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यक्षप्रश्न गहरे हैं

डॉ. कामता नाथ सिंह
बेवल, रायबरेली

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तेरे नैनों की भाषा को
अब तक कोई समझ न पाया,
डूब गया हूँ जबसे मैंने
इनके तट पर पाँव धरे हैं।।

मौन मुखर होने को आतुर
सौ संसृतियों के उद्भव का,
परिलक्षित स्वरूप होता
हर एक असम्भव का, सम्भव का;

जाने क्या काला जादू है
इनमें, जिसे देखकर अबतक
जाने कितने चाव अधूरे
इनकी पाँखों में ठहरे हैं।।

सागर सी गहरी आँखों में
आसमान की ललक जगी है,
सपनों के मूंँगे-मोती से
अपनों की हर पलक पगी है:

कितनी मनुहारें इनके तट
पर आकर डेरा डाले हैं,
अवचेतन मन के फिर भी
जाने कितने कठोर पहरे हैं।।

पछुआ के झंझावातों ने
पीछे कितनी बार धकेला,
पुरवाई ने दिये निमंत्रण
देखा जितनी बार अकेला;

अमराई की छाँह न सोची,
दोपहरी का घाम न देखा,
प्रेम पियासे पागलपन के
देखा यक्षप्रश्न गहरे हैं।।

परिचय :- डॉ. कामता नाथ सिंह
पिता : स्व. दुर्गा बख़्श सिंह
निवासी : बेवल, रायबरेली
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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