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प्रीत की पाती: तृतीय स्थान प्राप्त रचना

विवेक रंजन ‘विवेक’
रीवा (म.प्र.)

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जाने कब से रहा निरखता, मैं अपनी प्यारी सजनी को।
कुछ धूप चुरा के ऊषा की, कुछ देर लजाती रजनी को।
कितना भोला स्निग्ध है चेहरा, कुछ बूंदें शबनम पलकों में।
क्या अद्भुत सिंगार किसी ने, काजल बिखरा दी अलकों में।
मधुकलश सजे हैं अधरों पर, दिल में सागर की गहराई।
झील के दरपन सा अन्तर्मन, मन की लहर वहाँ लहराई।
पलकों की पढ़ पढ़ के इबारत, प्रणय के कितने गीत लिखे।
तब जन्मों का साथ निभाने, तुम बनकर मन मीत मिले।
बारात सजी अब अरमानों की, प्रणय प्रीति परिधान लिये।
बेकल से दिल को चैन मिलेगा, तुमको पाकर प्राणप्रिये !
छनकती पायल आस बंधाती, अभिलाषा के गीत सजाती।
कुछ दिन का बस धीर धरो, सनद रहे ये प्रीत की पाती।
यह प्रेम चिरन्तन बना रहेगा, रोम रोम हर साँस तुम्हारी।
बरस पड़े अब प्रेम सुधा रस, बाट जोहता प्रेम पुजारी।

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परिचय : विवेक रंजन “विवेक”
जन्म –१६ मई १९६३ जबलपुर
शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र
लेखन – १९७९ से अनवरत…. दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास “गुलमोहर की छाँव” प्रकाशित हुआ है।
सम्प्रति – सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों से समबद्ध हैं।


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