रखने का निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया। गुरुगृह के दिन भी कष्टप्रद और रिश्तेदारों को तो बिन पैसे की नौकरानी मिली, जैसा लगा था। आखिर सारे कष्ट झेलते हुए पिताजी की पढ़ाई पूरी हो गई। नौकरी भी मिल गई थी और मां के सारे कष्टों की इति श्री हो गई। मां की मां जिंदा थी तब, घर- गृहस्थी की गाड़ी अपने सुखावेग से चल रही थी। परिवार वृद्धि भी हो रही थी। ‘हम दो, हमारे दो’ का जमाना नहीं था वह।
इन सारी स्थितियों से गुजरते समय मां ने कुछ उसूल मन में ठान लिए थे। उनका जिक्र करते हैं- पहला- मां ने तय किया था कि मैं पढ़ी-लिखी नहीं थी तो पति की पढ़ाई खत्म होने तक मुझे दूसरे के यहां रहकर कष्ट सहन करने पड़े। मेरी बेटियों को जितना भी पढ़ना चाहेंगीं, उतना मैं पढ़ाऊंगी। हर हाल में पढ़ाई पूरी होने तक शादी की बात भी नहीं करूंगी। पढ़ाई करते समय घर के काम का बोझ उन पर नहीं डालूंगी दूसरा-पढ़ाई के साथ-साथ सिलाई, बुनाई, कढ़ाई की आदतें डालूंगी ताकि शादी के बाद भी यह हुनर उन्हें सहायक बन सकेगा। दोपहर सोना अच्छी बात नहीं उस से मोटापा बढ़ेगा। तीसरा-जिस परिवार में केवल पुरुष वर्ग ही है, उसमें किसी लड़की को ब्याहूंगी नहीं। सासू मां घर में होना ही चाहिए। सौ बार डांटेगी, तो भी एक बार तो प्यार करेंगे। अनपढ़ घर में ब्याह नहीं होने दूंगी। बच्चियों का घर गृहस्थी में हाथ बंटाने का व जरूरत पड़ने पर नौकरी करने की तैयारी से परिपालन करूंगी। अपनी थाली में जो मिला उसको निभाने का प्रशिक्षण दूंगी। पति को परमेश्वर मानकर गुण दोष सहित अपनाने का कहूंगी। जिस घर में दिया है, उस परिवार का साथ मरते दम तक निभाना सीखाऊंगी। श्रद्धा, सबुरी, सहनशीलता और आध्यात्मिक अधिष्ठानपूर्वक जीवन जीने का तरीका अपनाने को कहूंगी। ऐसे और अन्य और भी अच्छी आदतों में ढालने का प्रयास करूंगी। अनुशासन की नींव पर अडिग रहने का महत्व जीवन में उतारना जरूरी है । ऐसे कई अन्य उसूलों पर चलना सिखाते हुए इतने बड़े परिवार की गाड़ी सुचारू रूप से चलाकर आज मां रूपी वटवृक्ष की शाखाएं देश में देश-विदेश में रहकर भी संस्कारित जीवन बिता रहे हैं।
ऐसी मां तुझे सलाम…..
परिचय :- माधवी तारे
निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश)
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