शंकरराव मोरे
गुना (मध्य प्रदेश)
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ओरा के विषय में बहुत लोग जानते हैं। ओरा मनुष्य के विचार और कर्मों का शूक्ष्म प्रकाश होता है जो शरीर के बाहर प्रकट होता रहता है। इसे तेज भी कहा जा सकता है। जब हम किसी संत या महात्मा या चिंतक के करीब पहुंचते हैं तो उनके ओरा क्षेत्र में हमारे विचार बदल जाते हैं क्योंकि यह एक सूक्ष्म प्रकाश है और प्रकाश किसी को दिखाई नहीं देता बल्कि उससे वस्तुएं दिखाई देती हैं। भले ही वह वायु में तैरती धूल या अन्य वस्तुएं हों। इसी प्रकार ओरा किसी को दिखाई नहीं देता अच्छे विचारों के प्रभाव से हमारी बुद्धि अच्छा महसूस करने लगती है और यह भी होता है कि हमारी अपनी समस्याएं उस क्षेत्र में आकर अपने आप सुलझने लगती हैं। यही ओरा का प्रकाश होता है। यह प्रकाश दूसरे व्यक्ति को पकड़ भी लेता है या दिया भी जा सकता है। यह गंध जैसा घ्राण इंद्रिय द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है। एक उदाहरण श्री रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद का दिया जा सकता है। श्री रामकृष्ण परमहंस के तप का ओरा जब नरेंद्र के शरीर में पहुंचा तो वह स्वामी विवेकानंद बन जाता है। मनुष्यों के सत विचारों से प्रकृति ओरा पुंज का निर्माण करती है और समाज में सुख शांति अपने आप दिखाई देने लगता है। प्रकृति का गुण है कि वह आप का दिया हुआ आपको ही लौटाती है। अपना ओरा कैसे देखें इस विषय पर बाद में चर्चा होगी। ओरा से पशु-पक्षी भी प्रभावित होते हैं गाय आपके विचारों को समझती है और कुत्ता आपके मन में उत्पन्न होने वाले भय को गंद द्वारा जान जाता है और वह आप पर भोकने लगता है। ओरा का विपरीत तत्व है कोरा। कोरा अर्थात खाली या प्रकाश का विपरीत यानी अंधेरा या विनाशक। पाप युक्त या विनाशक विचार वाले व्यक्तियों के शरीर से कोरा तत्व प्रकट होता है। प्रकृति इस कोरापुंज को ग्रहण करके जब लौटाती है तो विनाश लीला प्रारंभ हो जाती है। ऐसे लोगों के संपर्क में आने से व्यक्ति के विचार भी विनाशक प्रकट होने लगते हैं। वह स्वार्थी बन जाता है और हानिकारक विचार रखने लगता है। वर्तमान में फैल रहे इस विनाशक लीला में इसी कोरा का प्रभाव है। प्रकृति तो अपना काम करती ही रहती है सुधार के लिए मनुष्य को ही कदम उठाना पड़ेंगे। इसमें मनुष्य को व्यक्तिगत सुधार करना पड़ेगा उसे चाहिए कि वह परोपकारी चिंतन करें महापुरुषों की जीवनी पर चर्चा करें उनके नाम का स्मरण करें। यह कोरा नाक से और स्पर्श से हमारे शरीर में प्रवेश करता है। आपने देखा होगा कि कुछ साधक मुनि बहुत पहले से अपनी नाक पर मास्क लगाया करते थे और किसी को स्पर्श करने के पश्चात हाथ ही धोते थे तथा दूरी बनाकर भी रखे थे। आज वर्तमान समय को देखते हुए हमें उनका मार्ग अपनाना होगा मास्क लगाना होगा हाथ धोना होगा दूरी रखना होगा। यह कोरोना वास्तव में कोरा का ही रूप है सावधानी रखें ईश्वर का स्मरण करें जीवित रहने का यही एक मार्ग है। तुलसीदास जी ने भी कहा है कलयुग केवल नाम अधारा। शेष चिंतन फिर कभी।
परिचय :- शंकरराव मोरे
निवासी – गुना (मध्य प्रदेश)
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