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नदी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
लखनऊ (उ.प्र.)

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मेरी
परिभाषा या परिचय की आवश्यकता नहीं
मेरी भी भावनाएं हैं, मै महसूस भी करती हूं
मगर आज ये सब अस्तित्व विहीन सा लगता है।

बिना रुके बिना थके अविरल चलती रहती हूं
पर्वतों, कठोर रास्तों से टकराती, दर्द से कराहती नहीं
इठलाती बलखाती सागर से मिलती हूं।
जीवन का स्त्रोत हूं, जीने का आधार भी हूं, में।

किसी धर्म जाति के बंधन से परे हूं
कोई सीमा मुझे बांध नहीं सकती,
पूरी दुनियां में अलग नाम अलग रूप हैं मेरे,
मुझमें सुख दुख की अनुभूति भी है,
गहरी चोट खाती, आहत हूं आज,
मगर चुप हूं!!!!!!

क्यों कि प्रकृति की देन हूं, जो प्रकृति मेरी ‘मां”है।
मां ने मुझे हिसाब लेना नहीं सिखाया
किन्तु आज मैं संकट में हूं।
मैं दुखी हूं !!

मेरे आंचल में ही इंसान का अस्तित्व सिमटता है,
मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन, उसके सपने,
सभी मेरे अतः करण में समा जाने हैं।

ये जीवन “राख” में समाहित है, ये मैं भी जानती हूं,
ये “राख” यूं ही मुझमें विलीन हो जाना है।
फिर भी इंसान मुझे अस्तित्व विहीन करने पर तुला है

यही कर्म इंसान को मुझसे अलग करता है रहा है
मैं, जो कभी थकती नहीं, कभी मरती नहीं
ना ही मैं दफनाई जाती हूं,
जीवन निरंतर चलते रहने का नाम है
मैं मानव को ये संदेश देती हुं।

मगर इंसान के कर्मों ने उसे “प्रकृति” का विरोधी बना दिया
प्रकृति के विरोध स्वरूप मेरा’ “कहर” भी देखा है दुनिया ने,
फिर भी नासमझ बन बैठा है।

क्या रोक पाएगा प्रकृति के भीषण प्रकोप को????
जब सम्पूर्ण जगत जलमग्न हो जाएगा,
या जीवन जलविहीन हो जाएगा??
मैं तो प्रकृति की देन हूं….
मैं थी, मैं हुं, मैं रहूंगी!!!

परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी
जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी
शिक्षा : एम. ए.,एम.फिल – समाजशास्त्र,पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार)
निवासी : लखनऊ (उ.प्र.)
विशेष : साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने के शौक ने लेखन की प्रेरणा दी और विगत ६-७ वर्षों से अपनी रचनाधर्मिता में संलग्न हैं।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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