डॉ. पंकजवासिनी
पटना (बिहार)
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“तुम मुझे खून दो और मैं तुम्हें आजादी दूंँगा” इस सम्मोहक कालजयी नारे के प्रणेता नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के देदीप्यमान सितारे और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। जिन्होंने भारत के आजादी के लिए प्राण-प्रण से लड़ाई की और अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जर्मनी के नाजी नेतृत्व और जापान के शाही सहयोग से आजाद हिंद फौज का गठन कर उन्होंने अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूंक दिया और उन्हें इस देश को छोड़कर अपनी जन्मभूमि जाने पर विवश कर दिया। अत्यंत प्रभावशाली युवा व्यक्तित्व श्री सुभाष ने भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के दरम्यान भारतीय राष्ट्रीय सेना (आई एन ए) की स्थापना की और उसमें अपनी प्रभावशाली भूमिका एवं अग्रणी प्रखर नेतृत्व के द्वारा “नेताजी” की उपाधि अर्जित की! आज भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व उन्हें बड़े सम्मान के साथ “नेताजी” कहता है!
नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म २३ जनवरी, १८९७ को उड़ीसा के कटक में पिता श्री जानकी नाथ बोस और माता श्रीमती प्रभावती देवी की बगिया में खिले १४ प्रसूनों में से नौवीं संतान के रूप में जन्म हुआ था। उनके पिता कटक के प्रसिद्ध वकील थे जो बाद में बंगाल विधान परिषद के सदस्य बने और उन्होंने “राय बहादुर” का खिताब भी अर्जित किया था। युवा सुभाष ने कोलकाता विश्वविद्यालय से बीए ऑनर्स किया। वर्लिन प्रवास में मिली ऑस्ट्रेलियाई मूल की महिला एमिली शेंकेल ने उनका हृदय जीत लिया जिससे १९४२ में उन्होंने हिंदू रीति से विवाह कर लिया और दांपत्य सूत्र में बंध गए फलतः बिटिया अनीता का जन्म हुआ।
उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़कर की। देश की पराधीनता उनकी आत्मा को प्रतिपल कचोटती रहती थी। अंग्रेजों द्वारा किए गए अन्याय-अत्याचार और अमानवीय कृत्यों के वे घोर विरोधी थे और अपने देश और देशवासियों के प्रति उनमें अगाध श्रद्धा थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में १९२१ से लेकर १९४० तक वे शामिल रहे। १९३८ में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने। पर मत-वैभिन्य के कारण अपनी अलग विचारधारा के साथ वे इससे अलग हो गए। देश को आजाद कराने की अपनी जद्दोजहद के कारण वह वे अंग्रेजों को खटक रहे थे। १७ जनवरी १९४१ में एल्गिन रोड स्थित अपने आवास से ब्रिटिश निगरानी से वे अपने भतीजे शिशिर के साथ भागकर पेशावर पहुंचे और वहां से अफगानिस्तान के काबुल से होते हुए सोवियत रूस के मास्को पहुंचे जहाँ देश को स्वाधीन कराने के लिए कोई सहायता ना पाकर वे जर्मनी चले गए जहाँ उन्हें सहायता मिली। ५ जुलाई १९४३ को सिंगापुर के टाउन हॉल के सामने सुप्रीम कमांडर के रूप में सेना को संबोधित करते हुए उन्होंने “दिल्ली चलो” का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश एवं कामनवेल्थ सेना से वर्मा सहित इंफाल और कोहिमा में जमकर मोर्चा डाला/बाँधा। २१ अक्टूबर १९४३ को सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज के चीफ कमांडर के रूप में स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार बनाई जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली मान्चुको, आयरलैंड आदि ११ देशों की मान्यता मिली और जापान ने अंडमान निकोबार दीप समूह इस अस्थाई सरकार को दे दिया जिसका सुभाष चंद्र बोस ने नया नामकरण किया। १९४४ ईस्वी में आजाद हिंद फौज ने अंग्रेजों पर पुनः आक्रमण करके कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों के आधिपत्य से मुक्त करा लिया। ४ अप्रैल १९४४ से २२ जून १९४४ तक भयंकर रूप से लड़ा गया कोहिमा का युद्ध जिसमें जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा और यह एक निर्णायक युद्ध सिद्ध हुआ। इस युद्ध में जीत के लिए सुभाष चंद्र बोस ने गांधी जी से आशीष और शुभकामनाएं भी मांगी थी ६ जुलाई १९४४ को रंगून रेडियो स्टेशन से गांधीजी के नाम एक प्रसारण द्वारा। हालांँकि आजाद हिंद फौज के माध्यम से नेताजी भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने में सफल नहीं हो सके। पर इसका भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष पर बड़ा ही दूरगामी प्रभाव पड़ा और १९४६ में नौसेना विद्रोह हो गया जिसने अंग्रेजो को ब्रिटिश सत्ता को यह विश्वास दिला दिया कि अब भारतीय सेना की बदौलत भारत पर शासन नहीं किया जा सकता है और उनके पास भारत को स्वतंत्र कर देना है एकमात्र विकल्प शेष है।
विश्व के इतिहास में नेता जी द्वारा निर्मित आजाद हिंद फौज ही एकमात्र ऐसा उदाहरण है जिसमें ३०-३५ हजार युद्ध बंदियों ने धुन के पक्के दृढ़ संकल्प के धनी अदम्य साहस के स्वामी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में संगठित होकर अपने देश की स्वतंत्रता के लिए विदेशी शासकों के विरुद्ध प्रबल संघर्ष छेड़ दिया।
देश की स्वतंत्रता के संघर्ष में अपना अप्रतिम अमूल्य योगदान देने वाले स्वतंत्रता सेनानियों में महान क्रांतिकारी नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। उनके द्वारा दिया गया जय हिंद का नारा आज भी हमारे देश का राष्ट्रीय नारा बना है हुआ है और इसका उद्घोष हर भारतीय को आज भी गर्व अनुभूति से भर देता है।
१८ अगस्त १९४५ के बाद नेताजी का कुछ भी अता पता ना चला। जापान में प्रतिवर्ष १८ अगस्त को नेताजी के शहीद दिवस के रूप में मनाते हैं। पर उनका परिवार १९४५ में उनकी मृत्यु को नहीं मानता और आज भी उनकी मृत्यु को लेकर रहस्य बना हुआ है। २३ जनवरी २०२१ को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की १२५ वीं जयंती है। जिसे भारत सरकार ने पराक्रम दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। नेता जी का दिव्य व्यक्तित्व हर युग में युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बना रहेगा और उनकी उज्ज्वल-धवल यश-कीर्ति धरा पर अक्षुण्ण रहेगी। भारत के दिव्य सपूत को संपूर्ण राष्ट्र का कोटिशः नमन!
परिचय : डॉ. पंकजवासिनी
सम्प्रति : असिस्टेंट प्रोफेसर भीमराव अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय
निवासी : पटना (बिहार)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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