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रंजना फतेपुरकर
इंदौर (म.प्र.)
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हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में पंचम विजेता (प्रोत्साहन) रही लघुकथा
गुनगुनाती, छलछलाती नदी की अथाह जलराशि की एक-एक बूंद उमंग से थिरक रही थी। नदी की धाराओं में संगीत और नृत्य का अद्भुत मेल था। सागर में अपना अस्तित्व विलीन करने की सुखद अनुभूति से वह अभिभूत थी। कभी वह किनारे के सुगंधित, रंगबिरंगे पुष्पों की कोमल पंखुरियों को और कभी विशाल वृक्षों से लिपटी लताओं को अपनी फुहारों से भिगो रही थी। प्राची की अरुणिमा ने अपने प्रतिबिम्ब से जैसे नव-वधु सी नदी को लाल चूनर ओढ़ा दी थी। आज नदी सारी बाधाओं को पार कर अपने आराध्य प्रियतम, सागर से मिलना चाहती थी।कभी इस मोड़ पर झूमती, कभी उस मोड़ पर नाचती नदी बही जा रही थी।
लेकिन नदी जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही थी, उसकी काया क्षीण होने लगी। नदी की धड़कनों की गति धीमी होने लगी। थोड़ा और आगे जाकर तो नुकीली चट्टानें और रेत के कई छोटे-छोटे टीले नदी के बहाव में बाधा डाल रहे थे, उसकी राह की अवरुद्ध कर रहे थे। नदी की आंखें छलछला उठीं। उसने दुःखी मन से किनारे को देखा, वह स्तब्ध रह गई। किनारे उजड़े हुए थे, न वहां झूमते वृक्ष थे न खिलखिलाते फूल और न ही वृक्षों का आलंबन लिए इठलाती बेलें। मानवों की हृदयहीन अज्ञानता ने वन संपदा नष्ट कर धरती को बंजर बना दिया था। नदी का बहता वैभव वृक्षों की ही तो देन था।
नदी ने आशा भरी नजरों से आकाश की ओर देखा। वह मन ही मन बादलों से अनुनय करने लगी- “हे श्यामल मेघ तुम बरस पड़ो। कभी तो मानव वृक्षों के प्रति किए गए अपने अपराध को समझेगा। लेकिन मानवों की गलती की सज़ा मुझे तो न दो। देखो सागर कितनी आतुरता से मेरी राह देख रहा है। सागर सोचेगा मैं अपना धर्म भूल गई हूँ।”
नदी के करुण आर्त्तनाद ने बादलों का ह्रदय पिघला दिया। देखते-देखते उमड़-घुमड़ कर छाए काले बादलों से सारा आकाश स्याह हो गया।बिजलियों के अलौकिक नर्तन ने आकाश को रोशनियों से नहला दिया। साथ ही शुरू हो गया बूँदों का उत्सव। नृत्यमय मयूरों के सतरंगी पंखों से झरते रंगों ने आकाश में इंद्रधनुष छलका दिया।
क्षीण कलेवरा नदी अब जलराशि से समृद्ध हो अबाध गति से बह चली। रास्ते की सारी बाधाओं को अपनी धाराओं में निमग्न कर वह सागर के करीब पहुंच गई। नदी को देखते ही प्रतीक्षारत सागर ने अपनी सहस्त्र लहरों की बाहों में नदी को समेट लिया। सागर से मिलते ही नदी की आंखों से झर-झर आंसू बह सागर के पानी को खारा करने लगे।
सागर जानता था नदी कितनी बाधाओं को पार कर उसमें अपना अस्तित्व समर्पित करने आई है। सागर ने अपनी अंजुली में नदी का भीगा मुख थाम, प्यार की अतल गहराइयों में डूब नदी से पूछा-
“नदी, आखिर कब तक तुम मुझे इसी तरह चाहती रहोगी?”
नदी ने एक पल सागर की गहरी नीली आंखों में झांका और बोली-
“जब तक तुममें मिठास नहीं आ जाती।”
सागर हंसा और बोला-
“जब तक तुम्हारे प्यार में बहते आंसू मुझे भिगोते रहेंगे भला तब तक मुझमें मिठास कैसे आ पाएगी?”
नदी ने समर्पित हो अपना सिर सागर के विशाल कंधों पर रख दिया और बोली-
“मैं तो अनंत काल तक तुम्हें यूं ही चाहती रहूंगी।”
नदी की आंखों से झरते आंसू सागर के कंधों को अब भी भिगो रहे थे।
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परिचय :-
नाम : रंजना फतेपुरकर
शिक्षा : एम ए हिंदी साहित्य
जन्म : २९ दिसंबर
निवास : इंदौर (म.प्र.)
प्रकाशित पुस्तकें ११
हिंदी रक्षक मंच इंदौर (hindirakshak.com) द्वारा हिन्दी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान सहित ४७ सम्मान
पुरस्कार ३५
दूरदर्शन, आकाशवाणी इंदौर, चायना रेडियो, बीजिंग से रचनाएं प्रसारित
देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में निरंतर रचनाएं प्रकाशित
अध्यक्ष रंजन कलश, इंदौर
पूर्व उपाध्यक्ष वामा साहित्य मंच, इंदौर
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