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रचयिता : विनोद सिंह गुर्जर
कच्चे चूल्हे भूले,
भूले सावन के झूले ।।
प्रीत भी भूल चले है,
दीवारो के छांव तले हैं।
किससे क्या आश करें।
किस पर विश्वास करें।।
जिससे प्रीत बढ़ाई।
वो भी है हरजाई।।
ये जग नहीं अपनापन का,
दुख कौन हरेगा मन का ।
सब मतलब के नाते।
दिग्भ्रमित हमें कर जाते।।
चेतनता हर जाती।
सब शून्य नजर ही आती।
मैं सोच रहा हूँ कैसे ?
इस प्रीत से छुटकारा हो
ना मोह रहे बंधन का,
ना कोई जग प्यारा हो।।
ह्रदय से एक आह निकले,
और चाह मिटे पाने की।
में मतवाला पागल बस,
एक धुन हो कुछ गाने की।।
वो दिवस शीघ्र आऐगा,
जो मुझको तरसाते हैं।
वो खुद एक दिन तरसेंगे,
आंसू बन जो आते हैं।।
अभी हृदय पावस है।
मेघ सहज बन जाता।
तेरी यादों में आकर,
नेह सजल बरषाता ।।
पतझर जिस दिन ये होगा।
तुम तरसोगे सावन को,
किंतु नहीं पाओगे,
पुण्य प्रीत पावन को।।
प्रकृति का है नियम सखे,
परिवर्तन सब कुछ होता है,
एक तुलसी दीवाना था,
फिर तुलसी कवि होता है।
कब मन में वीणा झनक उठे,
कब सुप्त राग आल्हादित हो।
कब मोह माया तजि दे मन रे,
वैराग्य हृदय आच्छादित हो।।
जो भी होगा अच्छा होगा,
सब छोड़ दिया कल आने पर,
अभी वर्तमान का करें सृजन,
खोजें नूतन नव लाने पर।
परिचय :- विनोद सिंह गुर्जर आर्मी महू में सेवारत होकर साहित्य सेवा में भी क्रिया शील हैं। आप अभा साहित्य परिषद मालवा प्रांत कार्यकारिणी सदस्य हैं एवं पत्र-पत्रिकाओं के अलावा इंदौर आकाशवाणी केन्द्र से कई बार प्रसारण, कवि सम्मेलन में भी सहभागिता रही है।
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