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नाटककार

प्रेमचन्द ठाकुर
बोकारो (झारखण्ड)

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सिमट जाती हैं हमारी
आत्माएँ कहीं कोने में
वेदना की प्रहार से,
निशब्द हो जाते हैं हमारे
चेहरे पितृसत्ता के समक्ष,
सजल हो जाते हैं हमारे नयन
परिजनो की निश्छलता के कारण।
कभी हम अभिमान बन जाते हैं
तो कभी अपमान,
हमारी न कोई पहचान।
दहलीज़ हमारे बदल जाते हैं
माथे पर सिन्दुर लगते ही,
प्रथा है शायद हम अबलाओं के लिए।
हमें हर क्षण सहिष्णुता का
स्वयंसेवक बनाया जाता है
और यही हमारी पहचान।
हमें किस-किस रूप में
और दिखाएँ जाएंगे
कभी रावण की कैद में “सीता”,
तो कभी कौरवों के
अपशब्दों की झोली में “द्रोपदी”,
तो कभी प्रणय पावन की
अभिशाप में “शकुन्तला”
और आज दरिन्दो की
बुरी निगाहों में “कठपुतली”।

 

परिचय :- प्रेमचन्द ठाकुर
निवासी :  बिरनी, जिला-बोकारो, झारखण्ड
घोषणा पत्र : प्रमाणित किया जाता है कि रचना पूर्णतः मौलिक है।


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